सम्पादकीय

Afghanistan Crisis: तालिबान का एक धड़ा क्यों चाहता है भारत से अच्छे रिश्ते

Rani Sahu
3 Sep 2021 5:50 PM GMT
Afghanistan Crisis: तालिबान का एक धड़ा क्यों चाहता है भारत से अच्छे रिश्ते
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अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) का राज आते ही पूरी दुनिया को चिंता हुई कि 1996 से 2001 के बीच जैसा हुआ था

विष्णु शंकर। अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) का राज आते ही पूरी दुनिया को चिंता हुई कि 1996 से 2001 के बीच जैसा हुआ था, क्या उसी तरह फिर तालिबान अपनी ज़मीन का इस्तेमाल दूसरे देशों में जेहाद के नाम पर आतंकवादी हिंसा को बढ़ाने में करेंगे. इसके बाद 31 अगस्त को क़तर में भारतीय राजदूत दीपक मित्तल (Deepak Mittal) ने तालिबान के दोहा स्थित पॉलिटिकल मिशन के मुखिया शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई (Sher Mohammad Abbas Stanikzai) से भेंट की. स्तानिकज़ई ने इस मुलाक़ात में भारत को यकीन दिलाया कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन को भारत के खिलाफ हमलों के लिए इस्तेमाल करने का इरादा नहीं रखता.

