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बलबीर पुंज : अफगानिस्तान में बचे-खुचे हिंदुओं और सिखों के भारत आने का सिलसिला कायम है। बीते दिवस 55 अफगान सिख और हिंदू विशेष विमान से भारत लौट आए। अब वहां 50 से भी कम हिंदू-सिख बचे हैं। इसी के साथ अनादिकाल तक सांस्कृतिक भारत का हिस्सा रहा अफगानिस्तान अपने मूल निवासियों हिंदू-सिख-बौद्ध से शत-प्रतिशत मुक्त होने वाला है। वहां से हिंदुओं-सिखों का पलायन कोई पहली बार नहीं हुआ। इसका पिछले एक हजार वर्षों का एक काला इतिहास है। चार-पांच दशक पहले वहां जिन अफगान हिंदुओं-सिखों की संख्या लाखों में थी, उनकी संख्या गृहयुद्ध, शरीयत लागू होने और तालिबानी जिहाद के बाद निरंतर घटते हुए नगण्य हो गई है।
पिछले माह 11 सितंबर को तालिबान ने पवित्र श्री गुरुग्रंथ साहिब के चार 'सरूपों' को 'अफगानिस्तानी विरासत' का अंग बताकर देश से बाहर ले जाने की अनुमति नहीं दी थी। तालिबान के अफगानिस्तान में फिर से काबिज होने और गुरुद्वारों पर हमलों के बाद भारत द्वारा चलाए गए विशेष अभियान के तहत पिछले साल अगस्त और दिसंबर में दो जत्थों में श्री गुरुग्रंथ साहिब के छह 'सरूपों' को निर्धारित सिख मर्यादा के साथ भारत लाया गया था, लेकिन तालिबान यकायक गुरुग्रंथ साहिब के चार 'सरूपों' को 'अफगानिस्तानी विरासत' बताने लगा? क्या उसका हृदय परिवर्तन हो रहा है? जिस चिंतन के गर्भ से तालिबान का जन्म हुआ या जिस मजहबी अवधारणा से अफगानिस्तान का 'इकोसिस्टम' सदियों से अभिशप्त है, क्या उसमें गैर-इस्लामी पंथ-मजहबों के साथ सह-अस्तित्व संभव है?
तालिबान ने श्री गुरुग्रंथ साहिब के लिए 'अफगानिस्तानी विरासत' से संबंधित जो तर्क दिया, वह उसके वैचारिक अधिष्ठान के प्रतिकूल है। 'काफिर-कुफ्र' अवधारणा से प्रेरित तालिबान का जन्म पाकिस्तान के मदरसों में हुआ, जिनका वित्त पोषक वर्षों तक सऊदी अरब रहा। अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को खदेड़ने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान और सऊदी अरब की मजहबी सहायता से मुजाहिदीनों को काफिरों के खिलाफ जिहाद के लिए हथियार उपलब्ध कराए। तालिबान उन्हीं मुजाहिदीनों का समूह है।
यदि तालिबान को वाकई 'अफगान विरासत' की चिंता होती तो उसके लड़ाके मार्च 2001 में बामियान में विशाल बुद्ध प्रतिमाओं को बम से क्यों उड़ाते? भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि तालिबानी सिराजुद्दीन हक्कानी के भाई अनस हक्कानी ने अक्टूबर 2021 को उस इस्लामी आक्रांता महमूद गजनी की कब्र पर जाकर उसका यशगान किया था, जिसने अपने खलीफा काल में भारत पर 'काफिर-कुफ्र' चिंतन से प्रेरित होकर 17 बार हमले किए, स्थानीय हिंदुओं को मौत के घाट उतारा, उनका जबरन मतांतरण किया और सोमनाथ मंदिर सहित असंख्य पूजास्थलों को मजहबी कारणों से ध्वस्त किया। इसके बाद गोरी, खिलजी, तुगलक, बाबर, जहांगीर, औरंगजेब और टीपू सुल्तान आदि ने उसी जहरीले चिंतन से प्रेरित होकर भारतीय उपमहाद्वीप की बहुलतावादी सनातन संस्कृति के मानबिंदुओं को जमींदोज किया और लाखों निरपराधों को या तो मौत के घाट उतारा या फिर उन्हें तलवार के बल पर इस्लाम कबूल कराया। इस भूखंड में तालिबान सहित मुस्लिमों का एक वर्ग आज भी इन्हीं क्रूर आक्रांताओं को अपना नायक मानता है।
