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अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) के मंत्री परिषद का ऐलान हुए एक हफ्ते से ज़्यादा का वक्त बीत चुका है
विष्णु शंकर। अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) के मंत्री परिषद का ऐलान हुए एक हफ्ते से ज़्यादा का वक्त बीत चुका है, लेकिन ज़मीन पर हालात अभी भी सामान्य नज़र नहीं आते. आज बात करेंगे कि महिलाओं के साथ व्यवहार को लेकर तालिबान किस तरह के संकेत दे रहे हैं, अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था जो पहले से ही खस्ताहाल थी, उसे संभालने के लिए क्या किया जा रहा है, और क्या तालिबान अफगानिस्तान को सीमापार आतंकी हमलों के लिए लॉन्चपैड बनने से रोक पाएंगे. तालिबान के वरिष्ठ प्रवक्ता सुहैल शाहीन कई बार कह चुके हैं कि तालिबान अफ़ग़ान समाज के क़ायदों और इस्लामी रीति रिवाज़ों की नज़र से महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को देखेंगे.
सुनने में ये बात सामान्य लगती है, लेकिन बात सिर्फ शरीया कानूनों की नहीं है, मुद्दा है कि तालिबान शरीया कानूनों की व्याख्या किस तरह करते हैं. पीछे मुड़ कर देखें तो साल 1996 से 2001 के बीच में तालिबान ने जिस तरह शरीया कानूनों को लागू किया था, उससे दुनिया के बहुत से देशों को सख़्त ऐतराज़ हुआ था. अभी तालिबान की मजबूरी है कि वो दुनिया के सामने साफ़ सुथरे और लचीले नज़र आयें क्योंकि उन्हें दुनिया के मुल्कों से मान्यता चाहिए और दाता देशों से सहयोग, ताकि सरकार और विकास के काम चलाने के लिए मदद आती रहे. ऐसे में ज़रूरी है कि तालिबान के खेमे से जो भी कहा जाए वह सही और सच्चा लगे.
अफगानिस्तान में महिलाओं की हालत खराब है
तालिबान की परेशानी है कि उनका इतिहास उनकी इस ज़रूरत के आड़े आ रहा है. तालिबान के अपने लोगों और समर्थकों के अलावा कोई उनकी बात पर यक़ीन नहीं कर रहा है. शहरों की सड़कों पर महिलाऐं अब कम नज़र आ रही हैं. जो महिलाऐं अकेले घर से बाहर पाई गईं, उनसे तालिब बहुत बार सख़्ती से पूछते हैं कि बिना मर्द वो घर से बाहर क्यों घूम रही हैं.अब पिछले 20 साल से महिलाओं को आज़ादी की आदत लग गई है, सवाल उठता है कि क्या उसको वे इतनी आसानी से छोड़ना चाहेंगी?
महिलाओं की पढ़ाई को लेकर भी तालिबान के बयान एक जैसे नहीं हैं. काबुल पर कब्ज़ा करने के बाद उन्होंने कहा कि महिलाओं की पढ़ाई से उन्हें कोई परेशानी नहीं है. फिर कहा गया कि औरतें और मर्द एक कक्षा में साथ बैठ कर नहीं पढ़ सकते, कम से कम एक पर्दा ज़रूर लगा होना चाहिए, जो औरतों को मर्दों की निगाह से बचा सके.
कुछ दिन पहले ख़बर आई थी कि हेरात में महिलाओं के कॉलेज जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी है. कंधार से एक और खबर में कहा गया कि महिलाएं जब बैंक में अपनी ज़िम्मेदारी संभालने के लिए पहुंचीं तो उन्हें ये कह कर वापस भेज दिया गया कि वो घर के मर्द को अपने ऑफिस की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए भेज दें. 12 से 15 साल की कई बच्चियों के माता पिता से कहा गया है कि वो अब बच्चियों की शादी कर दें.
महिलाओं के अधिकारों को लेकर तालिबान का रवैया कैसा रहेगा
इसका मतलब तो यही हुआ कि तालिबान की कथनी और करनी में फ़र्क़ है, या वे सूबों और ज़िलों में ज़मीन पर तैनात तालिबान से अपना हुक़्म मनवाने में नाकामयाब रहे हैं. औरतों के हक़ के लिए काम करने वाली पश्ताना दुर्रानी का कहना है कि "तालिबान महिलाओं के अधिकारों के बारे घुमाफिरा कर बात कर रहे हैं. अभी यह बिल्कुल साफ़ नहीं है कि जब तालिबान महिला अधिकारों की बात करते हैं, तो क्या वे महिलाओं के घर से बाहर क़दम रखने की आज़ादी की बात करते हैं, या लोगों से मिलने जुलने की आज़ादी की, या राजनीतिक अधिकारों की या अपनी मर्ज़ी से वोट दे पाने के अधिकार की."
