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जब से अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी हुई है, तब से भारत में सोशल मीडिया पर तरह-तरह के मजाक चल रहे हैं
गिरीश उपाध्याय, पत्रकार, लेखक।
जब से अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी हुई है, तब से भारत में सोशल मीडिया पर तरह-तरह के मजाक चल रहे हैं. किसी ने लिखा है कि भारत में किसान आंदोलन पर प्रतिक्रिया देने वाली मलाला युसूफजई, ग्रेटा थनबर्ग और मियां खलीफा को वे अब अफगानिस्तान मसले पर बहस के लिए न्योता दे रहे हैं, तो किसी ने भारत के एक राजनेता का जिक्र करते हुए लिखा कि यदि अफगानों को उप राष्ट्रपति पद के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति न मिल रहा हो, तो वे हमारे यहां से ले जाएं, उन्हें इस पद का अनुभव भी है और उन्हें भारत में डर भी लगता है.
इसी तरह, किसी ने खास चित्र लगाते हुए तंज किया है कि अब सिर्फ यही हथियार बचा है, जो अफगानिस्तान को तालिबान से बचा सकता है. किसी ने अफगानिस्तान में तालिबान की जीत पर भारत में कुछ लोगों द्वारा खुशी जताए जाने पर आपत्ति की है, तो किसी ने कुछ हजार तालिबानियों के सामने तीन लाख से अधिक अफगानी सैनिकों के समर्पण का जिक्र करते हुए अफगानों की 'शूरवीरता' पर सवाल खड़े किए हैं. लेकिन, इन तात्कालिक और 'सब्जेक्टिव' प्रतिकियाओं से अलग अफगान मसले पर भारत और भारत के लोगों को गंभीरता से सोचने की जरूरत है.
इस मसले पर भारत ही नहीं, बल्कि इस मामले में पूरी दुनिया को एकजुट होकर सोचने की आवश्यकता है. यह मसला न किसी धर्म या समुदाय का है और न ही किसी एक देश विशेष का. हां, भारत के लिए इसका खतरा और इसकी गंभीरता इसलिए ज्यादा है, क्योंकि उसके ठीक पड़ोस में अब एक और ऐसा देश खड़ा हो गया है, जो शांति का दुश्मन और आतंक का पोषक है.
क्या पूरी दुनिया चुपचाप स्वीकार कर लेगी यह कब्जा?
पर सवाल सिर्फ भारत का ही नहीं है. बड़ा सवाल ये है कि क्या 'ग्लोबल' की बात करने वाली दुनिया, इस तरह एक देश पर आतंक के बल पर कब्जा कर लिए जाने को चुपचाप स्वीकार कर लेगी? क्या अपने-अपने आर्थिक व सामरिक हितों से ऊपर उठकर मानव जाति के लोकतांत्रिक हितों की बात अब कोई नहीं करेगा? क्या अफगानिस्तान के लोगों को यह कहकर उस मानवीय त्रासदी में धकेल दिया जाएगा कि यह अफगानिस्तान का मसला है वहां के लोग ही जानें…
यदि आतंक किसी एक देश का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता का मसला है, तो फिर अफगानिस्तान की ओर से यह कहते हुए दुनिया के तमाम मुल्क और संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाए मुंह कैसे फेर सकती हैं कि यह उस देश का आंतरिक मामला है, हम क्या कर सकते हैं. नहीं, यह सिर्फ अफगानिस्तान का नहीं बल्कि पूरी दुनिया का मसला है, क्योंकि यह आतंकवाद और इंसानों के साथ बरती जानी वाली हिंसा, क्रूरता और बर्बरता का मसला है और पूरी दुनिया को इस मसले पर इंसानियत के नाते ही सोचना होगा.
काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद जो तस्वीरें आ रही हैं और वहां से आने वाली खबरें जो हालात बयां कर रही हैं, उनसे एक बात तो साफ है कि बदले हुए हालात में अफगानिस्तान से ज्यादातर लोग निकल जाना चाहते हैं. वे अब उस देश में रहना नहीं चाहते और किसी भी सूरत में देश छोड़ने की कोशिश में लगे हैं. अफगानिस्तान से लगने वाली पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, ईरान आदि देशों की सीमाओं पर सैकड़ों लोग शरणार्थियों के तौर पर जमा हो रहे हैं. इसका मतलब साफ है कि अफगानिस्तान का आम नागरिक भी तालिबान की क्रूरता से डरकर जितनी जल्दी हो वहां से निकल लेना चाहता है.
