सम्पादकीय

Afghanistan Crisis: सिर्फ 15 दिनों में तालिबान को लेकर दुनिया का स्टैंड कैसे बदल गया?

Rani Sahu
30 Aug 2021 9:40 AM GMT
Afghanistan Crisis: सिर्फ 15 दिनों में तालिबान को लेकर दुनिया का स्टैंड कैसे बदल गया?
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तालिबान (Taliban) को अफगानिस्तान (Afghanistan) की राजधानी काबुल पर कब्जा किए हुए अभी महज 15 दिन हुए हैं

संयम श्रीवास्तव। तालिबान (Taliban) को अफगानिस्तान (Afghanistan) की राजधानी काबुल पर कब्जा किए हुए अभी महज 15 दिन हुए हैं, लेकिन इन 15 दिनों में बहुत कुछ बदल गया है. ना सिर्फ अफगानिस्तान में बल्कि तालिबान को लेकर दुनिया की सोच में भी. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने अफगानिस्तान के मुद्दे पर आज से 15 दिन पहले जो बयान जारी किया था और 15 दिन बाद जो बयान जारी किया है उसमें एक बड़ा फर्क नजर आ रहा है. दरअसल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 16 अगस्त को काबुल पर तालिबान के कब्जे के 1 दिन बाद एक बयान जारी किया था. जिसमें सुरक्षा परिषद में भारत के स्थाई प्रतिनिधि टीएस त्रिमूर्ति ने सुरक्षा परिषद की ओर से कहा था, 'सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद से लड़ने के महत्व की पुष्टि की है और यह भी माना है कि यह सुनिश्चित हो कि अफगानिस्तान के किसी भी क्षेत्र को किसी भी देश को धमकाने और उस पर हमले के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, और यहां तक कि तालिबान या किसी भी अफगान समूह या किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य देश में सक्रिय आतंकी गतिविधियों का समर्थन नहीं करना चाहिए.'

लेकिन अब 27 अगस्त को जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ओर से दूसरा बयान आया है उसमें 'तालिबान' का कहीं भी जिक्र नहीं है. इस नए बयान में कहा गया है, 'सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने के महत्व को दोहराया है, ताकि यह सुनिश्चित हो कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी भी देश को धमकाने या हमला करने के लिए न किया जाए, और किसी भी अफगान समूह या व्यक्ति को किसी भी देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन नहीं करना चाहिए.'
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के इस बयान में तालिबान शब्द का प्रयोग ना होना एक बड़ी बात है. इस बयान का असर ना सिर्फ हिंदुस्तान पर होगा बल्कि दुनिया भर में इसे अलग-अलग नजरिए से देखा जाएगा. बीबीसी में छपी एक खबर के अनुसार कहें तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के हालिया बयान में तालिबान शब्द का इस्तेमाल न करना दिखाता है कि यूएनएससी के सदस्य तालिबान को एक स्टेट एक्टर के रूप में देख रहे हैं.
यूएनएससी में भारत इस महीने का अध्यक्ष है

