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अमेरिकी सेना
यह एक यक्ष प्रश्न है कि 11 सितंबर 2021 को अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं के प्रस्थान के बाद क्या होगा। उस क्षेत्र में शक्ति का एक भू-राजनीतिक निर्वात जैसा बनता दिखाई देता है, जिसे भरने के लिए कई दिशाओं से आ रही हवाओं के कारण अस्थिरता के चक्रवात जैसी स्थितियां बनेंगी। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी के पास फिलहाल अफगान नेशनल आर्मी पर भरोसा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिखता। चीन इस क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वाकांक्षी व सक्षम शक्ति तो अवश्य है, लेकिन आर्थिक शक्ति बनने के बाद चीन को अमेरिका की तरह दूसरों का युद्ध लड़ते नहीं देखा गया। चीनियों के विकल्प सीमित हैं। वे सिंकियांग में उइगरों के प्रकरण के कारण इस्लामिक तालिबान के साथ नहीं जाना चाहेंगे। जाहिर है, अफगानिस्तान में चीन अशरफ गनी सरकार का ही पक्षधर होगा।
यहां चीन और पाकिस्तान के हितों में भिन्नता दिखाई देती है। पाकिस्तान तो तालिबान का समर्थन करते हुए अपनी पुरानी रणनीति पर ही चलना चाहेगा। चीन, अफगान सरकार को आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग तो दे सकता है, किंतु किसी भी प्रकार की सैन्य भागीदारी से दूर ही रहेगा। साहूकार की तरह वित्तीय समझौतों के द्वारा सरकारों को पूंजी का गुलाम बना लेने में चीन को महारत हासिल है, लेकिन अनियंत्रित युद्ध के अफगानिस्तान जैसे देशों में चीन की यह नीति निष्फल हो जाएगी। राजनीतिक स्थिरता के अभाव में किसी देश का आर्थिक दोहन संभव नहीं होता अतः चीन का प्रयास अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता की बहाली का ही रहेगा। जहां तक रूस और भारत का प्रश्न है, ये दोनों सत्ता समीकरण से बाहर दूर के देश हैं। अब सवाल पाकिस्तान का है। भारत से चिर-सशंकित पाकिस्तान अफगान क्षेत्र को अपने रणनीतिक विस्तार व मजहबी एकता का क्षेत्र मानता आया है। पख्तून राष्ट्रवाद की लहर को रोके रखने का उनके पास यही एक रास्ता है। तालिबानी, अफगानिस्तान पर संपूर्ण वर्चस्व के अपने अभियान में पाकिस्तान से सक्रिय सहयोग की अपेक्षा करेंगे। हमने देखा है कि पिछले दौर में करीब एक लाख पाकिस्तानी अधिकारी व सैनिक छद्म वेश में तालिबानी अभियानों में भागीदारी करते रहे हैं। लेकिन चीनी हित पाकिस्तान से अफगानिस्तान में शांति की अपेक्षा करेंगे।
अब जो बड़ी समस्या है, वह यह कि राजनीतिक स्थिरता के लिए अफगान सरकार व तालिबान के मध्य सत्ता अधिकारों के समायोजन व सामंजस्य की कोई संभावना है भी या नहीं। यदि है, तो उसकी रूपरेखा क्या होगी? तालिबान स्वयं को अफगानिस्तान का मालिक समझते हैं। अमेरिकी सैन्य-वापसी के समझौते के बाद वे अपनी विजय की घोषणा कर चुके हैं। अब जब वहां सत्ता विभाजन के किसी समझौते की दूर-दूर तक संभावना नहीं है, तो इस का परिणाम क्या होगा? स्थितियां जैसी शक्ल अख्तियार कर रही हैं, उनके मुताबिक अफगानिस्तान में 1996 के दिनों की तरह पुनः गृहयुद्ध की आशंकाएं प्रबल हैं। सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान को मजहब-मुजाहिदीन का जबरदस्त डोज देकर उनको भाग्य के हवाले कर दिया था। इस दौरान मुजाहिदीन की धार्मिक सेनाएं सक्रिय होकर निजामे मुस्तफा कायम कर रही थीं। इस लंबे गृहयुद्ध में तालिबान की विजय हुई, पर लगातार युद्धों के फलस्वरूप अफगानिस्तान लगभग पाषाणकाल में पहुंच ही गया था। तालिबान ने इस्माइल खान, गुलबुद्दीन हिकमतयार, अब्दुल रशीद दोस्तम जैसे युद्ध-सरदारों को पराजित कर इस्लामिक सत्ता तो स्थापित की, लेकिन इस सब के बावजूद वर्ष 2001 तक अफगानिस्तान के उत्तरी क्षेत्र पर तालिबान का पूर्ण वर्चस्व स्थापित नहीं हो सका था।
अमेरिकी प्रस्थान के बाद तालिबान का सैन्य विजय अभियान जब काबुल की ओर प्रयाण करेगा, तो उसमें छद्मवेशी पाकिस्तानी सेनाओं के अलावा आईएसआईएस, अलकायदा के तत्व भी साथ होंगे। इस्लाम के नये खलीफा बनने की उम्मीद में तुर्की के राष्ट्रपति एरदोगान का भी सहयोग मिले तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। दूसरी ओर अफगान सरकारी सेनाएं जिनमें पख्तूनों के साथ ताजिक, उजबेक व हजारा सैनिकों की भी बहुतायत है, बेहतर प्रशिक्षित व बेहतर हथियारों से लैस हैं। वे आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं। अतः संदेह नहीं है कि एक लंबे गृहयुद्ध की विभीषिका अफगानिस्तान के सामने खड़ी है.
अब अमेरिका को अफगानिस्तान के लिए अफगानिस्तान से बाहर सैन्य अड्डों की आवश्यकता है। अमेरिकी सैन्य अड्डे बनेंगे, तो भी यह आने वाली जंग अफगानिस्तान को अपने दम पर ही लड़नी पड़ेगी। पाकिस्तान का पख्तून क्षेत्र भी इस युद्ध के दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रहेगा। पाक-अफगान का यह क्षेत्र एक ऐसे गृहयुद्ध का सामना करेगा, जिसके शीघ्र अंत की संभावना ही नहीं बन पाएगी। ऐसा नहीं कि अफगानिस्तान के लिए इस गृहयुद्ध से बचना संभव ही नहीं है। यदि तालिबान नेतृत्व में विवेक जाग्रत हो जाए और वे नेपाल के हिंसक कम्युनिस्टों के उदाहरण से सबक लेते हुए हिंसा का रास्ता छोड़कर लोकतंत्र की राह पर आ जाएं तो सब कुछ बदल जाएगा। पर क्या उनके लिए ऐसा कर सकना संभव है?
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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