8 सितम्बर को अपने अधिकारों की वकालत करते हुए महिलाओं ने काबुल में एक जुलूस निकाला था. तालिबान ने इस जुलूस को डराने के लिए हवा में गोलियां चलाईं और कई औरतों को बंदूकों की बट से मारा गया, जिससे कई महिलाओं को काफ़ी चोट आई. इस तरह के वाकये साफ़ करते हैं कि तालिबान जो दावा कर रहे हैं, सच्चाई उससे अलग है. हालांकि काबुल में काम करने वाली एक महिला शिक्षा सलाहकार का कहना है कि गांव के इलाकों में NGO संगठनों की मदद से चलाए जा रहे बच्चियों के स्कूलों में पढ़ाई चल रही है. अब तालिबान ये सिर्फ दिखावे के लिए कर रहे हैं या उनकी मंशा वाक़ई बालिकाओं की पढ़ाई को तरजीह देना है, ये पता लगने में अभी वक़्त लगेगा.
अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था बदहाल हालत में है
अर्थव्यवस्था की बात करें तो अफगानिस्तान की माली हालत अच्छी नहीं है. सरकारी ख़ज़ाना ख़ाली है और तालिबान के फिर से आने के बाद ज़्यादातर मुल्कों ने ना सिर्फ वित्तीय मदद बंद कर दी है बल्कि उनके बैंकों में पड़ी अफगानिस्तान की रक़म को भी फ्रीज़ कर दिया है ताकि जब तक तालिबान की मंशा साफ़ न हो जाये वो इस पैसे का इस्तेमाल न कर सकें. ज़्यादातर प्रोफेशनल्स और पढ़े लिखे, क़ाबिल लोग देश छोड़ कर भाग चुके हैं. इसलिए काम काज फिर से शुरू करने में नई सरकार को मुश्किलें पेश आ रही हैं.
Islamic Emirate Of Afghanistan की स्थापना के बाद अभी यह भी साफ़ नहीं है की मुल्क की बैंकिंग व्यवस्था के क़ायदे क़ानून क्या होंगे. महंगाई बढ़ रही है और अगर नई सरकार ने इकोनॉमी के प्रबंधन में ज़िम्मेदारी से काम नहीं किया, तो चीज़ों की सप्लाई में खलल पड़ सकती है. खाने पीने की चीज़ों के दाम भी बेतहाशा बढ़ सकते हैं. ग़रीब अफ़ग़ान शहरी की हालत तो इतनी ख़राब हैं कि वे घर की चीज़ों को बेच कर जीविका चला रहे हैं.
तालिबान की विदेश नीति पर पैनी नजर
इसके साथ-साथ अफगानिस्तान को पड़ोसी मुल्क पैनी नज़र से देख रहे हैं कि तालिबान किस तरह की विदेश नीति लागू करते हैं. पाकिस्तान ने तालिबान की सरपरस्ती की है और भारत ये जांचना चाहेगा कि क्या पाकिस्तान अफगानिस्तान की ज़मीन से भारत में आतंकवादी हिंसा को बढ़ाने की कोशिश कर सकता है. मध्य और दक्षिण एशिया के देश अफगानिस्तान में ISIS KP की मौजूदगी से भी परेशान हैं क्योंकि उसकी विचारधारा अल क़ायदा से भी ज़्यादा संकीर्ण और रूढ़िवादी है. रूस भी अफगानिस्तान से हो सकने वाली आतंकवादी हिंसा को लेकर चौकन्ना हो गया है.
चीन को चिंता है कि शिनजियांग प्रान्त में वीगर लोगों के अधिकारों और एक अलग देश की मांग करने वाला East Turkistan Islamic Movement कहीं उसकी सीमाओं के भीतर सक्रिय न हो जाए. ईरान भी पंजशीर घाटी में तालिबान को पाकिस्तान की फ़ौजी मदद को लेकर विरोध ज़ाहिर कर चुका है. अफगानिस्तान के शिया मुसलमानों की हिफाज़त को लेकर भी ईरान चिंतित है, क्योंकि तालिबान अधिकतर सुन्नी संप्रदाय से आते हैं. अमेरिका भी खबरदार है कि 2001 की तरह ही अफगानिस्तान में आतंक फैलाने की ट्रेनिंग लेकर दहशतगर्द उसके यहां फिर हिंसा की वारदात न करें. इसलिए तालिबान सरकार को फूंक-फूंक कर क़दम रखने की ज़रुरत है.
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