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- अफगानिस्तान : काबुल तक...
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दोनों पक्षों के गहरे रूढ़िवादी तत्व खुद को पोषित करने की कोशिश कर रहे हैं और बदलाव की हवाओं को रोकने की कोशिश कर रहे हैं।
अफगानिस्तान के नए तालिबान शासकों से रिश्ता कायम करने के लिए भारत के लिए दरवाजे जरूर खुल गए हैं, लेकिन कुछ हद तक ही। पहले बिना किसी मित्र की मौजूदगी, और अब एक ऐसे समूह के साथ व्यवहार कर, जिसे दोनों पक्ष अविश्वास और शत्रुता से देखते हैं, ऐसा लगता है कि भारत ने कई हफ्तों की सतर्कता के बाद अफगानिस्तान में एक अस्थायी शुरुआत की है। भारत ने अफगानों के लिए, 1.5 टन चिकित्सा संबंधी और पचास टन खाद्यान्न की आपूर्ति शुरू की है, जो कि चार महीने पहले तालिबान के कमान संभालने के बाद से और अधिक कुपोषण तथा भुखमरी का सामना कर रहे हैं। उनकी अर्थव्यवस्था तकरीबन तबाह हो चुकी है।
इन सामान की आपूर्ति भारत के लिए आसान नहीं थी। पाकिस्तान नहीं चाहता था कि भारत से कोई सामान अफगानिस्तान तक पहुंचे। उसने यह जताने की कोशिश की कि इस बेहद जरूरी मानवीय मदद को मंजूरी देना ऐसा है, मानो पाकिस्तानी क्षेत्र से भारत को अफगानिस्तान में व्यावसायिक गतिविधियां शुरू करने की मंजूरी देना। वह व्यावसायिक गतिविधियों और अंतरराष्ट्रीय मदद में फर्क करने को तैयार नहीं था।
यहां से दवाएं विश्व स्वास्थ्य संगठन को भेजी जा रही हैं, जिन्हें वह काबुल स्थित इंदिरा गांधी चिल्ड्रन्स हॉस्पिटल को भेजेगा। अफगानों के लिए पाकिस्तान ने ऐसा कुछ नहीं किया है। भारत जो खाद्यान्न भेज रहा है, उसके पीछे कोई व्यावसायिक मंशा नहीं है। वहां इसकी बेहद जरूरत है, क्योंकि इसकी आपूर्ति कम हो गई है। चारों ओर जमीन से घिरे अफगानिस्तान में पाकिस्तान आपूर्ति का मुख्य स्रोत है, लेकिन वह तालिबान के सत्ता में आने से पहले से आपूर्ति जारी रखने में नाकाम रहा है।
भारत को मंजूरी न देना उसका पुराना हथकंडा है, जिसके जरिये वह स्थानीय भावनाओं और व्यापारियों को खुश करने की कोशिश करता है। कुछ वर्ष पूर्व भारत ने संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी के जरिये बिस्कुट की आपूर्ति करने का आग्रह किया था। ये पोषक बिस्कुट अफगान बच्चों के लिए भेजे जाने थे। पाकिस्तान द्वारा काबुल ले जाने की अनुमति न देने पर इनका भंडार वाघा बॉर्डर पर पड़ा रहा और अंततः सड़कर नष्ट हो गया।
अतीत के ऐसे कई अनुभवों के कारण अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री तथा तालिबान के वरिष्ठ नेता आमिर खान मुत्ताकी ने प्रधानमंत्री इमरान खान को राजी करने के लिए पाकिस्तान का दौरा किया। खान के पास भारतीय आपूर्ति को मंजूरी देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था, लेकिन यह मंजूरी भी एकमुश्त ही दी गई। इसके साथ ही उन्होंने कड़ी शर्तें भी रखीं। भारतीय आपूर्ति सिर्फ अफगान ट्रकों के जरिये ही हो सकती है। आपूर्ति दिसंबर के आखिर तक पूरी हो जानी चाहिए।
केवल पचास अफगान ट्रक ही अफगानिस्तान-पाकिस्तान की मुख्य सीमा चौकी तोरखम तक जा सकते हैं। ऐसे में भारी भरकम आपूर्ति महज दो से तीन हफ्तों में कैसे पूरी हो सकेगी? क्या इसके बाद उन्हें पाकिस्तानी बाजारों के हवाले कर दिया जाएगा? यह सब तब हो रहा है, जब पाकिस्तान सारी दुनिया से अफगान लोगों को मानवीय सहायता देने की अपील कर रहा है और सारा श्रेय खुद लेना चाहता है।
