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ग्लासगो में दो हफ्ते चले जलवायु सम्मेलन की बड़ी उपलब्धि यही मानी जानी चाहिए कि सभी देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने पर सहमत हो गए।
ग्लासगो में दो हफ्ते चले जलवायु सम्मेलन की बड़ी उपलब्धि यही मानी जानी चाहिए कि सभी देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने पर सहमत हो गए। जिन देशों ने कार्बन उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य तय नहीं किया है, वे साल भर के भीतर इसे तय कर लेंगे। सम्मेलन का एक बड़ा हासिल यह भी रहा कि कोयले के इस्तेमाल को लेकर अमीर देश विकासशील देशों पर जो फंदा कसने की तैयारी में थे, उसमें वे कामयाब नहीं हो पाए।
भारत के दबाव के आगे विकसित देशों को झुकना पड़ा। इसी का नतीजा रहा कि सम्मेलन के अंत में भारी जद्दोजहद के बाद कोयले का इस्तेमाल बंद करने के बजाय इसे 'कम करने' की कोशिशों पर सहमति बनी। हालांकि यह भी तभी संभव हो पाएगा जब अमीर देश गरीब देशों को सौ अरब डालर सालाना की मदद देने का अपना पुराना वादा निभाने को लेकर गंभीर होंगे। जलवायु संकट से निपटने के लिए विकासशील और गरीब देशों ने जो लक्ष्य तय किए हैं, उन्हें हासिल कर पाने में सबसे बड़ी बाधा पैसे की आ रही है। इस मुद्दे पर अमीर देशों का अब तक का रुख कदम पीछे खींचने वाला ही रहा है।
सम्मेलन के आखिरी दिन तक गंभीर मुद्दों पर सदस्य देशों का एकमत नहीं हो पाना बताता है कि धरती को बचाने की आगे की राह कितनी कठिन है। इसलिए सम्मेलन की अवधि एक दिन और बढ़ाई गई, तब जाकर कार्बन उत्सर्जन कटौती तथा कोयले के इस्तेमाल जैसे मसले पर समझौते का दस्तावेज तैयार हो पाया। इस अंतिम दस्तावेज में कहा गया है कि वैश्विक तापमान में डेढ़ डिग्री कमी लाने के लिए मिल कर काम करना होगा।
इसके लिए सबसे ज्यादा जोर कोयले के इस्तेमाल में कमी लाने पर दिया गया है। अब देखना यह होगा कि कोयले के इस्तेमाल में कमी के लिए सदस्य देश कदम क्या उठाते हैं। हालांकि दुनिया के सारे देशों के लिए कोयले के इस्तेमाल को पूरी तरह से बंद करना या जल्द ही कम करना आसान नहीं दिखता। चीन जैसे देश ने इसके लिए 2060 तक का लक्ष्य रखा है। भारत के सामने यह चुनौती और भी बड़ी है।
देखा जाए तो अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश भी जीवाश्म र्इंधन का इस्तेमाल किए बिना अपनी गाड़ी बढ़ा पाने में लाचार हैं। अभी भी ज्यादातर औद्योगिक राष्ट्र और विकासशील देश कोयले या जीवाश्म र्इंधन पर ही निर्भर हैं। परमाणु या सौर ऊर्जा जैसे विकल्प सबके लिए संभव भी नहीं हैं। ऐसे में कोयले का प्रयोग बिल्कुल बंद कर देना किसी के लिए भी आसान कैसे होगा, यह बड़ा सवाल है।
जलवायु सम्मेलन पिछले पच्चीस सालों से हो रहा है। लेकिन देखने में यही आ रहा है कि पर्यावरण बचाने के लिए अब तक जिस तेजी से कोशिशें होनी चाहिए थीं, वे नहीं हुर्इं। जलवायु संकट के लिए हर बार अमीर देश गरीब देशों पर ही ठीकरा फोड़ते रहे। अभी भी यही हो रहा है।
कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य, कोयले का इस्तेमाल बंद करने को लेकर विकसित देशों का दबाव, विकासशील देशों को उनके हिस्से के कार्बन इस्तेमाल की इजाजत, र्इंधन सबसिडी जैसे मुद्दों पर अगर भारत हस्तक्षेप नहीं करता तो दुनिया के आधे से ज्यादा देश और गंभीर मुश्किल में पड़ जाते। धरती को बचाने की जिम्मेदारी तो सबकी है। आज जरूरत इस बात की है कि ग्लासगो सम्मेलन में बनी सहमति पर हर देश ईमानदारी से व्यावहारिक रुख अपनाए। वरना ग्लासगो में बनी सहमति का भी हाल पिछले सम्मेलनों के समझौतों की तरह ही देखने को मिलेगा।
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