सम्पादकीय

प्रशासनिक सेवा और महिलाएं

Subhi
24 May 2022 4:55 AM GMT
प्रशासनिक सेवा और महिलाएं
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दिसंबर 2021 तक देश के कुल छत्तीस राज्य व केंद्रशासित प्रदेशों में केवल दो महिलाएं ही मुख्य सचिव थीं। देश के सबसे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कैबिनेट सचिव के पद पर आज तक एक भी महिला नहीं पहुंच पाई है।

सुशील कुमार सिंह: दिसंबर 2021 तक देश के कुल छत्तीस राज्य व केंद्रशासित प्रदेशों में केवल दो महिलाएं ही मुख्य सचिव थीं। देश के सबसे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कैबिनेट सचिव के पद पर आज तक एक भी महिला नहीं पहुंच पाई है। आंकड़े बताते हैं कि अधिकतर महिलाएं अपना कार्यकाल पूरा करके ही सेवानिवृत्ति लेती हैं, बावजूद इसके पुरुषों की तुलना में उनसे ऐच्छिक सेवानिवृत्ति की उम्मीद की जाती है।

पिछले साल संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के अंतर्गत लोक प्रशासन में लैंगिक समानता को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की गई थी। इसमें स्पष्ट किया गया कि लैंगिक समानता एक समावेशी और जवाबदेह लोक प्रशासन के मूल में है। रिपोर्ट में यह भी संकेत था कि नौकरशाही और लोक प्रशासन में महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व बनाए रखने से सरकारी कामकाज में बड़ा सुधार होता है।

इतना ही नहीं, यह सेवाओं को विभिन्न सार्वजनिक हितों के प्रति कहीं अधिक उत्तरदायी और जवाबदेह भी बनाता है। इससे गुणवत्ता में तो इजाफा होता ही है, लोक संगठनों के बीच आपसी भरोसा भी बढ़ता है। गौरतलब है कि देश आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में है और इसे लेकर सरकार का अमृत महोत्सव का दौर चल रहा है।

स्वतंत्रता की इतनी लंबी यात्रा के बाद इस स्वाभाविक प्रश्न से परहेज नहीं किया जा सकता कि यदि भारत को महाशक्ति बनना है और साथ ही न्यू इंडिया व आत्मनिर्भर की अवधारणा को फलक पर लाना है, तो नई नौकरशाही और महिलाओं की बराबरी को हाशिये पर नहीं रख सकते। मार्च 2020 में संसद में एक बयान के दौरान सरकार ने स्पष्ट किया था कि वह ऐसा कार्यबल बनाने के प्रयास में है जो लैंगिक संतुलन को प्रतिबिंबित और प्रदर्शित करता हो। मगर सच यह है कि इसे लेकर जमीनी हकीकत कुछ और है।

यह भूमंडलीकरण का दौर है। इसमें लोक सेवा के परिदृश्य को भी नया रूप देना होगा। इसके लिए प्रशासनिक सेवा में लैंगिक असमानता को कमतर करना प्राथमिकता होनी चाहिए। प्रशासनिक सेवाओं में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने से ऐसी सेवाएं न केवल कार्यबल की दृष्टि से मजबूत होंगी, बल्कि संवेदनशीलता का भी परिचायक होंगी। विकास की क्षमता पैदा करना, विकास की धारा को जनता तक पहुंचाने और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने जैसे तमाम काम महिलाओं की भागीदारी बढ़ा कर काफी हद तक आसान बनाए जा सकते हैं। हित पोषण का सिद्धांत भी यही कहता है कि लोकतंत्र के भीतर सब कुछ जनता की ओर मोड़ देना चाहिए, यही सुशासन की उच्चतम भी होता है। इससे प्रशासनिक सेवाओं को लैंगिक समानता का मौका भी मिलेगा।

पड़ताल बताती है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में साल 1951 में पहली बार महिलाओं को शामिल करने का फैसला किया गया था। इसी वर्ष इस सेवा के लिए केवल एक महिला अन्ना राजम का चयन आइएएस के लिए हुआ था। सात दशक का लंबा रास्ता तय करने के बाद साल 2020 में आइएएस में महिलाओं की कुल संख्या तेरह फीसद है। और गहराई में जाया जाए तो एक ताजा अध्ययन के मुताबिक 1951 से 2020 के बीच सिविल सेवाओं में प्रवेश करने वाले ग्यारह हजार पांच सौ उनहत्तर आइएएस अधिकारियों में महिलाओं की संख्या बामुश्किल एक हजार पांच सौ सत्ताईस रही।

हालांकि यह आंकड़ा लैंगिक असमानता को व्यापकता तो देता है, मगर इस बात की राहत भी इसमें है कि इकाई से शुरू महिला प्रशासनिक अधिकारियों की संख्या आज डेढ़ हजार से अधिक है। लैंगिक असमानता केवल प्रशासनिक सेवा में संख्या मात्र से ही नहीं है, बल्कि महिलाओं की इस सेवा में आने को लेकर विचार भी अलग थे। अध्ययन से यह भी सामने आया कि आइएएस परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली अन्ना राजम जब साक्षात्कार देने गई थीं तो उन्हें प्रशासनिक सेवा के बदले विदेश या केंद्रीय सेवाओं पर विचार करने के लिए कहा गया था।

