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बेंगलुरु में एक महिला पर तेजाब से हमला किए जाने के 10 दिन बाद भी आरोपी नागेश बाबू को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकी है
बृंदा अडिगे
बेंगलुरु में एक महिला पर तेजाब से हमला किए जाने के 10 दिन बाद भी आरोपी नागेश बाबू को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकी है. इस एसिड अटैक में 24 वर्षीय पीड़िता करीबन 35 प्रतिशत झुलस गई है. फिलहाल उसका इलाज सेंट जॉन्स अस्पताल के आईसीयू में जारी है. भारत में सालाना लगभग 1,000 महिलाओं पर हाइड्रोक्लोरिक एसिड, नाइट्रिक एसिड और सल्फ्यूरिक एसिड का इस्तेमाल कर अपराधी हमले करते हैं. ज्यादातर मामलों में एसिड चेहरे पर फेंके जाते हैं. ऐसी एक पीड़िता जो किसी तरह बच गईं का कहना है कि एसिड अटैक के वक्त उन्हें तेज जलन महसूस हुई और ऐसा लगा जैसे कि त्वचा पिघल रही हो. जब तेजाब आंखों और कानों में चला जाता है, तो पीड़िता न तो देख पाती हैं और न ही सुन पाती हैं. श्वासनली में एसिड के जाने से अल्सर जैसी बीमारी हो जाती है.
हमारी त्वचा शरीर के तापमान को नियंत्रित करती है लेकिन थर्ड-डिग्री बर्न से जो लोग बच जाते हैं वे शरीर के तापमान को कंट्रोल करने की क्षमता खो देते हैं. थर्ड डिग्री बर्न में त्वचा सिकुड़ जाती है और कई मामलों में त्वचा के छिद्र बंद हो जाते हैं जिससे पसीने का बनना बंद हो जाता है, नतीजतन वे शरीर को ठंडा नहीं रख पाते जबकि जलन बनी रहती है. एसिड से गंभीर जलन होती है और कई मामलों में हड्डियां भी पिघल जाती हैं. एसिड अटैक के बाद जीवित रहने वालों के चेहरे और शरीर पर स्थायी निशान रह जाता है. एक बार जलने का इलाज हो जाने के बाद, बचे लोगों को 'थोड़ा सामान्य' दिखने के लिए रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी के कई सत्रों से गुजरने की जरूरत होती है. इन सर्जरी पर 15 लाख रुपये से अधिक का खर्च आता है.
इस वजह से होते हैं एसिड अटैक के ज्यादातर मामले
पितृसत्तात्मक और अराजक मानसिकता मानता है कि महिलाएं ही जिम्मेवार होती है जो पुरूष को इस हिंसक यौन और शारीरिक हमलों के लिए उकसाती है. पुरूष मानसिकता इस बात को स्वीकार नहीं कर पाता है कि कैसे एक महिला उसे अस्वीकार कर देगी, कैसे वह उसे रिजेक्ट कर देगी, कैसे वह पुरुष के साथ रिश्ते में रहने से इनकार कर देगी और किस तरह वह दहेज से संबंधित उत्पीड़न के बारे में रिपोर्ट कर देगी. कहने का अर्थ यह है कि ज्यादातर अहंकारी और कमजोर दिमाग वाले पुरुष इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि कैसे एक महिला उसे इनकार कर सकती है. निस्संदेह पुरुषों द्वारा एसिड हमले कायरता और बदले की भावना से किया गया जघन्य अपराध है. ये पुरुष के अंदर असुरक्षा की गहरी भावना को रेखांकित करते हैं.
पुलिस का दावा है, "एसिड अटैक के लगभग सभी मामले हावी होने की तीव्र इच्छा और प्रतिशोध की वजह से होता है. इनमें से कोई भी मामला आवेगी नहीं था. सभी हमले की पहले योजना बना ली गई थी. एसिड हमले के अधिकांश मामले जुनून और सम्मान के अपराध हैं, जबकि कुछ वित्तीय विवाद और दहेज उत्पीड़न की वजह से किए जाते हैं." हमें इस दलील को न तो प्रचार करना चाहिए और न ही हमारे बयानों में इस तरह के तर्क की गूंज होनी चाहिए. अपराध के 'क्यों' का जवाब तलाश कर हम अपराध की भयावहता, अत्याचार, भयंकरता और बुरे इरादों को कम कर आंकने लग जाते हैं. हमें सदैव याद रखना चाहिए कि एसिड अटैक एक जघन्य अपराध है.
