सम्पादकीय

अफगानिस्तान की कंगाली

Rani Sahu
21 Aug 2021 5:41 AM GMT
अफगानिस्तान की कंगाली
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तालिबान जब भी औपचारिक तौर पर हुकूमत में आएं, लेकिन अफगानिस्तान की सबसे गंभीर चुनौती उसकी कंगाली की है

तालिबान जब भी औपचारिक तौर पर हुकूमत में आएं, लेकिन अफगानिस्तान की सबसे गंभीर चुनौती उसकी कंगाली की है। वहां की करीब 90 फीसदी आबादी गरीबी-रेखा के नीचे है। औसत अफगान की रोज़ाना की आमदनी मात्र दो डॉलर (149 रुपए) है। गरीबी की परिभाषा में करीब 65 फीसदी आबादी गरीब है। ये अमरीकी और अफगान सरकार के मिले-जुले आकलन हैं। ऐसे हालात में अफगानिस्तान में जो अंधड़ मचा है, जु़ल्म ढाए जा रहे हैं, नागरिक तालिबान हुकूमत के बजाय मरने को तैयार हैं और सबसे बदतर स्थिति यह हो सकती है कि संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से जुड़े 190 देशों ने तालिबान के अफगानिस्तान को कोई ऋण अथवा विदेशी मदद देने से इंकार कर दिया है। आईएमएफ ने 44 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद पर रोक लगा दी है और स्पष्ट किया है कि काबुल में मान्यता प्राप्त सरकार बनने के बाद ही फंड जारी किया जाएगा। अमरीका ने अफगान के 700 करोड़ डॉलर के बैंक खाते सीज कर दिए थे, उसके बाद बाइडेन प्रशासन ने विदेशी मुद्रा की संपत्तियों और अफगान सेंट्रल बैंक-डीएबी-में रखा सोना भी फ्रीज कर दिया है। इनके कार्यालय अमरीका में हैं। इसके अलावा, अफगानिस्तान के 9 अरब डॉलर के रिजर्व विदेशों में हैं। उन पर भी ताले जड़ दिए गए हैं। दलीलें दी जा रही हैं कि यह अपार धन तालिबान के हाथ नहीं लगना चाहिए। तालिबान ने भारत समेत कई देशों के साथ आयात-निर्यात को भी रद्द कर दिया है। अफगानिस्तान पर अरबों डॉलर का बोझ पड़ेगा और संबद्ध देशों की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी। अराजकता, अस्थिरता, विद्रोह, हिंसा और कत्लेआम के मौजूदा दौर में आखिर 3.8 करोड़ आबादी के देश को कैसे चलाया जा सकेगा? यह आर्थिक संकट की ऐसी शुरुआत है, जिसे तालिबान की कथित हुकूमत नजरअंदाज नहीं कर सकती। अफगानिस्तान में अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर किसी भी ताकत के लिए देश चलाना असंभव-सा है। फिर अफगान सरकार के आर्थिक स्रोत पश्चिम दानदाताओं और जापान सरीखे देश के भरोसे रहे हैं।

अब उनका रुख बदल गया है, तो अफगान अर्थव्यवस्था भी असुरक्षित और कमज़ोर हो गई है। अफगानिस्तान की सामान्य जीडीपी करीब 20 अरब डॉलर की है। यह जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था में बॉलपार्क के समान है। आईएमएफ ने 2019 में कहा था कि जीडीपी के 40 फीसदी के करीब ही आर्थिक मदद होगी। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान अलग था कि नशीले पदार्थों की तस्करी से जीडीपी का 6-11 फीसदी हिस्सा ही हासिल किया जा सकता है। अफगानिस्तान की जीडीपी और विकास-दर विदेशी अनुकंपाओं और दान पर ही आश्रित रही हैं। 2003-12 के दौरान आर्थिक सहायता का प्रवाह बहुत अधिक था, लिहाजा विकास दर भी करीब 7 फीसदी हो गई थी। अब विदेशी मदद बहुत कम हो गई है, तो विकास-दर भी 2-3 फीसदी तक लुढक़ आई है। यह भी गौरतलब तथ्य है कि अफगानिस्तान में 12 फीसदी जमीन ही कृषि-योग्य है और करीब 70 फीसदी आबादी उसके सहारे पलती है। मौजूदा हालात में कृषि भी प्रभावित होगी, क्योंकि औसत अफगान खौफजदा है और देश से भाग जाना चाहता है। वहां के फिल्म उद्योग, टीवी, मनोरंजन, पेशेवर, खिलाड़ी, विश्वविद्यालय के छात्र और शिक्षक, कंपनियों में काम करने वाले विदेशी कामगार-इंजीनियर आदि देश छोड़ चुके हैं अथवा कोशिश में हैं।
उत्पादकता कम होगी, तो राजस्व भी घटेगा। नकदी पैसा नहीं होगा, तो देश कैसे संचालित किया जा सकता है? दरअसल काबुल की जो तस्वीर पेश की जा रही है, वह अफगानिस्तान के असली यथार्थ से बहुत अलग है। तालिबान अब भी लोगों को मार रहे हैं। विरोधियों को बंधक बनाया जा रहा है अथवा हत्या की जा रही है। घर-घर से 12 साल की उम्र से ज्यादा की कन्याएं जबरन उठाई जा रही हैं और उनके निकाह बूढ़ों के साथ पढ़ाए जा रहे हैं। तालिबान बिल्कुल नहीं बदले, यह हम जैसे जानकारों का दावा है। सुरक्षा परिषद की बैठक में आतंकवाद का मुद्दा उठा, तो तालिबान के साथ-साथ अलकायदा, जैश-ए-मुहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, हक्कानी का भी जिक्र हुआ। तालिबान का रंग यही रहेगा, तो कौन-सा देश मदद करेगा? बेशक अफगानिस्तान में 3 ट्रिलियन डॉलर के खनिज भंडार हैं। वे देश की 'अमीरी' के प्रतीक हैं, लेकिन उनका दोहन तभी संभव है, जब कोई देश अफगानिस्तान के साथ कारोबार करना चाहेगा। अकेला चीन कब तक व्यापार करता रहेगा। उसके स्वार्थ अलग किस्म के हैं।

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