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1975 के बाद आपातकाल लगाने की हिम्मत कोई प्रधानमंत्री नहीं जुटा पाया, देश के सबसे भयावह दौर की पूरी कहानी
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर दाग की तरह नजर आने वाली इमरजेंसी को याद रखना जरूरी है. देश अब उस भयावह दौर की याद से उबर चुका है. लेकिन उस दौर की कहानी, पीढ़ियों को बताती रहेगी कि लोकतंत्र और आज़ादी का असल मतलब क्या होता है.
बिपुल पांडे | गुप्त मीटिंगों में आपातकाल के फैसले के साथ हर अखबार के दफ्तरों की बिजली काट दी गई, पेपर नहीं छपने दिए गए. अगली सुबह जब देश उन्नीस महीने की अंधेरगर्दी की आगोश में जा रहा था, संविधान और कानून खत्म किए जा रहे थे तो अवैध फाइलों पर कानूनी मुलम्मा भी चढ़ाया जा रहा था. सुबह करीब छह बजे देश के कैबिनेट मंत्रियों को सोते से जगाया गया. उन्हें आपातकाल लागू करने का फैसला सुनाया गया. फैसला लागू हो जाने के बाद फैसले पर कैबिनेट की मुहर लगाई गई. इसके बाद इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो का रुख किया और 26 जून को सुबह आठ बजे प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा- उसमें खौफनाक फैसले के बीच एक भरोसा दिलाने की कोशिश भर थी, जो कभी भी पूरा नहीं होनी थी.