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अमेरिकी धोखे की कीमत चुकाता अफगानिस्तान: अमेरिका को खदेड़ने में तालिबान को मिली कामयाबी से अन्य धड़ों को मिलेगी नई ताकत

भूपेंद्र सिंह| अमेरिकी इतिहास में सबसे बुजुर्ग राष्ट्रपति बने जो बाइडन के कुछ फैसले दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति को शर्मसार कर रहे हैं। काबुल पर तालिबानी कब्जे के साथ ही बाइडन वैश्विक कोप के भाजन बन गए हैं। असल में यह तभी तय हो गया था, जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने सैन्य अधिकारियों और खुफिया एजेंसियों की राय को दरकिनार कर जमीनी हकीकत की परवाह किए बिना ही अफगानिस्तान से जल्दबाजी में सैन्य बलों की वापसी का एलान कर दिया था। इसके लिए कोई कारगर योजना भी नहीं बनाई। ऐसे में विदेश नीति के मोर्चे पर ऐसा अनर्थ होना ही था। अफगानिस्तान पर आतंकी शिकंजे से अमेरिका की जो अंतरराष्ट्रीय फजीहत हो रही है, उसके दोषी बाइडन ही हैं। अफगानिस्तान से जल्दबाजी में निकलने को लेकर बाइडन के सामने कोई रणनीतिक या घरेलू मजबूरी भी नहीं थी। जब उन्होंने सत्ता संभाली, तब अफगानिस्तान में अमेरिका के केवल 2,500 सैनिक तैनात थे। फिर भी बाइडन को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने सैन्य बलों की संपूर्ण वापसी पर मुहर लगा दी।
माना जाता है कि अमेरिका उकता गया था, जबकि गत 20 वर्षों के दौरान गैलप सर्वेक्षणों में अमेरिकी इस सैन्य सक्रियता के विरोध से अधिक समर्थन में ज्यादा नजर आए। अमेरिकी इतिहास की इस सबसे लंबी लड़ाई को इतने सतत स्तर पर मिला समर्थन कोरिया, वियतनाम और इराक जैसे अन्य जंगी अखाड़ों से उलट था, क्योंकि अधिकांश जनता एक स्तर पर आकर उन युद्धों के खिलाफ हो गई थी। एक जुलाई को बगराम एयरबेस खाली करने के साथ ही बाइडन ने जब अफगानिस्तान से कदम पीछे खींचने की शुरुआत कर दी, तब से जनता की राय में भी विभाजन आरंभ हो गया। छह जुलाई से 21 जुलाई के बीच हुए गैलप सर्वे में 47 प्रतिशत अमेरिकियों (अधिकांश डेमोक्रेट) ने यह माना कि अफगान युद्ध एक गलती थी, जबकि 46 प्रतिशत की राय इसके विपरीत थी।
पाकिस्तानी पिट्ठू तालिबान दुनिया के सबसे दुर्दांत आतंकी संगठनों में से एक है। चूंकि तालिबान ट्रंप के साथ हुए समझौते का खुलेआम उल्लंघन करता रहा, इसलिए बाइडन के उस पर टिके रहने का कोई तुक नहीं था। अगर अमेरिका अफगानिस्तान में सीमित सैन्य मौजूदगी रखता तो इससे बहुत ज्यादा खर्च नहीं बढ़ता और अमेरिकी लोगों के लिए जोखिम भी घटता। 2014 में अमेरिका की युद्धक भूमिका खत्म होने के साथ ही अमेरिकी वित्तीय खर्च और सैनिकों को पहुंचने वाली क्षति नाटकीय रूप से कम हो गई थी। तबसे अमेरिकी या नाटो फौजें नहीं, बल्कि अफगान सुरक्षा बल ही अग्र्रिम मोर्चे पर तैनात थे। पिछले करीब साढ़े सात वर्षों के दौरान जहां अफगान सुरक्षा बलों के दस हजार से अधिक जवानों को जान गंवानी पड़ी, वहीं अमेरिका के 99 सैनिक ही बलिदान हुए। अगर बाइडन 2,500 सैनिक भी अफगानिस्तान में नहीं रखना चाहते थे तो कम से कम इतने सैनिक तो तैनात कर ही सकते थे जो आवश्यकता पड़ने पर अफगान बलों को महत्वपूर्ण हवाई सुरक्षा सहयोग मुहैया करा पाते। ऐसा करने से उस विपदा को रोका जा सकता था, जो अब भयावह रूप से आकार ले रही है।