खाद्य और दवाओं की आपूर्ति ने भारत-अफगान सहयोग को पुनर्जीवित करने के दरवाजे खोले हैं। वहां भारत के एकमात्र ज्ञात 'मित्र' हैं तालिबान के कार्यवाहक विदेश उप मंत्री शेर मोहम्मद अब्बास स्टेनकजई। तालिबान से जुड़ने से पहले 1980 के दशक में एक अफगान सैन्य अधिकारी के रूप में उन्होंने देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी में प्रशिक्षण लिया था। यहां तक कि वह भी अतीत में भारत पर 'हमेशा अफगान लोगों के हितों के खिलाफ काम करने' का आरोप लगा चुके हैं।
बदली हुई परिस्थितियों में स्टेनकजई, जिन्हें कभी उनके साथ भारतीय अधिकारी शेरू कहते थे, भारतीय राजनयिकों से संवाद कर रहे हैं। उन्होंने भारत की ओर से दवाओं और खाद्य सामग्री के रूप में की जा रही मानवीय सहायता का स्वागत किया है। यह महत्वपूर्ण है कि उन्होंने भारत की ओर से अफगानिस्तान में दो दशकों के दौरान खड़ी की गई तीन अरब डॉलर की परियोजनाओं का भी जिक्र किया, जिनमें अफगान नेशनल एसेंबली कॉम्पलेक्स, हेरात में सलमा बांध और अनेक बिजली संयंत्र और आईटी प्रशिक्षण केंद्र शामिल हैं।
स्टेनकजई ने कहा कि उनकी सरकार विकास परियोजनाओं के रूप में भारत की व्यापक मौजूदगी का स्वागत करेगी। हालांकि यह सब अभी अनिश्चित है, क्योंकि वैश्विक समुदाय से तालिबान को औपचारिक रूप से मान्यता दिए जाने का इंतजार किया जा रहा है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि अफगानों के बीच भारत और भारतीय काफी लोकप्रिय हैं, जो कि ऐतिहासिक रूप से इलाज, उच्च शिक्षा, नौकरियों और कारोबार के सिलसिले में भारत आते रहे हैं। पिछले बीस वर्षों के दौरान उनमें से अनेक अपने परिवारों के साथ भारत में काम कर रहे हैं और यहीं बस गए। अफगानों के लिए भारत 'काबुलीवाला' के समय से दूसरा घर रहा है।
हालांकि राजनीतिक अनिश्चितताओं ने लोगों के इस मेलजोल को समय-समय पर बाधित किया है। तालिबान की अपनी आंतरिक मुश्किलें कम नहीं हैं, जिनकी वजह से पूर्ण राजनीतिक नियंत्रण के बावजूद वहां राजनीतिक अस्थिरता है। वे इस्लामिक स्टेट (आईएस) से लड़ रहे हैं, जो कि गंभीर खतरा बनकर उभरे हैं और इस्लाम का ऐसा संस्करण लाना चाहते हैं जो कि तालिबान से भी अधिक कट्टर है। अफगान अर्थव्यवस्था में काम करने वाले या तो देश छोड़कर भाग गए हैं या अशरफ गनी की पिछली सरकार का हिस्सा होने के कारण उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।
महिलाओं को काम से बाहर रखा जाता है, उन्हें घरों तक ही सीमित रखा जाता है, भले ही वे अकेले कमाने वाली क्यों न हों। यह एक गंभीर दोहरी सामाजिक और आर्थिक समस्या पैदा कर रहा है। तालिबान को संचालित करने वाला पाकिस्तान ही है, जो चाहता है कि दुनिया मानवीय कारणों से संकट में अफगानों की मदद करे। लेकिन वह यह भी चाहता है कि अफगान अपने स्वयं के पश्तूनों और अल्पसंख्यकों को किसी भी सकारात्मक बदलाव से दूर रखे। दोनों पक्षों के गहरे रूढ़िवादी तत्व खुद को पोषित करने की कोशिश कर रहे हैं और बदलाव की हवाओं को रोकने की कोशिश कर रहे हैं।
Neha Dani
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