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हाल में राज्यसभा सदस्य सुशील मोदी के नेतृत्व में गोद लेने के कानून पर विचार करने के लिए बनाई गई संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट दी है
सोर्स जागरण
क्षमा शर्मा : हाल में राज्यसभा सदस्य सुशील मोदी के नेतृत्व में गोद लेने के कानून पर विचार करने के लिए बनाई गई संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट दी है। इसमें एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) और लिव इन में रहने वालों को भी बच्चा गोद लेने का अधिकार देने की बात कही गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मजहब, लिंग, जाति आदि का भेदभाव कानून में नहीं होना चाहिए। वह सबके लिए एक जैसा होना चाहिए। एलजीबीटी और लिव इन में रहने वालों को भी गोद लेने का अधिकार होना चाहिए।
एलजीबीटी जोड़े अभी एकल अभिभावक की तरह ही गोद ले सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ी मानवीय बात जो इस रिपोर्ट में कही गई है, वह यह है कि गोद लेने वाले कानून से बच्चे के आगे लिखा 'नाजायज' शब्द हटाया जाए, क्योंकि कोई भी बच्चा नाजायज नहीं होता, चाहे वह विवाह से पैदा हुआ हो या विवाह से बाहर। अर्से से बच्चों के लिए काम करने वाले भी ऐसा ही सोचते आए हैं। अक्सर अपने देश में सामाजिक दबाव और बदनामी के डर से अविवाहित माताओं के बच्चों को लावारिस छोड़ दिया जाता है। हालांकि एक ऐसा भी वक्त था जब ऐसे असहाय बच्चे अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदारों के भरोसे पल जाते थे, लेकिन आज के समय में ऐसी उदारता लुप्त सी होती जा रही है।
आखिर जिस बच्चे को जन्मते ही कूड़े के ढेर पर फेंक दिया जाता है, उसमें उसका क्या अपराध? वह तो अपने जन्म के लिए जिम्मेदार भी नहीं है। बहुत से अनाथालयों में बच्चों के साथ जैसा दुर्व्यवहार होता है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। इन बच्चों के बारे में अक्सर लिखा भी जाता रहा है। फिल्में भी बनी हैं। जिस बच्चे के माता-पिता नहीं हैं, दुनिया में कौन उसका है, क्योंकि सारे रिश्ते-नाते जैसे कि दादा-दादी, चाची-चाचा, ताऊ-ताई, बुआ, नाना-नानी, मामा-मामी, मौसा-मौसी सभी माता-पिता के कारण ही होते हैं। जब परिवार नहीं होता तो कोई रिश्ता भी अपना नहीं होता। ऐसे बच्चों को तरह-तरह की सामाजिक प्रताड़ना से भी गुजरना पड़ता है। जब गोद लेने वाले कानून में ही इस तरह के शब्दों का प्रयोग है तो इन बच्चों के सम्मान की चिंता कौन करे? आखिर नाजायज होता भी क्या है? वही न जो कानून सम्मत न हो या कि कानून के विरुद्ध हो। आखिर कोई नवजात कानून के विरुद्ध कैसे हो सकता है?
इन दिनों जब बहुत से जोड़े लिव इन में रहते हैं तो उन्हें संतान प्राप्त करने या गोद लेने का हक क्यों नहीं? सिर्फ इसलिए कि उन्होंने विवाह का प्रमाण पत्र नहीं लिया। देखा जाए तो यह आज की बात नहीं है। महाभारत में कर्ण-कुंती प्रसंग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जब कुंती कर्ण के पास जाती हैं तो वह उनसे इस बात की नाराजगी प्रकट करते हैं कि अब वह उनसे मां होने का अधिकार मांगने आई हैं, जबकि उन्होंने उसे जन्मते ही त्याग दिया था।
महान कवि रामधारी सिंह दिनकर ने रश्मिरथी में इस प्रसंग का बहुत मार्मिक वर्णन किया है। कर्ण को जन्मते ही कुंती ने त्याग दिया था। एक सूत ने उन्हें पाला, इसलिए वह सूत पुत्र कहलाए। यह देखना दिलचस्प है कि कुंती के अविवाहित मां बनने के प्रसंग के बारे में सभी को जानकारी थी, लेकिन इससे न तो कुंती का विवाह रुका, न ही उनके बच्चों यानी कि पांडवों ने उन्हें इस कारण कभी प्रताड़ित किया। जबकि आम अविवाहित मां को आज भी अपने देश में न जाने क्या-क्या झेलना पड़ता है। इसीलिए बच्चे जन्मते ही त्याग दिए जाते हैं।
मां के त्यागने का दुख क्या होता है, यह कर्ण के तमाम कथनों से समझा जा सकता है, लेकिन सोचने की बात यह है कि आखिर बच्चे को त्यागने के लिए पूरी तरह से मां को ही क्यों जिम्मेदार ठहराया जाता है? कौन से ऐसे कारण रहे होंगे, जिसके कारण एक मां को ऐसा करना पड़ता है? जाहिर है कोई रिश्ता न चल पाया होगा। कोई धोखा देकर चला गया होगा। बांग्ला के महान कथाकार शरतचंद्र ने ऐसे रिश्तों पर खूब कलम चलाई है। दशकों पहले बनी फिल्म-'एक फूल दो माली' की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। जहां लड़की को छोड़कर लड़का शहर वापस लौट जाता है। लड़के का न पता है, न ठिकाना। लड़की गर्भवती है। ऐसे में एक व्यक्ति उससे विवाह करने का प्रस्ताव देता है, जिससे बच्चे को और उसे कोई प्रताड़ना न झेलनी पड़े। हालांकि यह विवाह दुनिया को दिखाने के लिए है। दोनों के बीच में कोई संबंध भी नहीं है। बाद में कहानी सुखांत हो जाती है। लड़का शहर से वापस आ जाता है।
फिल्मों में ऐसे सुखांत अक्सर हो जाते हैं, मगर जीवन में प्राय: ऐसा देखने को नहीं मिलता। इसीलिए अविवाहित रिश्तों से जन्मे बच्चों को नाजायज कहलाने का अपमान जीवन भर झेलना पड़ता है। आज तो तकनीक इतनी उन्नत है कि डीएनए टेस्ट की मदद से यह साबित किया जा सकता है कि बच्चे का पिता कौन है, लेकिन एक समय में लड़के साफ मुकर जाते थे कि बच्चा उनका है।
दरअसल पिता के होने न होने का प्रमाण ही बच्चे के जन्म से जोड़ दिया जाता है। जबकि इन दिनों आइवीएफ और सरोगेसी के जरिये अकेली लड़कियां मां बन रही हैं। अविवाहित होते हुए भी बच्चा गोद ले रही हैं। अब तो स्कूल में दाखिला कराने या बच्चे से संबंधित कामों के लिए मां का नाम ही काफी है। बच्चे के पिता के नाम की जरूरत ही नहीं रह गई है। इस तरह के कानूनों ने बच्चे के संबंध में प्रयोग किए जाने वाले नाजायज शब्द को बहुत पहले ही खत्म कर दिया था। ऐसे में उसे गोद लेने वाले कानून में भी ऐसा क्यों होना चाहिए? संसदीय समिति की सराहना करनी होगी, जिसने महिलाओं के भले और बच्चों के हित में एक सार्थक पहल की है।
Rani Sahu
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