महिला के व्यक्तित्व की हत्या कर देता है एसिड अटैक
एसिड अटैक से बचे लोगों को गंभीर सामाजिक, शारीरिक और भावनात्मक यातना का सामना करना पड़ता है. वह अपना आत्मविश्वास और गरिमा के साथ जीने का अधिकार खो देती है. यहां तक कि परिवार को उसके साथ संबंध बनाए रखना भी मुश्किल होता है और उसकी आर्थिक स्थिति पूरी तरह से बिखर जाती है. इसके उलट अपराधी जमानत पर बाहर निकल कर जीवन का आनंद उठाता है. इतना ही नहीं, जलने की गंभीरता/तीव्रता के आधार पर उसे कम समय के लिए ही जेल भी भेजा जाता है. इंसाफ का ये तरीका अराजकतावाद को बढ़ावा ही देता है. एसिड अटैक को 'हत्या के प्रयास' की तर्ज पर सजा शायद ही मिलती है. ऐसा इसलिए नहीं कि वो जलने से मर सकती है बल्कि इसलिए कि एसिड अटैक महिला के व्यक्तित्व की हत्या कर देता है, भले ही वह जीवित रहे.
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को लगाई थी फटकार
अप्रैल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एसिड हमलों के पीड़ितों के प्रति असंवेदनशीलता, तेजाब की आसान उपलब्धता और अपराध को रोकने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाने के लिए केंद्र को फटकार लगाई थी. इस पर केंद्र ने 16 जुलाई 2013 को कहा कि तेजाब को जहर माना जाएगा. बहरहाल, दुकानों से एसिड खरीदने वाले व्यक्ति की पहचान का आवासीय/संबद्ध दस्तावेज लेने की प्रक्रिया का सही सही पालन नहीं हो पा रहा है. सरकार ने कोरोसिव एसिड को जहर के रूप में मानने के लिए एक नया कानून बनाने का भी वादा किया था ताकि आसानी से इसकी उपलब्धता पर प्रतिबंध लगाया जा सके. महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और केरल ने पहले ही 1919 के जहर अधिनियम के तहत एसिड और अन्य क्षयकारी पदार्थों की बिक्री को रेगुलेट करने के लिए वैधानिक नियम तैयार किए हैं. सरकार ने कहा कि यह लोगों को नाशक पदार्थ खरीदने से काफी हद तक हतोत्साहित करेगा. फिर भी हम जानते हैं कि भारतीय कानून ज्यादातर कागजों पर ही रहते हैं और नए नियमों तभी प्रभावी होंगे जब वे व्यापक तरीके से लागू किए जाएंगे. और शायद यही हमारी न्याय प्रणाली की कमी है.
आईपीसी में एसिड अटैक एक अलग अपराध के रूप में घोषित
Criminal Amendment Act, 2013 ने भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत एसिड अटैक को एक अलग अपराध के रूप में घोषित किया. इस अधिनियम के तहत धारा 326 ए और 326 बी को शामिल किया गया ताकि एसिड हमले को परिभाषित और सजा का प्रावधान किया जा सके. फिर भी कानून में खामियां बनी रहीं. धारा 326 खतरनाक हथियारों या साधनों से स्वेच्छा से गंभीर चोट पहुंचाने से संबंधित है. यह अपर्याप्त है क्योंकि गंभीर चोट की परिभाषा एसिड हमलों के दौरान विभिन्न प्रकार की चोट को कवर करने के लिए पर्याप्त रूप से व्यापक नहीं है, न ही यह एसिड हमले के कार्य को संबोधित करता है. इतना ही नहीं, यह धारा अदालतों को सजा देने के संबंध में व्यापक विवेक देती है. भारत में एसिड हमलों के मामले को देखें तो हम कह सकते हैं कि इन मामलों में आमतौर पर अपर्याप्त सजा होती है. यदि कोई हमले के दौरान घायल नहीं होता है तो I.P.C की धारा जानबूझकर तेजाब फेंकने के कार्य को दंडित नहीं करेगी. अंत में, ये धारा यह भी नहीं बताता है कि जुर्माना किसे प्राप्त करना है. कुल मिलाकर संरचनाएं, प्रणालियां और तंत्र पितृसत्तात्मक बने हुए हैं और महिलाओं को कभी भी इंसाफ नहीं मिल पाता है.