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के इस बयान के खास मायने हैं. सबसे बड़ी बात तो यह कि इस महीने भारत पूरे सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता कर रहा है और इस बयान पर भारत के भी हस्ताक्षर हैं. इस बयान को जारी भी यूएनएससी के अध्यक्ष टीएस त्रिमूर्ति ने किया है. आपको बता दें काबुल में हुए हमले में 13 अमेरिकी फौजियों सहित लगभग 200 से अधिक लोगों की मौत हुई थी. हालांकि इस हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट खुरासान ने ली थी.
क्या वजह थी जो बदल गया यूएनएससी का स्टैंड
इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार जिसमें अधिकारियों के हवाले से लिखा गया है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के हालिया बयान पर हस्ताक्षर का फैसला अफगानिस्तान में 'जमीनी हकीकत' को ध्यान में रखकर लिया गया है. दरअसल अफगानिस्तान में तालिबान 90 के दशक वाले तालिबान की तरह बर्ताव नहीं कर रहा है. अब वह लोगों की अफगानिस्तान से निकलने में मदद कर रहा है. बीबीसी में छपी रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका का कहना है कि 15 अगस्त तक लगभग एक लाख से ज्यादा लोगों को अफगानिस्तान से निकाला गया है. यहां तक कि 17 अगस्त को काबुल में भारतीय दूतावास को भी खाली करा दिया गया और दूतावास के सभी कर्मचारियों को सुरक्षित देश वापस बुला लिया गया.
यह बात हमें माननी होगी कि अगर तालिबान सहयोग ना करता तो इतनी आसानी से दुनिया भर के लोगों को अफगानिस्तान से निकालना नामुमकिन हो जाता. तालिबान अब अफगानिस्तान में एक स्थिर सरकार बनाना चाहता है और वह चाहता है कि दुनिया भर के देशों से उसके संबंध बेहतर हों. अब अफगानिस्तन में वह महिलाओं को नौकरी करने की और पढ़ने की आजादी देने की बात करता है. सबसे बड़ी बात कि अपने दुश्मनों को माफ करने की बात करता है और भारत से अनुरोध करता है कि वह अफगानिस्तान में चल रहे अपने सभी प्रोजेक्ट्स को पूरा करें, क्योंकि यह अफगानिस्तान की आवाम के लिए है और उनकी बेहतरी के लिए.
क्या चीन और रूस को पीछे छोड़ अमेरिका तालिबान से बेहतर रिश्ते बना पाएगा
अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों के निकलने के बाद चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान और तुर्की जैसे देशों ने जिस तरह से तालिबान को अपना समर्थन दिया, उससे लगा कि शायद अफगानिस्तान की धरती से अमेरिका हमेशा के लिए गायब हो जाएगा. हालांकि अमेरिका के बारे में इस तरह की राय बनाना बहुत जल्दबाजी होती है. क्योंकि अपने फायदे को देखते हुए वह अपनी नीतियों को बहुत तेजी से बदल लेता है. अफगानिस्तान में तालिबान ने जिस तरह से जितनी तेजी से कब्जा किया उसने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया. अफगानिस्तान में पूरी तरह से तालिबान का कब्जा है और उसे ही शासन चलाना है, तो अमेरिका भी धीरे-धीरे तालिबान को लेकर नरम पड़ रहा है.
काबुल एयरपोर्ट पर हुए हवाई हमले ने 13 अमेरिकी फौजियों की जान ली. लेकिन अमेरिका ने इसे लेकर तालिबान पर कोई आरोप नहीं लगाए और इसके लिए इस्लामिक स्टेट खुरासान को जिम्मेदार ठहराया. यूएनएससी के बयान पर भी जिस तरह से अमेरिका ने जोर दिया है, वह दिखाता है कि कहीं ना कहीं एक बैक डोर से अमेरिका तालिबान से बातचीत कर रहा है. दरअसल अमेरिका को मालूम है कि अगर दक्षिण एशिया का दिल कहे जाने वाले अफगानिस्तान को वह छोड़ता है तो बहुत जल्द चीन और रूस जैसे उसके धुर विरोधी देश अफगानिस्तान की धरती को अपना नया अड्डा बना लेंगे जो अमेरिका के लिए ठीक नहीं होगा. इसलिए लगता है कि अमेरिका अपनी नीतियों को बदल कर अब तालिबान के साथ अफगानिस्तान में आगे का रास्ता तय करेगा.
क्या भारत भी आगे का रास्ता तालिबान के साथ तय करेगा
हिंदुस्तान का लगभग 22000 करोड़ रुपए का निवेश अफगानिस्तान में इस वक्त अटका पड़ा है. सामरिक, कूटनीतिक और सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से अफगानिस्तान भारत के लिए हमेशा से एक अहम हिस्सा रहा है. जब तक अफगानिस्तान में हामिद करजई और अशरफ गनी का शासन था भारत और अफगानिस्तान की दोस्ती चरम पर थी. भारत ने अफगानिस्तान के विकास के लिए वहां कई बड़ी योजनाओं की शुरुआत की. इस बात से सबसे ज्यादा मिर्ची लगी पाकिस्तान को. क्योंकि वह अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल हिंदुस्तान के विरोध में नहीं कर पा रहा था. लेकिन अब जब तालिबान का कब्जा अफगानिस्तान पर हो गया है तो पाकिस्तान को लगता है कि वह फिर से अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल हिंदुस्तान के विरोध में खुलकर कर पाएगा.
हालांकि तालिबान ने पहले ही अपने दिए बयानों से यह साफ कर दिया है कि वह भारत के साथ अच्छे संबंध चाहता है और अफगानिस्तान की धरती से भारत के खिलाफ कोई भी षड्यंत्र नहीं रचा जाएगा. कश्मीर के मुद्दे पर भी तालिबान ने साफ कर दिया है कि यह भारत का आंतरिक मामला है. तालिबान ने अपनी तरफ से दोस्ती का हाथ भारत की तरफ बढ़ा दिया है, अब देखना यह होगा कि भारत इस हाथ को थाम कर अफगानिस्तान में आगे का रास्ता तय करता है या फिर कोई नई रणनीति इजाद करता है.


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