सम्पादकीय

न्याय प्रशासन, अदालती आदेश

Gulabi
8 March 2021 6:51 AM GMT
न्याय प्रशासन, अदालती आदेश
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न्यायालय, सरकार, राजनीतिक दलों और सामजिक संगठनों से अपेक्षा की जाती है कि

न्यायालय, सरकार, राजनीतिक दलों और सामजिक संगठनों से अपेक्षा की जाती है कि वे समाज को प्रगति की दिशा में ले जाएंगे। सामाजिक कुरीतियों से संघर्ष इस आम अपेक्षा का सामान्य हिस्सा है। लेकिन जब ऐसा ना हो, तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोई समाज अपने पतनशील दौर में है। इस बात की एक ताजा मिसाल राजस्थान में देखने को मिली है। राज्य के दौसा में अपनी पसंद के लड़के के साथ रह रही लड़की की उसके पिता ने ही हत्या कर दी। हाई कोर्ट ने पुलिस को दोनों प्रेमियों को सुरक्षा देने का आदेश दिया था। लेकिन आरोप है कि पुलिस की लापरवाही के कारण लड़की की जान चली गई। हमारे समाज में मर्जी से रिश्ते को लेकर हमेशा से प्रतिरोध रहा है। लेकिन आजादी के बाद लागू हुए आधुनिक संविधान के तहत लोगों को ऐसा करने का वैधानिक हक मिला। इस हक की रक्षा करना सरकार और उसकी मशनरी का कर्त्तव्य है।


अदालती आदेश पर अमल हो, यह सुनिश्चित करना भी उसकी ही जिम्मेदारी है। लेकिन आज ऐसी जिम्मेदारियों को निभाए जाने की मिसालें बढ़ती जा रही हैं। यह अपने आप में चिंताजनक है कि भारत के कई हिस्सों में आज भी ऐसी रूढ़िवादी सोच जिंदा है, जो लोगों से अपनी ही बेटियों की हत्या करवाती है। जब इसमें पुलिस जैसी संस्थाओं की मिली-भगत भी जुड़ जाती है, तो स्थिति और ज्यादा चिंताजनक हो जाती है। ताजा घटना में शंकर लाल सैनी ने नाम के एक व्यक्ति ने 3 मार्च को खुद जा कर पुलिस को बताया कि उसने अपने हाथों से ही अपनी 18 साल की बेटी पिंकी का गला घोंट दिया। उसके मुताबिक उनकी बेटी का गुनाह यह था कि वह अपने दलित प्रेमी रोशन के साथ रहने चली गई। दोनों प्रेमियों को राजस्थान हाई कोर्ट ने साथ रहने की अनुमति दी थी। पुलिस को उनकी सुरक्षा करने का आदेश दिया था। लेकिन दौसा पुलिस के सर्किल अधिकारी दीपक कुमार का कहना है कि पुलिस को इस बात की जानकारी नहीं थी कि अदालत ने रोशन और पिंकी को सुरक्षा देने का आदेश दिया है। उन्होंने कहा कि अदालत का आदेश आधिकारिक तरीके से पुलिस तक पहुंचा ही नहीं था। क्या अजीब नहीं है? अगर देश में न्याय प्रशासन की यह स्थिति है, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि हालात कितने बुरे होते जा रहे हैं।
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