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अफगानिस्तान में पिछले दिनों सत्ता पर कब्जा करके सरकार चला रहे तालिबान ने उदारवादी शासन का वादा किया था
शिरीष खरे। अफगानिस्तान में पिछले दिनों सत्ता पर कब्जा करके सरकार चला रहे तालिबान ने उदारवादी शासन का वादा किया था, लेकिन गए 8 सिंतबर को तालिबान ने शिक्षा में शामिल लड़कियों को लेकर जो बड़े निर्णय लिए हैं, उससे यह जाहिर होता है कि वह किसी भी हालत में अफगानिस्तान के भीतर महिला समानता और उनके अधिकारों को लागू कराने के पक्ष में नहीं है.
इसके तहत, विश्वविद्यालयों में मिश्रित कक्षाओं (mixed classes in universities) की समाप्ति की बात कही गई है, जिसका मतलब है कि एक ही परिसर में लड़कियां का लड़कों के साथ शिक्षा हासिल करना मुश्किल होगा. बात यही खत्म नहीं होती, तालिबान ने अफगान महिलाओं के लिए खेलों पर प्रतिबंध (Ban on sports for Afghan women) भी लगा दिया है.
इसके बाद, वहां कई महिला संगठनों के बैनर तले महिलाएं सड़कों पर उतर आई हैं और तालिबान के इन निर्णयों के खिलाफ विरोध भी जता रही हैं. वहीं, कई महिलाओं ने इस मुद्दे पर विदेशी मीडिया के सामने चिंता जाहिर करते हुए तालिबानी शासन की कड़ी निंदा की है.
इस तरह, एक बार फिर 'आजादी, आजादी' और 'तालिबान मुर्दाबाद' के नारे लगाते हुए तालिबानी विरोध प्रदर्शनकारी 8 सितंबर को एक बार फिर कई अफगान शहरों की सड़कों पर दिखे, जो 15 अगस्त को तालिबान द्वारा देश की सत्ता पर कब्जा करने के समय छिटपुट रूप से थे, वे तालिबान के खिलाफ संगठित होकर बाहर निकले, जिनमें बड़ी संख्या अफगानिस्तान की महिलाओं की थी.
इसकी वजह यह है कि तालिबान के शुरुआती निर्णयों का सबसे बुरा असर महिलाओं को ही भुगतना पड़ेगा, इसलिए कई महिलाएं अपने अधिकारों और अपनी स्वतंत्रता के संरक्षण को लेकर वहां आवाज उठा रही हैं. दूसरी तरफ, कई जगहों पर तालिबान के विरोध के कारण महिलाओं को हिंसक दमन का सामना भी करना पड़ रहा है.
इसी कड़ी में, पिछले दिनों तालिबान ने काबुल के दशती-ए-बारची (Dashti-E-Barchi) में महिला प्रदर्शनकारियों को रोकने की कोशिश की.
अंतरिम सरकार में नहीं एक भी महिला
पिछले दिनों ही तालिबान ने अपनी अंतरिम सरकार का गठन किया है. हालांकि, शुरुआत में तालिबान ने समावेशी कैबिनेट (inclusive cabinet) का वादा कर रहा था. इससे उम्मीद यहां तक की जा रही थी कि कैबिनेट में वह महिलाओं को स्थान देकर चौंका देगा. लेकिन, जब कैबिनेट की सूची सार्वजनिक हुई तो पता चला कि कैबिनेट में किसी भी महिला को शामिल नहीं किया गया है.
इसका एक स्पष्ट संकेत यह है कि अफगानिस्तान में महिलाएं राजनीति से दूर रहेंगी और इस मामले में महिलाओं के साथ उदारतापूर्ण रवैया नहीं अपनाया जाएगा. दूसरी तरफ, तालिबान के इस निर्णय को लेकर भी वहां की महिलाएं मुखर होकर नाराजगी जाहिर कर रही हैं और कई अंतराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों के अलावा विदेशी मीडिया के प्रतिनिधियों के सामने अपनी बात रख रही हैं.
उदाहरण के लिए काबुल में एक युवती ने फ्रांस के एक मीडिया संस्थान को इंटरव्यू देते हुए कहा कि वह अपने बुनियादी अधिकारों को बनाए रखने के लिए लंबे समय तक सड़कों पर संघर्ष करती रहेंगी, इसमें शिक्षा का अधिकार प्रमुख तौर पर शामिल है, साथ ही उसके लिए राजनीतिक भागीदारिता का मुद्ददा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है. वह कहती है, "हम तालिबान को यह समझाना चाहते हैं कि वे हमें समाज से नहीं मिटा सकते."