एसिड हमलों से बच जाने वाले पीड़ितों को कानूनी चुनौतियों से बचाया जा सकता है यदि मौजूदा कानून और सपोर्ट सिस्टम पीड़ितों के अधिकारों को ध्यान में रखकर कॉर्डिनेशन और कनवरजेन्स के साथ काम करें. एसिड अटैक पीड़ितों तो जो तत्काल मदद की जरूरत होती है वो है उनको सुरक्षा और चिकित्सा देखभाल. इन दोनों ही मामलों में राज्य एजेंसियां मुस्तैदी से काम नहीं करती है. अदालत की थकाऊ और बोझिल प्रक्रियाओं और जटिल चुनौतियाँ के मद्देनज़र एसिड अटैक से बच जाने वाली पीड़िता अक्सर अदालतों में मुकरने के लिए मजबूर होती है. आरोपी के परिवार के दबाव और पुलिस की उदासीनता की वजह से आरोप पत्र दाखिल करने में देरी होती है और इसी आरोप-पत्र के आधार पर आरोपी को दोषी ठहराया जाता है. इस बीच, पीड़ित को मुआवजा देने का वादा भी सिर्फ कागजों पर ही रह जाता है जबकि उसकी तकलीफें हर दिन बढ़ती ही जाती है. पुलिस, अभियोजन, न्यायपालिका और पुनर्वास सहायता प्रणालियों को चाहिए कि वे अभियुक्तों को सजा और पीड़िता को पुनर्वास मुआवजा दिलाने की प्रक्रिया पर अपना ध्यान केन्द्रित करें. आखिरकर इस भयानक अपराध की त्रासदी से गुजर रहे पीड़ित का ये हक है.
एसिड अटैक के पीड़ितों की समस्या सुनने के लिए बोर्ड का गठन
राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपराधों की रोकथाम (एसिड) विधेयक, 2008 का मसौदा तैयार किया था. इस विधेयक में ये प्रस्ताव दिया गया कि National Acid Attack Victims Assistance Board का गठन किया जाए जो एसिड अटैक के पीड़ितों की समस्या सुने और उन्हें सहायता प्रदान करे. यह सहायता चिकित्सा सहायता और मनोवैज्ञानिक परामर्श प्रदान करके दी जाएगी ताकि हमले के शिकार लोग आघात से उबर सकें. यह बोर्ड बाजार में एसिड के उत्पादन और बिक्री को नियंत्रित करने के लिए सरकार को रणनीति बनाने की भी सिफारिश करेगा. बिल यह भी सुझाव देता है कि एक National Acid Attack Victims Fund का गठन होना चाहिए जिसमें केंद्र और राज्य दोनों सरकारें अपना अनुदान इस फंड को दे सकती हैं. बिल में यह भी कहा गया है कि बोर्ड 1,00,000/रुपये तक की अंतरिम राहत 30 दिनों के भीतर सीधे अस्पताल को दे सकता है.
एसिड अटैक का कोई और शिकार न बन जाए इसके लिए रोकथाम पर ध्यान दिया जाना चाहिए. स्कूलों, कॉलेजों और संबद्ध संस्थानों में शिक्षा सर्वोपरि है जिसके तहत पुरुषों और लड़कों को "सहमति" का अर्थ और लड़की / महिला के "नहीं" कहने के अधिकार को समझाए जाने की जरूरत है. इसमें मीडिया, फिल्मों और टीवी धारावाहिकों की एसिड हमलों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. ये आरोपियों के अत्याचार और सजा को उजागर करके और कानून का भय लोगों में पैदा कर सकते हैं. मीडिया को महिलाओं को चित्रित करने के लिए पारंपरिक हिंसक पितृसत्तात्मक मानसिकता को नहीं दोहराना चाहिए.
महिलाओं को पोशाक, पार्टनर चुनने और धर्म की स्वतंत्रता ऐसे अधिकार हैं जिनका पुरुष अपने अधिकारों के रूप में आनंद लेते हैं. राजनेताओं, कर्तव्यपालकों, धार्मिक और सामुदायिक नेताओं को महिलाओं की ताकत और क्षमता, उनकी स्वतंत्रता, प्रगतिशील रुख और अधिकारों का सम्मान करना चाहिए. राज्य को अंततः भारत में Witness and Victim Compensation Scheme को धारा 357 या धारा 357ए से बड़ी संस्था के रूप में मानना चाहिए. इसे ऐसे कार्यक्रमों की एक श्रृंखला का निर्माण करना चाहिए जो आपराधिक प्रावधानों, नागरिक उपचार, पुनर्वास सहायता, अदालतों की भूमिका और राज्य की जवाबदेही के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए उन्हें एक दूसरे से जोड़ें.
Rani Sahu
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