सम्पादकीय

संवाद से सिद्धि

Subhi
24 July 2022 9:56 AM GMT
संवाद से सिद्धि
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विज्ञान, तकनीकी और संचार तकनीकी में परिश्रम पूर्वक किए गए अध्ययनों तथा मानव हित में उनके उपयोग की संभावनाओं पर गहन शोध और नवाचार के कारण यह सब संभव हुआ है।

जगमोहन सिंह राजपूत: विज्ञान, तकनीकी और संचार तकनीकी में परिश्रम पूर्वक किए गए अध्ययनों तथा मानव हित में उनके उपयोग की संभावनाओं पर गहन शोध और नवाचार के कारण यह सब संभव हुआ है। मगर इन उपलब्धियों का केवल सही उपयोग होता हो, ऐसा नहीं है। अफवाहें फैलाना, गलत जानकारी को स्वार्थवश बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचाना, हिंसा के लिए लोगों को उकसाना, असामाजिक तत्वों के लिए अत्यंत सरल कार्य हो गया है।

अल्फ्रेड नोबेल ने बारूद का आविष्कार किया, उसके कितने ही जनहित के उपयोग संभव थे और होते रहे हैं, मगर मनुष्य की प्रवृत्ति और प्रकृति दुरुपयोग की ओर संभवत: अधिक तेजी से चलती है। क्या यह अनुमान भयावह नहीं कि बारूद के कारण कितने लोगों, जातियों और नस्लों तक का जीवन अकारण नष्ट हुआ होगा।

किस प्रकार उत्तर अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे अनेक देशों में वहां की लगभग पूरी जनसंख्या ही समाप्त कर दी गई। यही हाल परमाणु विखंडन जनित ऊर्जा का हुआ है। मनुष्य उन्हीं परमाणु हथियारों की दौड़ में प्रतिस्पर्धा कर रहा है, जिनका उपयोग पृथ्वी पर से पूरी मानव प्रजाति को कभी भी समाप्त कर सकता है।

अपेक्षा तो यही थी कि द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद प्रत्येक देश की समझ में आ गया होगा कि भविष्य में युद्ध और हिंसा से बचना ही होगा। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं बनीं, आज भी हैं, बड़े-बड़े सम्मेलन करती हैं, पर हिंसा और युद्ध घट नहीं रहे हैं। युद्ध की प्रकृति बदल गई है। रूस का यूक्रेन पर हमला और उसका तीन महीने से अधिक खिंचना इसका ज्वलंत उदाहरण है।

यह तथ्य फिर विश्व समाज के समक्ष उभरा है कि युद्ध कहीं भी हो, उसका प्रभाव वैश्विक होगा, हर युद्ध नए युद्ध को ही जन्म देगा, उससे शांति स्थापित नहीं होगी। अभी तक तो परमाणु युद्ध की भय र्चित होती है, कभी-कभी रासायनिक और जैविक युद्धों की तैयारी की चर्चा भी सभी के समक्ष आती है। संचार तकनीकी की अभूतपूर्व प्रगति ने साइबर युद्ध की आशंका को जन्म दिया है। इस समस्य का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से क्या संबंध हो सकता है?

अगर विद्वत समाज ने सिविल सोसाइटी के साथ बिना किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुखर और शक्तिपूर्ण सदुपयोग किया होता, तो विश्व आज हिंसा, आशंका, अविश्वास और युद्ध की त्रासदियां नहीं झेल रहा होता।

अगर विश्व समाज ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करना भी सीखा होता, तो मानव समाज युद्ध और हिंसा को बहुत पहले नकार चुका होता। हो तो इसका उल्टा रहा है। सारे विश्व में विभिन्न प्रकार के आयुधों की मारक क्षमता लगातार बढ़ी है, उसमें सुधार के लिए शोध और नवाचार लगातार होता रहता है। अब साइबर सुरक्षा जैसे नए प्रश्न और चुनौतियां वैश्विक समाज के समक्ष उभर कर आए हैं।

आधुनिक शिक्षा नीतियों और विधियों में बहुधा यह कहा जाता है कि बच्चों की वैचारिक, विश्लेषण और अभिव्यक्ति की क्षमता को हर प्रकार से प्रस्फुटित करने का प्रयास लगातार किया जाना चाहिए। इसमें सफलता पाने की गति मंद ही रहती है, जिसके अनेक कारण सर्वविदित हैं। लेकिन एक निष्कर्ष पर सभी लगभग सहमत हैं कि मानवता के पृथ्वी पर बचे रहने के लिए विवेकशीलता को बढ़ाना और अभिव्यक्ति को उसी की परिधि में प्रस्तुत करना आवश्यक उत्तरदायित्व होना ही चाहिए। भारत की प्राचीन सभ्यता के वैश्विक-सम्मान का आधार ज्ञान-विज्ञान-अध्यात्म के समन्वित स्वरूप में उसका अग्रणी होना ही रहा था।

