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- अफगानिस्तान की कंगाली

तालिबान जब भी औपचारिक तौर पर हुकूमत में आएं, लेकिन अफगानिस्तान की सबसे गंभीर चुनौती उसकी कंगाली की है। वहां की करीब 90 फीसदी आबादी गरीबी-रेखा के नीचे है। औसत अफगान की रोज़ाना की आमदनी मात्र दो डॉलर (149 रुपए) है। गरीबी की परिभाषा में करीब 65 फीसदी आबादी गरीब है। ये अमरीकी और अफगान सरकार के मिले-जुले आकलन हैं। ऐसे हालात में अफगानिस्तान में जो अंधड़ मचा है, जु़ल्म ढाए जा रहे हैं, नागरिक तालिबान हुकूमत के बजाय मरने को तैयार हैं और सबसे बदतर स्थिति यह हो सकती है कि संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से जुड़े 190 देशों ने तालिबान के अफगानिस्तान को कोई ऋण अथवा विदेशी मदद देने से इंकार कर दिया है। आईएमएफ ने 44 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद पर रोक लगा दी है और स्पष्ट किया है कि काबुल में मान्यता प्राप्त सरकार बनने के बाद ही फंड जारी किया जाएगा। अमरीका ने अफगान के 700 करोड़ डॉलर के बैंक खाते सीज कर दिए थे, उसके बाद बाइडेन प्रशासन ने विदेशी मुद्रा की संपत्तियों और अफगान सेंट्रल बैंक-डीएबी-में रखा सोना भी फ्रीज कर दिया है। इनके कार्यालय अमरीका में हैं। इसके अलावा, अफगानिस्तान के 9 अरब डॉलर के रिजर्व विदेशों में हैं। उन पर भी ताले जड़ दिए गए हैं। दलीलें दी जा रही हैं कि यह अपार धन तालिबान के हाथ नहीं लगना चाहिए। तालिबान ने भारत समेत कई देशों के साथ आयात-निर्यात को भी रद्द कर दिया है। अफगानिस्तान पर अरबों डॉलर का बोझ पड़ेगा और संबद्ध देशों की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी। अराजकता, अस्थिरता, विद्रोह, हिंसा और कत्लेआम के मौजूदा दौर में आखिर 3.8 करोड़ आबादी के देश को कैसे चलाया जा सकेगा? यह आर्थिक संकट की ऐसी शुरुआत है, जिसे तालिबान की कथित हुकूमत नजरअंदाज नहीं कर सकती। अफगानिस्तान में अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर किसी भी ताकत के लिए देश चलाना असंभव-सा है। फिर अफगान सरकार के आर्थिक स्रोत पश्चिम दानदाताओं और जापान सरीखे देश के भरोसे रहे हैं।
divyahimachal
