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- अफगानिस्तान पुनः...
आदित्य चोपड़ा: लगभग 18 वर्ष तक अमेरिकी व मित्र देशों की फौज के साये में जद्दोजहद के बाद अफगानिस्तान फिर ऐसे अंधेरे दौर में प्रवेश कर गया है जिसमें सिवाय बदहाली और अराजकता के दूसरा ठौर दिखाई नहीं पड़ रहा है। इस देश के तालिबानों ने जिस तरह अफगानी शासन की सेनाओं को एक-एक करके सभी राज्यों व शासकीय संस्थानों से बेदखल किया है उससे दुनिया के अधिसंख्य देश आश्चर्य चकित हैं । परन्तु सबसे ज्यादा चिन्ता का विषय भारत के लिए है क्योंकि तालिबानियों को लगातार पाकिस्तान का समर्थन मिलता रहा है और यहां कि सत्ता उनकी वैधता के लिए हर चन्द कोशिश करती रही है। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को अपने कब्जे में लेने के बाद तालिबानों की कोशिश यह होगी कि वह पूरे देश में अपनी सत्ता की प्रतिष्ठापना की घोषणा करें और मुल्क को पुनः मध्यकालीन कबायली मानसिकता के चक्र में झोक दें। मगर हमें यह सोचना होगा कि 18 साल तक इस मुल्क में तालिबानों से मुकाबला करने के बाद अमेरिका फौजों ने इस देश को क्या दिया ? 2012 के करीब अमेरिका ने अच्छे और बुरे तालिबानों का फलसफा पेश करने के बाद 'दोहा' में तालिबानों को अपना कार्यालय स्थापित करने दिया और उसके बाद 2018 में तालिबानों से सीधे बातचीत करके उन्हें वैधता प्रदान करनी शुरू की और फिर उसके बाद इस देश से अपनी फौजों की वापसी के लिए तालिबानों से ही सन्धि की। इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान अफगानी नागरिकों का हुआ क्योंकि इस दौरान नागरिक अधिकारों के क्षेत्र में उन्होंने जो कुछ भी पाया था वह अब समाप्त प्रायः सा हो गया है।ये तालिबान वे ही सिरफिरे लोग हैं जिन्होंने 2000 में अपनी सत्ता आने से पूर्व अफगानिस्तान के इस्लामीकरण के नाम पर इस देश में स्थित एशिया की महान सांस्कृतिक धरोहरों को नेस्तानबूद कर डाला था और शरीया कानून चला कर इस खूबसूरत देश की सदियों पुरानी विविधता को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और इसके साथ ही पूरे विश्व में आतंकवाद की लहर चला डाली थी। हमें ध्यान रखना चाहिए कि पाक अधिकृत कश्मीर के उत्तरी इलाके (नार्दर्न एरिया) से भारत की सीमाएं अफगानिस्तान से लगती हैं जिसका फायदा उठाते हुए पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को पनपाया था। इसलिए भारत को अब अपनी रणनीति इस प्रकार बनानी होगी कि उस पर अफगानिस्तान के घटनाक्रम का कम से कम असर हो सके। तालिबानी यह कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे कि आम अफगानी नागरिकों के बीच भारतीय नागरिकों को सम्मान के साथ देखा जाये। वे मजहब के चश्मे से विभिन्न देशों के साथ अपने सम्बन्ध तय करने की कोशिश कर सकते हैं जिससे हालात और दुश्कर हो सकते हैं। फिलहाल अफगानिस्तान अराजकता में डूब चुका है जिसका लाभ विश्व की वे शक्तियां उठाने का प्रयास कर सकती हैं जिन्हें अमेरिका विरोधी माना जाता है। इनमें चीन सर्व प्रमुख है।पिछले दिनों तालिबान के प्रतिनिधी ने चीन की यात्रा भी की थी। चीन के पाकिस्तान के साथ गहरे सम्बन्धों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। उसी नार्दर्न एरिया में चीन अपनी 'सी-पाक' परियोजना भी चला रहा है। भारत के कूटनीतिज्ञों को इन सभी समीकरणों को ध्यान में रख कर अफगानिस्तान के प्रति अपनी नई नीति निर्धारित करनी होगी और ध्यान रखना होगा कि यह अमेरिका ही है जिसने तालिबानों को वैधता प्रदान की है। अफगानिस्तान में अभी भी हजारों की संख्या में भारतीय नागरिक फंसे हुए हैं, उन्हें वहां से निकालने के लिए भी भारत को उपयुक्त युक्ति सोचनी होगी। अफगानिस्तान से लगते ताजिकिस्तान की हालत यह है कि इसने इस देश के अभी तक राष्ट्रपति रहे श्री अशरफ गनी के विमान को अपने यहां उतरने की इजाज नहीं दी जिससे उन्हें ओमान की शरण में जाना पड़ा। अब समझा जा रहा है कि वह ओमान से भी अमेरिका में शरण लेने के लिए जायेंगे। असली सवाल यह है कि जब तालिबान ने विधि सम्मत तरीके से स्थापित अशरफ गनी की सरकार को उखाड़ फेंका तो इस देश के नागरिकों की हालत क्या होगी?संपादकीय :उग्रवादी की मौत पर बवाल!सृजन का अमृतकालभारत के देश प्रेमी उद्योगपतिहम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल कर...हम हिन्द के वासी 'हिन्दोस्तानी'कचरे से कंचन बनाने का अभियानअमेरिका ने जिस तरह अफगानिस्तान को बीच मंझधार में छोड़ा है उससे अन्य शान्तिप्रिय देशों का मनोबल निश्चित रूप से गिर सकता है। यही वजह है कि चीन इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाने की कोशिश करेगा। अभी तक जो संकेत मिल रहे हैं उनसे यही लगता है कि तालिबान अपना शासन आने के साथ फिर से पुरानी नीतियों पर ही चलेंगे और आम अफगानी नागरिकों विशेष कर महिलाओं पर जुल्म गारत करने की कोशिश करेंगे। भारतीय उपमहाद्वीप में यह स्थिति क्षेत्रीय स्थिरता के लिए बहुत खतरनाक हो सकती है क्योंकि अपने नागरिक अधिकारों के लिए इस देश के लोग संघर्ष को जीवित रखने के लिए सभ्य देशों का समर्थन चाह सकते हैं।