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Afghanistan Crisis: क्या तालिबान में फूट पड़ने की खबरों में सच्चाई है?
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| विष्णु शंकर| जिस बात का शक था, वही होता दिख रहा है. तालिबान (Taliban) के दो धड़ों में फूट की खबरों की सच्चाई सामने आ रही है. हालांकि तालिबान के नेतृत्व में अनुशासन मज़बूत है और एक बार जब रहबरी शूरा कुछ फैसला ले लेता है, तो उसे बदला नहीं जाता, लेकिन इस दफा ऐसे दो तीन मुद्दे हैं, जो तालिबान के भीतर अलग-अलग सोच को साफ़ दिखा रहे हैं. ऐसा साल 1996 से 2001 के बीच कभी नहीं हुआ था, क्योंकि तब तालिबान की नींव रखने वाले मुल्ला उमर का फैसला हर बात में पत्थर की लकीर होती थी. और किसी भी और लीडर की कभी हिम्मत नहीं हुई कि मुल्ला उमर की हुक्मउदूली करे.
लेकिन 2021 का तालिबान अब पहले जैसा नहीं है. छन-छन कर खबरें आ रही हैं कि पर्दे के पीछे तालिबान के व्यावहारिक और कठमुल्ला नेताओं में काफ़ी मतभेद हैं. आपको याद होगा कि हमने आपको पहले भी बताया था कि तालिबान की सरकार में प्रधानमंत्री कौन होगा और मंत्री परिषद में कौन-कौन शामिल होगा इस पर न सिर्फ बहस हुई, बल्कि गोली तक चल गयी और तब खबर आई कि मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर इस घटना में घायल हो गए. इसीलिए जब मंत्रियों के नाम का ऐलान हुआ तब से मुल्ला बरादर सीन से ग़ायब हैं.
उनकी ग़ैरमौजूदगी की अलग-अलग वजह बताई गईं
पिछले हफ्ते जब क़तर के उप प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री, शेख मोहम्मद बिन अब्दुर्रहमान अल सानी, काबुल की यात्रा पर आए तो तालिबान सरकार के उप प्रधानमंत्री यानि मुल्ला बरादर उनके स्वागत के लिए मौजूद नहीं थे. इस बात को इसलिए भी नोटिस किया गया क्योंकि क़तर की राजधानी, दोहा, में ही तालिबान का राजनीतिक दफ़्तर था और इस ऑफिस के मुखिया होने के नाते क़तर की सरकार मुल्ला बरादर को काफी इज़्ज़त बख़्शती थी.
मुल्ला बरादर ज़िंदा हैं और महफूज़ हैं, ये ज़ाहिर करने के लिए बुधवार को उनका एक इंटरव्यू TV पर दिखाया गया जिसमें उनको कहते सुना गया कि उन्हें मालूम ही नहीं था कि क़तर के प्रिन्स काबुल आ रहे थे, और चूंकि वो ख़ुद काबुल से बाहर थे, इसलिए उनके लिए लौटना मुश्किल था. ज़रा सोचिये, क़तर, जो मुश्किल दिनों में तालिबान के सबसे बड़े समर्थकों में से एक रहा है, उसका उप प्रधानमंत्री काबुल आए और तालिबान के उप प्रधानमंत्री मुल्ला बरादर को पता न हो, इस बात पर यक़ीन करना क्या मुश्किल नहीं है?
एक बात और, क़तर के प्रिन्स की ये यात्रा काबुल में किसी विदेशी नेता की पहली बड़ी यात्रा थी और तालिबान के बाक़ी सभी बड़े मंत्री उनके स्वागत में शामिल हुए. उधर तालिबान के सीनियर प्रवक्ता, जबीउल्लाह मुजाहिद, ने इस खबर को ग़लत बताया. तालिबान के विदेशमंत्री आमिर खान मुत्ताक़ी ने कहा ये सिर्फ कुप्रचार का हिस्सा है.
तालिबान के भीतर और सवालों पर भी मतभेद हैं
जब मुल्ला बरादर को प्रधानमंत्री बनाने की ख़बर गर्म थी, उस समय वो पहले सीनियर तालिबान लीडर थे जिन्होंने कहा था कि तालिबान की सरकार में अफ़ग़ानिस्तान के सभी ग्रुप्स की नुमाइंदगी होनी चाहिए. लेकिन हुआ इसका उलट. जब मंत्रियों का ऐलान हुआ तो सभी तालिबान से थे और एक भी महिला का नाम फेहरिस्त में शामिल नहीं था. कहा तो ये भी गया कि एक लीडर जिन्हें मंत्री बनाया जा रहा था वह, मंत्रियों की लिस्ट देख कर इतने मायूस हुए कि वह सरकार में शामिल होने का इरादा ही छोड़ना चाहते थे, क्योंकि लिस्ट में मुल्क़ की किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय का कोई नुमाइंदा नहीं था.
एक और मसला जो सवालों के दायरे में है वो अफ़ग़ानिस्तान का झंडा है. तालिबान का एक धड़ा अपने सफ़ेद झंडे को मुल्क की पहचान बनाना चाहता है, जबकि दूसरा अभी तक इस्तेमाल हुए काले, लाल और हरे रंग के झंडे के हक़ में है. यह झंडा अफ़ग़ान नागरिकों में बहुत लोकप्रिय है और आपने देखा ही होगा कि हाल ही में हुए धरनों और प्रदर्शनों में मर्द और औरतें इसी झंडे के तले चल रहे थे.
इस मामले में भी तालिबान का कठमुल्ला धड़ा ही जीता, क्योंकि काबुल पर कब्ज़े के बाद राष्ट्रपति भवन के ऊपर जो झंडा फहराता दिखा वो तालिबान का अपना झंडा था. लेकिन, कुछ तालिबान लीडर्स का कहना है कि इस पर अभी बातचीत चल रही है, और शायद इस बात पर रज़ामंदी हो जाए कि दोनों झंडे साथ-साथ लगाए जाएंगे.
अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान को नज़दीक से जानने वालों की राय है कि अभी तालिबान में विभाजन की ख़बरों पर यकीन करना जल्दबाज़ी होगी. लेकिन, आने वाले समय में तालिबान पर अपनी सरकार को ठीक से चलाने, फ़ौज को ताक़तवर बनाने, दुनिया के मुल्कों से मान्यता हासिल करने और अपनी योजनाओं को लागू करने का दबाव लगातार बढ़ेगा. अगर इन कोशिशों में यह सरकार असफल रहती है तो फिर तालिबान के भीतर झगड़े बढ़ सकते हैं. अभी तालिबान को ज़रुरत है मुल्ला उमर जैसे एक नेता की, जिसका कहा कोई नहीं टाल सकता था. लेकिन ऐसा कोई लीडर इस जमात में अभी दिखाई नहीं दे रहा है.