तालिबान के अतीत से डरी महिलाएं
देखा जाए तो सत्ता में लौटने के बाद से तालिबान ने दुनिया के सामने अधिक सहिष्णु चेहरा (tolerant face) दिखाने की कोशिश की है, लेकिन कई महिलाएं जो तालिबान का अतीत जानती हैं वे डरी हुई हैं और तालिबान के शुरुआती निर्णय उन्हें डराने के लिए पर्याप्त कारण दे रहे हैं. बता दें कि इसके पहले तालिबान शासन (1996-2001) के कार्यकाल में अफगानिस्तान की महिलाएं सार्वजनिक स्थानों से गायब हो गई थीं.
इसके तहत, लड़कियों को शिक्षा से वंचित कर दिया गया था, महिलाओं को काम करने की अनुमति नहीं दी गई थी और यहां तक कि उन्हें पुरुषों के बिना सड़कों पर बाहर जाने पर भी प्रतिबंधित कर दिया गया था. इसके लिए उनके साथ उनके करीबी परिवार के सदस्यों का होना ही जरुरी कर दिया गया था. उन्हें पूरे शरीर को ढंकने वाला बुर्का पहनना ही पड़ता था.
वहीं, काबुल स्थित एक सामाजिक कार्यकर्ता महबूबा सेराज फ्रांस के न्यूज चैनल से बातचीत में बताती हैं, "तालिबानी सोच का विरोध करने में अधिकतर प्रदर्शनकारी छात्र हैं, 20-22 साल की लड़कियां हैं, जिन्होंने पिछले तालिबान शासन की क्रूरता को नहीं देखा है, जो अपने अधिकारों के छिने जाने की आशंका से सबसे ज्यादा चिंतित हैं."
दूसरे दर्जे के नागरिक नहीं बनना
अंतराष्ट्रीय स्तर पर समकालीन इतिहास के प्रोफेसर जीन-चार्ल्स जौफ्रेट (Jean-Charles Jauffret) कहते हैं, "ये युवा वास्तव में तालिबान के आतंक को नहीं समझते हैं, ये तालिबान की अवहेलना करने की हिम्मत करके बहुत साहस दिखा रहे हैं, लेकिन सबसे बढ़कर इनमें यह दिखाने की इच्छाशक्ति है कि ये दूसरे दर्जे के नागरिक (second-class citizens) नहीं बनना चाहते हैं."
तालिबान की वापसी के बाद खास तौर से छात्रों के बीच चिंता बढ़ी है. इसकी वजह है कि जब 5 सितंबर को अफगानिस्तान में विश्वविद्यालयों फिर से खोले गए, तो कक्षा के बीच में पर्दे या बोर्ड गए और लड़के तथा लड़कियों को कक्षा में अलग-थलग कर दिया गया.
यही नहीं, कक्षाओं में भाग लेने वाली लड़कियों की वेशभूषा में तय कर दी गई, जिसमें उन्हें बुर्का से अपने पूरे शरीर को ढकने वाला पर्दा लगाना अनिवार्य है, दरअसल उन्हें ऐसा नकाब पहनना होगा जिसमें केवल उनकी आंखें दिखाई दें.
खेलों पर प्रतिबंध का कारण
8 सितंबर को तालिबान सांस्कृतिक आयोग के एक अधिकारी अहमदुल्ला वसीक (Ahmadullah Wasiq) ने घोषणा की कि महिलाओं को अब खेलों से प्रतिबंधित कर दिया जाएगा. इसका कारण यह बताया गया कि खिलाड़ियों के पहनावे से उनके शरीर का बहुत अधिक हिस्सा दिखाई देता है.
"इस्लाम महिलाओं को इस तरह देखने की इजाजत नहीं देता है. यह मीडिया का युग है, फोटो और वीडियो होते हैं, फिर लोग उन्हें देखेंगे." अहमदुल्ला वसीक ने ऑस्ट्रेलिया के एक न्यूज चैनल से बातचीत में बताया. वह अफगानिस्तान की महिला क्रिकेट टीम को टूर्नामेंट में भाग लेने से संबंधित एक सवाल का जवाब दे रहे थे.
वहीं, महबूबा सेराज ने तालिबान के विरोध में जारी प्रदर्शनों से दूर रहने का फैसला किया है. 70 साल की उम्र की यह सामाजिक कार्यकर्ता कहती हैं, "युवा महिलाएं जो सड़कों पर उतरती हैं वे साहस से भरी होती हैं, मगर साथ ही बहुत भोली भी होती हैं, मैं अपने अधिकारों के बारे में अब बिल्कुल भी आशावादी नहीं रही हूं. मुझे डर है कि इन प्रदर्शनों के बाद महिलाओं पर कठोर कार्रवाई होगी."
दरअसल, महबूबा सेराज की निराशा की एक बड़ी वजह है कि अफगानिस्तान के महिला आंदोलन को अंतराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन नहीं मिलना. इससे वैश्विक स्तर पर यह आशंका जताई जा रही है कि तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान महिलाओं की बराबरी और उनके अधिकारों के मामले में दुनिया के कई प्रगतिशील देशों से कहीं कई सौ साल पीछे की तरफ जाने की राह पर तो नहीं है?
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