सम्पादकीय

अभिनेता दिलीप कुमार: अभिनय का कोहिनूर

Gulabi
8 July 2021 1:43 PM GMT
अभिनेता दिलीप कुमार: अभिनय का कोहिनूर
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अभिनय का कोहिनूर दिलीप कुमार

ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार के निधन के साथ ही हिन्दी सिनेमा के एक युग का अंत हो गया। वे अभिनय का संस्थान थे। दिलीप कुमार को ही हिन्दी सिनेमा में अभिनय के मानकों को पूरी तरह बदल डालने का श्रेय जाता है। एक श्लाका पुरुष की तरह दिलीप कुमार की छाया भी हिन्दी सिनेमा की एक पूरी अर्धशताब्दी पर छाई रही। शताब्दी के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख तक कोई भी दिलीप कुमार के अभिनय के प्रभाव से बच नहीं सका। कई फिल्मों में दोनों ने ही ​दिलीप साहब को कॉपी किया। दिलीप कुमार का उदय उस समय हुआ जब राजकपूर, देवानंद जैसे अभिनेता मौजूद थे।


दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद को भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की त्रिमूर्ति कहा जाता था। जितने बहुमुखी आयाम दिलीप कुमार के अभिनय में थे उतने शायद इन दाेनों के अभिनय में नहीं थे। राजकपूर ने चार्ली चैपलिन को अपना आदर्श बताया तो देवानंद ग्रेगरी पेक के आंदाज में अदाओं वाले नायक की छवि से कभी बाहर नहीं निकल पाए। एक बड़े फल व्यापारी के बेटे यूसुफ खान को दिलीप कुमार बनाया देविका रानी ने। काम की तलाश में देविका रानी के स्टुडियो में हुई संयोगवश मुलाकात ने उन्हें अभिनेता बना दिया। चालीस के दशक में भारतीय फिल्म जगत में देविका रानी बहुत बड़ा नाम था। इससे पहले दिलीप कुमार पुणे में ब्रिटिश आर्मी की कैंटीन में बतौर सहायक नौकरी करते थे लेकिन इसी कैंटीन में एक दिन एक कार्यक्रम में भारत की आजादी की लड़ाई का समर्थन करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनका काम बंद हो गया। कई और काम भी किए। न तो उन्हें फिल्मों में काम करने की ​दिलचस्पी थी और न ही उन्होंने कभी सोचा था कि दुनिया कभी उनके असली नाम की बजाय किसी दूसरे के नाम से याद रखेगी। वर्ष 1944 में प्रदर्शित ज्वार-भाटा फिल्म से भारत फिल्म इतिहास को ​दिलिप कुमार मिले। फिल्म को सफलता नहीं मिली लेकिन दिलीप कुमार ने जिस तरह से इस फिल्म के डायलॉग डिलीवरी की, वह उन्हें दूसरे अभिनेताओं से अलग करती थी। दिलीप कुमार एक सेक्यूलर भाव वाला चेहरा थे। गोपी फिल्म में मोहम्मद रफी के गाए भजन 'सुख के सब साथी, दुख में न कोये' पर अभिनय करते दिलीप कुमार का चेहरा हमेशा याद रहेगा। उनकी फिल्म मुगल-ए-आजाम में तो शहजादा सलीम की भूमिका में उन्होंने गजब ढाया। उनके सामने अकबर की भूमिका में उस दौर के चोटी के कलाकार पृथ्वीराज कपूर थे। पृथ्वीराज कपूर अकबर की भूमिका में काफी लाउड थे, लेकिन दिलीप कुमार ने जिस संजीदगी के साथ ​बिना ऊंची आवाज किये संवाद ​बोले और अपने अभिनय के जौहर दिखाए। उसके बाद तो उनका कोई सानी ही नहीं रहा। मुगल-ए-आजम से पहले ही उन्हें ट्रेजेडी किंग का ​ख़िताब ​मिल चुका था। 1960 के दशक में विनोवा भावे की प्रेरणा से एक तरफ जहां भूदान आंदोलन को गति मिली वहीं दूसरी ओर अनेक डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस दौर में दिलीप कुमार की अमर दस्यु फिल्म गंगा-जमुना में उन्होंने सभी कंफर्ट जोन ध्वस्त कर दिये। गंवई नायक के रूप में उन्होंने जो भी किया वह बड़ी शिद्त से किया। देवदास फिल्म का उदाहरण तो आज भी दिया जाता है।

अंदाज, मेला, दीदार, बाबुल, फुटपाथ, अमर, मधुमति, कोहिनूर, नया दौर एक के बाद एक हिट होती गईं। दर्शक उन्हें आंसू बहाने, तड़प-तड़प कर दम तोड़ते देखने के लिए लम्बी-लम्बी कतारें लगाकर उनकी फिल्मों के टिकट खरीदते थे। उनकी त्रासद छवि लोगों के दिल में गहरे घर कर गई थी, किसी अंदरूनी घात की तरह। उन्होंने राजकपूर, धर्मेन्द्र, मनोज कुमार, राजकुमार, अमिताभ बच्चन के साथ यादगार फिल्मों में काम किया।

दिलीप कुमार 2000 में राज्यसभा में मनोनीत सदस्य भी रहे। पृथ्वीराज कपूर के बाद दिलीप कुमार ही ऐसी हस्ती रहे जिन्होंने राज्यसभा में प्रभाव डाला। हालांकि कई फिल्म अभिनेता और अभिनेत्रियां राज्यसभा के मनोनीत सदस्य बने लेकिन किसी ने भी अपनी प्रमुख माैजूदगी दर्ज नहीं कराई। स्वर्गीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उनके प्रशंसक थे। कारगिल युद्ध शुरू होने से पहले अटल जी ने तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से उनकी बातचीत भी कराई थी। तब उन्होंने नवाज शरीफ को फटकार भी लगाई थी।

फिल्म नायकों की प्राइवेट लाइफ हमेशा जिज्ञासा का विषय रही है। दिलीप कुमार की प्रेम कहानियां भी रहीं लेकिन वे कभी विवादित नहीं बने। उन्होंने सायरा से शादी कर एक आदर्श पति की छवि हासिल की। उन्होंने केवल 60 फिल्मे ही कीं। उन्होंने अपनी छवि का हमेशा ध्यान रखा, कभी अभिनय के स्तर को गिरने नहीं दिया। इसलिए वे आज तक अभिनय की पारसमणि बने हुए थे। जबकि उनके रहते कई सुपर स्टार, मेगा स्टार आए को चले गए। उन्होेंने फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे इंसान की छवि बनाई जो सैट पर काम करने वाले मजदूरों को मेहनताना न मिलने की खबर पाकर

सैट छोड़कर चले जाते थे। वे सैट पर तब लौटते थे जब मजदूरों को पैसे मिल जाते थे। समूचे भारत को हमेशा 'भारत रत्न' पर गर्व रहेगा। अभिनय का कोहिनूर अब हमारे बीच में नहीं है लेकिन उनकी जगह कोई और नहीं ले सकता।

आदित्य नारायण चोपड़ा
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