अगर तालिबानी अपनी मुहिम में सफल रहे तो अमेरिका के अघोषित सहयोग से। अमेरिका ने पिछले वर्ष से ही इस आतंकी समूह को एक प्रकार की मान्यता देनी शुरू कर दी थी। इससे अफगान सरकार की प्रतिष्ठा पर आघात हुआ। अमेरिका अपनी सहयोगी अफगान सरकार को दरकिनार कर दुनिया के सबसे दुर्दांत आतंकी संगठन से गलबहियां करने लगा। अमेरिकी विश्वासघात का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने अफगान सरकार की पीठ पीछे फरवरी 2020 में तालिबान के साथ समझौता किया। इसके बाद काबुल पर 5,000 तालिबानी कैदियों को रिहा करने के लिए दबाव बनाया। उनकी संख्या अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सैनिकों के बराबर थी। ये तालिबानी रिहा होकर रक्तपात में लग गए। यह कमोबेश ऐसा ही था जैसे 2019 में अमेरिका ने सीरिया में अपने कुर्दिश साथियों का साथ छोड़ दिया था। अमेरिकी विश्वासघात ने अफगान सेना के पैरों तले जमीन खिसका दी।
सैन्य वापसी से जुड़ा बाइडन का फैसला घातक प्रभाव डालने वाला रहा। इससे नाटो गठबंधन के 8,500 सैनिक और करीब 18,000 अमेरिकी सैन्य कांट्रेक्टरों की वापसी की राह खुल गई। इन कांट्रेक्टरों की अफगान वायु सेना और अमेरिकी आपूर्ति वाले आयुध तंत्र के परिचालन में महत्वपूर्ण भूमिका थी। अमेरिका ने अफगान सैन्य बलों को स्वतंत्र रूप से भूमिका निभाने के लिए न तो जरूरी हथियारों से लैस किया और न ही पर्याप्त प्रशिक्षण दिया। वे अमेरिकी और नाटो के समर्थन पर ही निर्भर थे। इस यकायक वापसी ने अफगान सैन्य बलों को निस्तेज कर दिया। कांट्रेक्टरों की वापसी ने भी अफगान वायु सेना की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया, जो अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए उन पर निर्भर थी। सीआइए के पूर्व निदेशक जनरल डेविड पेत्रोस का कहना है कि जब तक अमेरिका ने अचानक अपना समर्थन पीछे नहीं खींचा, तब तक अफगान सैनिक बड़ी बहादुरी से लड़ते और अपनी शहादत देते रहे। अमेरिकी फैसले ने उन्हें बड़ा मानसिक आघात दिया और अफगान सुरक्षा आवरण भरभराकर ढह गया।
नि:संदेह तालिबान की वापसी से सबसे अधिक नुकसान अमेरिका को पहुंचा है। दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति को एक आतंकी गुट के हाथों पराजय झेलनी पड़ी। दो दशक लंबी अमेरिकी लड़ाई का परिणाम प्रतिद्वंद्वी खेमे की पुन: सत्ता में वापसी के रूप में निकला है। अफगानिस्तान में अमेरिकी हार के भू-राजनीतिक निहितार्थ उसकी वियतनाम में हुई पराजय से कहीं अधिक व्यापक प्रभाव वाले हैं। अमेरिका को खदेड़ने में तालिबान को मिली कामयाबी से वैश्विक जिहादी मुहिम से जुड़े अन्य धड़ों को नई ऊर्जा मिलेगी। अफगान धरती उनकी ऐशगाह बन सकती है।
अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी ने भारत की चुनौतियां बहुत बढ़ा दी हैं। खासतौर से पाकिस्तान के पहलू को देखते हुए, जो तालिबान का इस्तेमाल भारतीय हितों पर आघात करने के लिए कर सकता है। वैसे भी अमेरिकी पराभव के साथ भारत के खिलाफ चीन-पाकिस्तान रणनीतिक गठजोड़ और मजबूत ही होगा।