इस दिशा में देश के आगे बढ़ने के लिए कितने ही मनीषियों ने अपने जीवन को नवाचारों, नई खोजों और नव-ज्ञान सृजन में केवल एक उद्देश्य से लगाया था- लोक: समस्त: सुखिनो भवन्तु:! इसके पीछे के दर्शन में मानव मात्र की एकता पूरी तरह स्वीकार्य थी, कोई भी और किसी प्रकार की विविधता इसमें बाधा नहीं बन सकती थी।

बौद्धिकता के उच्चतम स्तर पर विकसित ज्ञान-विज्ञान-दर्शन समाज के अंतिम छोर तक उन्हीं की भाषा और बोली में पहुंचाने की व्यवस्था परिव्राजक प्रथा द्वारा स्थापित कर दी गई थी। संवाद हर सोपान पर स्वीकार्य था। जैसे-जैसे इसमें व्यवधान आए, वैचारिकता और मनन-चिंतन संकुचित होता गया, समाज में विकृतियां उत्पन्न होती गईं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वश्रेष्ठ उपयोग संवाद में ही संभव है। मनुष्य ने प्रकृति के रहस्यों की अपनी समझ में लगातार वृद्धि की है, मगर उसकी अपने को समझने की क्षमता संभवत: समय के साथ कदम से कदम मिला कर नहीं चल पाई। मनुष्य अनेक समस्याओं से ग्रसित होता जा रहा है, क्योंकि वह वैश्विक भाईचारे- वसुधैव कुटुम्बकम- जैसी अवधारणाओं से लगातार दूर होता जा रहा है।

क्या यह अत्यंत लज्जाजनक स्थिति नहीं है कि जिस भारत से अपेक्षा की गई थी कि वह सारे विश्व को शांति का मार्ग दिखा सकता है, वह स्वयं ही आज हिंसा, अविश्वास और आशंकाओं से अपने घर में ही घिरा हुआ है!

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल आलोचना का औजार नहीं है, उसका उपयोग तो वाद-विवाद की किसी भी कठिन स्थिति में संवाद स्थापित कर समाधान कर सकता है। संवाद से सिद्धि का गीता से बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है!

संवादहीनता और नैसर्गिक अभिव्यक्ति की अनुपस्थिति के कारण जो समस्याएं भारत के समक्ष उपस्थित हैं, वैसी ही विश्व के अन्य देशों में भी व्याप्त हैं। यूरोप का उदाहरण सबसे पहले सामने आता है। एक भाषा-संस्कृति-पंथ वाले देश अब विविधता के साथ शांतिपूर्ण जीवन बिताने की कला और कौशल सीख रहे हैं।

दृष्टिकोण, सोच और परिवर्तन को स्वीकार करने की आतंरिक स्वीकृति का कोई विकल्प है ही नहीं। यह ईमानदार अभिव्यक्ति तथा अन्य की अभिव्यक्ति को समझाने की क्षमता से ही संभव होगा। अगर कोई एक वर्ग मध्यकालीन सोच के आगे नहीं बढ़ेगा, तो समय से पीछे रह जाने के लिए वह स्वयं जिम्मेवार होगा, दूसरा कोई नहीं! अगर पृथ्वी पर आगे की पीढ़ियों को शांति, सहयोग और भाईचारे का जीवन जीना है, तो वैचारिक गतिशीलता को अपनाना होगा।

नई पीढ़ी को इस सत्य से अवगत कराना परम आवश्यक होगा कि समानता और भाईचारे को स्वीकार करना ही शांति की ओर ले जाने की संभावना का द्वार खोल सकता है। अंतिम सत्य और लक्ष्य एक ही है, उस ओर जाने के रास्ते अलग-अलग हैं। पर अब यह स्वीकार्य नहीं होगा कि कोई एक ही सर्वश्रेष्ठ है।

यहां भी बराबरी स्वीकार्य करनी होगी। इसके लिए अभिव्यक्ति और संवाद अत्यंत सहायक होंगे। जिस प्रकार सभी विज्ञान, तकनीकी और संचार तकनीकी का उपयोग करने को उत्सुक हैं, उसी प्रकार मूल मानवीय तत्वों और मूल्यों को भी आत्मसात करना आवश्यक होगा।


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