जिस अफगानिस्तान को हम आज देख रहे हैं, वह सदियों पहले सांस्कृतिक भारत का अंग हुआ करता था। लगभग एक हजार वर्ष पहले उसकी जनसांख्यिकीय वर्तमान से अलग थी। प्राचीन काल में यह क्षेत्र भारत के 16 महाजनपदों में एक (गांधार) था तो गजनी के आगमन से पहले 11वीं शताब्दी तक इस भूखंड का स्वरूप हिंदू-बौद्ध बहुल था। उस समय यह धरती अपनी मूल संस्कृति के अनुरूप प्राचीन मंदिरों और विशालकाय विस्मयी मूर्तियों से सुशोभित थी। सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी ने 16वीं शताब्दी में जिन स्थानों का भ्रमण कर उपदेश दिया, उसमें वर्तमान अफगानिस्तान भी था। इन यात्राओं को सिख परंपरा में 'उदासियां' कहा जाता है। इसीलिए अफगानिस्तान सिखों के लिए पवित्र है, किंतु कालांतर में हिंदू-बौद्ध-सिख अनुयायियों पर मजहबी यातना-हमलों का शिकार होने के बाद आज स्थिति यह है कि इनका नाम लेने वाला भी कोई नहीं दिखता।
ऐसा नहीं है कि वहां केवल गैर-मुस्लिम ही मजहबी दंश झेल रहे है। अफगानिस्तान में तालिबान और आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट की अफगान इकाई आइएस खुरासन प्रोविंस के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही है, जिसका उद्देश्य स्वयं को इस्लाम का सच्चा अनुयायी सिद्ध करना है। यह दीन-मजहब आधारित हिंसा का ही विस्तार है, जिसमें शिया-सुन्नी मुसलमानों के बीच भी संघर्ष चल रहा है।
तालिबान इस कारण अपनी छवि सुधारना चाहता है, क्योंकि अफगानिस्तान को विकास के नाम पर अन्य देशों से मिल रही आर्थिक-सहायता रुक गई है। इससे वह सामाजिक, आर्थिक और मानवीय रूप से ध्वस्त हो चुका है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वहां 60 लाख लोग भुखमरी के शिकार हैं तो दो करोड़ 90 लाख लोगों को मानवीय सहायता की आवश्यकता है। इन सबसे निपटने के लिए अफगानिस्तान को लाखों डालर चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र कार्यालय में मानवीय मामलों के समन्वय विभाग के प्रमुख ने भी कुछ समय पहले सुरक्षा परिषद में सभी दाताओं से आग्रह करते हुए कहा था कि अफगानिस्तान का वित्त पोषण फिर से शुरू किया जाए। पता नहीं ऐसा होगा या नहीं, लेकिन जो तालिबान आज सिखों के पवित्र ग्रंथों को 'अफगानिस्तान की विरासत' बता रहा है, उसने ही एक वर्ष पहले सिखों को इस्लाम अपनाने या अफगानिस्तान छोड़ने में से कोई एक चुनने विकल्प दिया था। शरीयत का पक्षधर तालिबान उसी विषाक्त चिंतन से प्रेरणा पाता है, जिसमें गैर-इस्लामी संस्कृति, सभ्यता, मानबिंदुओं और पूजास्थलों का स्थान न केवल नगण्य है, अपितु उसका नामोनिशान मिटाना अपना मजहबी दायित्व मानता है।
सोर्स- Jagran

Rani Sahu
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