बुर्के के अंधेरे में अपनी जिंदगी खो जाने के डर से कांप रही हैं महिलाएं
इस समय अफगानिस्तान में जो हालात है, वे साफ बता रहे हैं कि आम अफगानी न तो तालिबान के आने से खुश है और न वो नई इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान सरकार का दिल से स्वागत कर रहा है. अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो देशों की फौजों के आने के बाद से पिछले 20 सालों में वहां का माहौल बहुत बदला है. लोगों ने इस दौरान लोकतंत्र और आजादी का स्वाद चखा. महिलाओं ने बुर्के से बाहर आकर सांस ली और दुनिया के उजाले को देखा. अब वे ही महिलाएं एक बार फिर बुर्के के अंधेरे में अपनी जिंदगी खो जाने के डर से कांप रही हैं.
यानी अफगानिस्तान में सवाल सिर्फ तालिबान के काबिज हो जाने का ही नहीं है, उससे भी बड़ा सवाल है कि क्या दुनिया में लोकतंत्र और मानव अधिकारों की आजादी चाहने वाले लोगों को इस तरह आतंकवादी गुटों या कबीलों के हाथों मरने और कुचलने के लिए छोड़ दिया जाएगा. क्या दुनिया ऐसे नरसंहार और मानिवाधिकारों के हनन को चुपचाप रहकर मंजूर करने के लिए तैयार है? लोगों का इतने बड़े पैमाने पर देश छोड़ कर जाने का प्रयास साफ बता रहा है कि लोग तालिबानी अफगानिस्तान में नहीं रहना चाहते. ऐसे में दुनिया का फर्ज क्या है?
चीन और पाकिस्तान के तालिबान से ताल्लुक रखने वाले रुख का कारण किसी से छिपा नहीं है. निश्चित रूप से उन्हें अफगानिस्तान के लोगों की नहीं, बल्कि अपने आर्थिक और सामरिक हितों की चिंता है. ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का यह कह देना कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं को वापस बुलाने का उनका फैसला सही था, इस इलाके में चीन के विस्तारवादी रवैये को और बढ़ावा देगा और उसके साथ यह खतरा अतिरिक्त रूप से जुड़ा होगा कि यह विस्तार सिर्फ भौगोलिक, आर्थिक, सामरिक या वाणिज्यिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इससे उस आतंकवादी धारा को भी समर्थन और बढ़ावा मिलेगा जो समूची मानवता के विरुद्ध है.
शरणार्थी बनकर दयनीय जिंदगी बिताने को मजबूर अफगानी
रही बात अफगानिस्तान के भविष्य की तो, जो लोग वहां से निकल पाने में कामयाब हो जाएंगे और जो दूसरे देशों में शरणार्थी बनकर दयनीय जिंदगी बिताने को मजबूर हो जाएंगे. उनके अलावा, देश में बच गए लोगों पर ही यह जिम्मेदारी होगी कि यदि दुनिया उनके साथ खड़ी नहीं होती और उनके मानवाधिकारों की रक्षा नहीं करती तो वे खुद ही इसका रास्ता निकालें. 19वीं और 20वीं सदी जहां भारत में आजादी के आंदोलन की वाहक थी, तो 21 वीं सदी में अफगानिस्तान के लोग दुर्दांत तालिबानी राज से मुक्ति पाने के लिए एक अलग तरह की आजादी की लड़ाई खड़ी कर दुनिया के सामने मिसाल पेश कर सकते हैं.
आजादी की लड़ाई के लिए हथियार और तरीका क्या होगा, यह आम अफगानियों को ही तय करना होगा. लेकिन भारत में जो बात भले ही मजाक में कही जा रही हो, अफगानियों को उस गांधीवादी विकल्प के बारे में भी सोचना होगा, जिसने भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी और अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जड़ें हिला दी थी. तालिबान के पास गोलियां और मौत है, लेकिन कोई भी शासन बगैर जनता के नहीं होता. वे कितने लोगों को मारेंगे और यदि मार भी दें तो फिर बगैर अवाम के शासन किस पर करेंगे?
भारत की आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में गांधी का रास्ता, अफगानिस्तान के जरिये एक बार फिर पूरी दुनिया के लिए लाइट हाउस बन सकता है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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