लेकिन कल यानि मंगलवार को तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन (Suhail Shaheen) ने एक अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल से बात करते हुए कहा कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में अल्पसंख्यकों को अपने रीति रिवाजों को मानने का अधिकार देता है, उसी तरह मुस्लिम जनों को, चाहे वो भारत में हों, कश्मीर में या किसी और जगह, समान अधिकार मिलने चाहिए क्योंकि ये मुस्लिम उन देशों के नागरिक हैं और उनके अधिकार समान हैं. शाहीन ने कहा कि मुस्लिम होने के नाते तालिबान को अधिकार है कि वो दुनिया में कहीं भी मुस्लिम समुदाय के हक़ में आवाज़ उठाए.
अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल किसी और देश के खिलाफ नहीं होगा
यहां दो बातें ग़ौर करने के लायक हैं. पहली, सुहैल शाहीन ने कहा कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में अल्पसंख्यकों को सामान नागरिक अधिकार देता है. यह बात अभी तथ्यों के आधार पर साबित होना बाक़ी है. क्योंकि अगर ऐसा होता तो अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर विदेश भागने वालों की तादाद लाखों में नहीं होती और भागने वाले सभी अफ़ग़ान बहुसंख्यक नहीं होते.
दूसरी, शाहीन शायद भूल गए कि भारत का संविधान पहले से ही अपने सभी नागरिकों को जीने और अपने धर्म को मानने के समान अधिकार देता है. हां, सुहैल शाहीन ने ये ज़रूर कहा कि तालिबान किसी और देश के खिलाफ कोई मिलिट्री ऑपरेशन नहीं करेगा क्योंकि ये उसकी पालिसी में शामिल नहीं है, और यह भी कि उसने अमेरिका के साथ दोहा एग्रीमेंट में ये क़रार किया है कि वह किसी और देश या ग्रुप को अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन किसी और देश पर हमले के लिये इस्तेमाल नहीं करने देगा.
तालिबान भारत से अपने रिश्ते बेहतर करने में कितना गंभीर है
अब सवाल ये है कि तालिबान वास्तव में भारत के साथ अपने रिश्ते बेहतर करने के बारे में कितना गंभीर है? इस सवाल में यह बात भी शामिल है कि भारत को भी, भले ही ऐतिहासिक तौर पर वह तालिबान के खिलाफ रहा हो, अब अपने नज़रिये को स्थिति के हिसाब से बदलना होगा, क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी राज अब एक वास्तविकता है.
कूटनीति की एक सच्चाई है कि दो देश तभी साथ-साथ जीने मरने की कसमें खाते हैं जब उनके आपसी हित मेल करते हैं. तभी दो देश साथ मिल कर काम करते हैं, यानि राष्ट्रीय हित सबसे ऊपर हैं. अब अमेरिका की मिसाल ही ले लीजिये. अफ़ग़ानिस्तान में ISIS ख़ुरासान के खात्मे के लिए वह तालिबान के साथ पूरा सहयोग कर रहा है.
भारत और तालिबान के राज वाले अफ़ग़ानिस्तान में दो बातें इन दोनों मुल्कों को मिल कर काम करने की वजह देती हैं. भारत को यह गारंटी चाहिये कि अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीं से भारत पर कोई आतंकवादी हमला नहीं होगा. अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार को अब, जंग जीतने के बाद, देश चलाना है. सच्चाई ये है कि भारत तीन अरब डॉलर से ज़्यादा के निवेश के साथ पहले से ही अफ़ग़ानिस्तान के आर्थिक और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में अपना रोल अदा कर रहा है. भारत की अफ़ग़ानिस्तान में काम करते रहने की शर्तें भी चीन जैसे कई और देशों से बेहतर होंगी, इसमें भी शक नहीं है. इसीलिए, तालिबान का एक धड़ा चाहता है कि भारत के साथ राजनीतिक और व्यापारिक सम्बन्ध बने रहें और बेहतर हों.
अगस्त महीने के आखिरी हफ्ते में स्तानिकज़ई ने अपने एक महत्वपूर्ण भाषण में कहा था कि भारत के साथ रिश्ते बनाये रखना तालिबान के हित में है. उनका यह कहना साफ़ करता है कि तालिबान चाहता है कि उसके अंतर्राष्ट्रीय रिश्ते सिर्फ एक या दो मुल्कों से न हों, बल्कि ऐसे देशों की लिस्ट लम्बी होनी चाहिए जो व्यापार, विकास प्रोजेक्ट्स और आसान किश्तों पर क़र्ज़ दे कर अफ़ग़ानिस्तान की मदद कर सकें.
भारत को ISI से सावधान रहने की जरूरत है
लेकिन क्या शेर मोहम्मद स्तानिकज़ई की सोच से तालिबान की पूरी लीडरशिप सहमत होगी? अभी यह साफ़ होने में वक़्त लगेगा. भारत को इस सम्बन्ध में पाकिस्तान की इंटेलिजेंस एजेंसी ISI से भी खबरदार रहना होगा, क्यों बीते सालों में कई बार इसने तालिबान की लीडरशिप की बांह मरोड़ कर अपनी बात मनवा ली है.
फिर पिछली बार सत्ता पर काबिज़ होने वाले तालिबान और अभी के तालिबानी लीडरशिप में बड़ा फ़र्क़ है. 1996 से 2001 के बीच तालिबान के नेता पूरी तरह पाकिस्तान के रहमों करम पर थे. उसके अलावा सिर्फ UAE और सऊदी अरब ने तालिबान की सरकार को मान्यता दी थी. और 2001 में तो 9/11 के बाद अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान पर लगातार बमबारी कर रहा था और तालिबान की लीडरशिप पनाह के लिए लगातार इधर-उधर भाग रही थी.
2021 का तालिबान पहले से मज़बूत है
2021 का तालिबान मज़बूत है, उसमें आत्मविश्वास है, वह मीडिया का सही इस्तेमाल जानता है और उसे अपने दमख़म पर यकीन है. ऐसे में किसी तीसरे देश या एजेंसी के कहे का उस पर कितना असर पड़ेगा ये बताने की ज़रुरत नहीं है. कहने का मतलब यह है कि इस बार तालिबान अपने कई बड़े फ़ैसले खुद ले पायेंगे ऐसा लगता है.
लेकिन, एक बात को लेकर भारत को सावधान रहना पड़ेगा. इतिहास गवाह है कि ऐसी जमातें जो ख़ास विचारधारा पर आधारित होती हैं, उनमें सिद्धान्तों और उनको लागू करने को लेकर आपसी कलह घातक हो सकती है. और अगर इसमें राष्ट्रवाद और क़बाइली निष्ठा या भक्ति के बीच एक को चुनने का सवाल खड़ा हो जाये तो बात काफी बिगड़ सकती है. तालिबान इसका अपवाद हो यह ज़रूरी नहीं है.


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