प्रशासनिक सेवा में उनके चयन के बाद नियुक्ति पत्र में यह शर्त थी कि शादी की स्थिति में उनकी सेवा समाप्त कर दी जाएगी। यह बंदिश बताती है कि महिलाओं के लिए प्रशासनिक सेवा में पैर जमाना पुरुष सत्ता के बीच से होकर गुजरने जैसा था। हालांकि बाद में इसमें संषोधन हुआ और पहली महिला आइएएस अन्ना राजम ने 1985 में विवाह किया। गौरतलब है कि उनके पति भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर आरएन मल्होत्रा थे। जाहिर है, भारतीय प्रशासनिक सेवा में महिलाओं की राह इतनी आसान तो नहीं थी।

आइएएस बनने की राह दिन-प्रतिदिन कठिन होती जा रही है। हालांकि संसाधन तेजी से बढ़े हैं और इंटरनेट आदि के चलते इसके प्रति पहुंच आसान हुई है। मौजूदा समय में सिविल सेवा परीक्षा में दस लाख से अधिक आवेदकहोते हैं और महज कुछ सौ का ही चयन होता है, जिसमें आइएएस की संख्या तो महज डेढ़-दो सौ के बीच होती है। इसमें भी ज्यादा संख्या पुरुषों की ही रहती है। संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2017 की सिविल सेवा की परीक्षा में कुल आवेदकों में तीस फीसद महिलाएं थीं।

तीन जनवरी 2022 तक भारत सरकार के बानवे सचिवों में से मात्र चौदह फीसद यानी तेरह ही महिलाएं देखी जा सकती हैं। इतना ही नहीं, दिसंबर 2021 तक देश के कुल छत्तीस राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों में केवल दो महिलाएं ही मुख्य सचिव थीं। देश के सबसे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कैबिनेट सचिव के पद पर आज तक एक भी महिला नहीं पहुंच पाई है। आंकड़े बताते हैं कि अधिकतर महिलाएं अपना कार्यकाल पूरा करके ही सेवानिवृत्ति लेती हैं, बावजूद इसके पुरुषों की तुलना में उनसे ऐच्छिक सेवानिवृत्ति की उम्मीद की जाती है।

गौरतलब है कि महिलाएं किसी भी सेवा में हों, जिम्मेदारी दोहरी होती है। दफ्तरी कामकाज के अलावा घर को संभालना और ठीक से भूमिका निभाना और साथ ही संतुलन बनाए रखना इनकी जिम्मेदारी है, जो कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। वर्ष 2004 में पूर्व संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएसएसी) के अध्यक्ष पीसी होता की अध्यक्षता में सिविल सेवा समिति स्थापित की गई थी। समिति की रिपोर्ट में महिला अधिकारियों पर घरेलू जिम्मेदारियों को अतिरिक्त बोझ के तौर पर रेखांकित किया गया। यह बात और है कि इस समिति में एक भी महिला सदस्य नहीं थी। छठे वेतन आयोग की सिफारिश पर केंद्र सरकार ने 2008 में महिला कर्मचारियों के लिए प्रसूति अवकाश एक सौ अस्सी दिन और बच्चों की देखभाल के लिए मिलने वाले अवकाश को दो साल के लिए बढ़ा दिया था।

देश को महाशक्ति बनाना हो या भारत को महान, इसके लिए नागरिकों का विकास प्राथमिकता में रखना होगा। इसके लिए विकास का प्रशासन चाहिए और विकास के प्रशासन को पाने के लिए अच्छे प्रशासनिक अधिकारी की जरूरत होती है। इसमें केवल पुरुष अधिकारियों से इसकी परिपूर्ति संभव नहीं है। लैंगिक असमानता को कम करते हुए महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना नैतिक रूप से भी उचित है और नई कार्य संस्कृति की दृष्टि से भी समुचित करार दी जाएगी। भारत भ्रष्टाचार के मामले में भी दुनिया के पायदानों में ऊपर ही है।

महिलाओं की प्रशासनिक अधिकारी के रूप में पहुंच लैंगिक संतुलन के साथ सामाजिक समता का भी द्योतक है और कहा जाए तो इससे कुछ हद तक भ्रष्टाचार पर भी लगाम संभव हो सकता है। राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र के आंकड़े बताते हैं कि कर्नाटक और तेलंगाना दो राज्य कैडर ऐसे हैं जहां तीस फीसद अधिकारी महिलाएं हैं, जबकि जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, बिहार, त्रिपुरा और झारखंड में यह आंकड़ा पंद्रह फीसद से कम है। विश्व बैंक के उस कथन का यहां जिक्र करना उचित ही होगा कि यदि भारत की नारी स्वयं को उपजाऊ बनाए तो देश की जीडीपी में 4.22 फीसद का इजाफा होगा।

हालांकि यहां बात केवल आइएएस में कार्यरत महिलाओं की हो रही है, मगर महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से सभी कार्य क्षेत्रों को समेटना सही रहेगा। प्रशासनिक सेवा में महिलाओं की उपस्थिति कम जरूर है, मगर इसका ग्राफ प्रतिवर्ष ऊंचा तो हो रहा है। जाहिर है, सुशासन को बढ़त देने के लिए प्रशासन में लैंगिक असमानता को समाप्त करना होगा, साथ ही इनकी उपादेयता को उपलब्धिमूलक बना कर समस्याओं को समाधान देना भी आसान रहेगा।


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