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वे वक्त रहते अपनी कार्य-शैली सुधार लें।
वैसे तो देश में आजादी के बाद भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की शुरुआत हुई थी और जो देश में विकेंद्रित कार्य-शैली के लिए जरूरी भी था। जिन नए राज्यों का गठन हुआ, उसके पीछे कुछ हद तक स्थानीय कारण तो थे ही, लेकिन उसके साथ-साथ राजनीतिक मंशाओं और महत्वाकांक्षाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। अगर विभिन्न राज्यों का आकलन करें, तो कहीं-कहीं राज्य बनने के बाद आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा भी मिली है। लेकिन अन्य कई राज्य कोई चमत्कार न कर सके।
अगर पिछले करीब दो दशकों में देखें, तो तीन छोटे राज्यों-झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन हुआ। यह मानकर चला गया कि इन सबकी अपनी-अपनी अनोखी प्रकृति, पारिस्थितिकी और समस्याएं हैं, जो देश के अन्य हिस्सों से अलग हैं। पर अगर हम इनके दो दशकों का लेखा-जोखा देख लें, तो न केवल निराशा ही हाथ लगेगी, बल्कि इनके बारे में कोई बड़े दावे भी नहीं किए जा सकते।
अब उत्तराखंड राज्य को ही देख लें। स्वतंत्र उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए एक बड़ा आंदोलन चला, जिसमें महिलाएं, बच्चे और हर स्तर के लोग कूद पड़े थे, लेकिन यह राज्य 20 साल में ही बूढ़ा हो गया। नए उत्तराखंड राज्य को आज की अपेक्षाओं और आशाओं पर खरा उतरना चाहिए था, लेकिन यह दो ही दशक में बेहाल हो गया। उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे बहुत से कारण थे।
जैसे, इसकी भौगोलिक परिस्थितियां, दूर-दराज स्थित गांव, सड़कों का अभाव और साथ में स्थानीय प्राथमिकताएं शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सहूलियतें, जो तब हाशिये पर थीं और आज 21 साल बाद भी हाशिये पर ही हैं। इस राज्य को शुरुआत में ही नाम के झंझट से गुजरना पड़ा। जैसे, कभी उत्तरांचल, तो कभी उत्तराखंड। फिर यह उन अपेक्षाओं पर आज तक खरा नहीं उतर पाया, जो यहां की प्राथमिकताएं थीं। जिस राज्य ने 21 साल के इतिहास में 10 मुख्यमंत्री देख लिए हों, उसकी अस्थिरता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। फेरबदल का ऐसा नमूना देश में कहीं और नहीं दिखता।
फिर इस राज्य का राजनीतिक चरित्र भी ऐसा नहीं रहा, जो पिछले कार्यों को आगे बढ़ाता। तब यह फेरबदल भी इतना घातक नहीं होता। हालांकि इस सिलसिले में हमें यह सामूहिक जनदोष भी स्वीकार लेना होगा कि हम अपना नेतृत्व राज्य के मुद्दों के बजाय अन्य प्रभावों के असर में चुनते रहे हैं। इस राज्य को बारी-बारी से विभिन्न दलों की सरकारों का नेतृत्व हासिल हुआ। लेकिन सच यह है कि इस राज्य को लेकर जो अपेक्षाएं थीं और जिन मुद्दों को लेकर यह राज्य बनाया गया था, वे आज भी अधर में ही हैं।
अब अगर इस राज्य को बूढ़ा होने से बचाना है, तो हमें नए सिरे से राजनीतिक नेतृत्व पर चर्चा करनी होगी। दरअसल इस राज्य को नेतृत्व देने वाले ज्यादातर उम्रदराज लोग थे। वैसे भी यह पहाड़ है और यहां एक खास उम्र के बाद चढ़ाई चढ़ना मुश्किल हो जाता है। यही दृष्टिकोण राजनीति और नेतृत्व में भी लागू होना चाहिए। यहां की विशेषताएं, सीमाएं और प्राथमिकताएं अपने आप में अलग हैं, जिनका समाधान धैर्य, गंभीरता और जोश के साथ ही संभव है। और ये विशेषताएं उम्र के साथ घटती जाती हैं।
अब कद्दावर नेता दिवंगत नारायण दत्त तिवारी का ही उदाहरण लीजिए, जिन्होंने देश में तमाम स्तर पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व किया और विकास पुरुष की ख्याति भी प्राप्त की। लेकिन वही एनडी तिवारी जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने, तब वह राज्य के सभी जिलों का दौरा नहीं कर पाए और देहरादून में सिमट कर ही उन्होंने सरकार चलाई। राज्य ने बेशक उनके बड़े कद का लाभ उठाया, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी उम्र और असमर्थता पहाड़ की पीड़ा दूर करने में भी अक्षम थीं।
युवा उत्तराखंड के बूढ़ा दिखने का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि इसका प्रतिनिधित्व करने वाले लोग उम्रदराज थे। राजनीति में विवाद हमेशा ही रहेगा, पर यह विवाद ज्यादा गहरा तब होता है, जब दो पीढ़ियों में सत्ता की होड़ मच जाए। आज जनहित में ऐसे विवादों से बचना होगा और युवाओं को अवसर देने होंगे। अगर राजनीतिक पार्टियां इससे संबंधित निर्णय लेने में कतराएं, तो फिर जनता को जनार्दन बनना होगा।
उत्तराखंड का इतिहास देखें, तो इन 20-21 साल में युवाओं को नेतृत्व नहीं मिला। उत्तराखंड की राजनीति ने एक लंबे समय से विवादों में उलझते-उलझते अवसादों में पड़कर अपनी जवानी खो दी है। 21 साल का उत्तराखंड बूढ़ा हो गया है। ऐसे में, यही वह समय है, जब तमाम राजनीतिक दलों के युवाओं को ही पार्टी का नेतृत्व करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। और इस दिशा में पहल दलों के वरिष्ठ नेता ही करें, ताकि किसी भी तरह के टकराव की गुंजाइश न रहे।
युवाओं पर ही अब जनता की आस भी टिकी है। वर्तमान मुख्यमंत्री का ही उदाहरण सामने है, जिन्हें अपनी पारी खेलने की छोटी-सी अवधि मिली है। पर युवा होने के कारण वह कम ही समय में काफी लोकप्रियता पा चुके हैं। उन्होंने पार्टी की गिरती साख को तो बचाया ही, इसे ऑक्सीजन भी दी। इसके अलावा लोगों ने राज्य के युवा नेतृत्व को स्वीकारा भी है।
यह सभी राजनीतिक दलों के लिए संदेश है कि वे भी अब राज्य के प्रति गंभीर होकर अपने बीच के युवाओं को बड़ी भूमिका दें, अपने आप को घिसे-पिटे राजनीतिक दांव-पेच से ऊपर उठाएं और उत्तराखंड व युवाओं के प्रति न्याय कर नई राजनीति की नींव रखें। बूढ़े होते उत्तराखंड की झुर्रियां युवा ही दूर कर पाएंगे, उम्रदराज नेता नहीं। आज अगर कहीं कोई आशा बची है और उत्तराखंड को अवसादों से बचाना है, तो यह युवाओं से ही संभव है।
साफ है कि अगर राजनीतिक दल अब ठोस निर्णय नहीं लेंगे, तो फिर जनता ही उन दलों को नकार देगी, जो युवाओं को स्थान नहीं देंगे। उत्तराखंड आज 21 साल पहले जैसा नहीं रहा और यह बात लोगों को खटक रही है। मौजूदा हालात के लिए राजनेताओं को ही दोषी माना जा रहा है। इसलिए उत्तराखंड में सरकार चला चुके सभी दलों के लिए जरूरी है कि वे वक्त रहते अपनी कार्य-शैली सुधार लें।
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