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इसके कुछ सुखद आयाम भी होंगे, पर मुझे खतरनाक पहलू भी दिखाई दे रहे हैं। हमें तय करना होगा कि इतिहास से सीखना क्या है?
भारत का लिखित इतिहास ऋग्वेद से शुरू होता है, इससे पहले के सिंधु सभ्यता के लिखित साक्ष्य आज भी सर्वमान्य रूप से पढ़े नहीं गए हैं, उसकी लिपि अबूझ है। कुछ दावे और कोशिशें रही हैं, पर उनमें से किसी भी दावे को सर्वस्वीकृति नहीं मिली है। ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक यानी लगभग पांच हजार साल में शायद ही कभी इतिहास का एक विषय के रूप में ऐसा स्वर्णकाल रहा हो, जैसा हमारे समय में महसूस हो रहा है।
इतिहास में लोकरुचि अच्छी बात है, पर बिना किसी औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण इतिहास को खारिज करने, बदलने की छटपटाहट वैसी ही है कि चाकू हाथ में आते ही कोई भी सामान्य व्यक्ति खुद को सर्जन मानने लगे और ऑपरेशन थिएटर में घुस जाए। इसे एक तथ्य और तर्क की तरह मान लिया जाए, तो कोई हर्ज नहीं है कि भारतवर्ष गुरुकुल परंपरा का देश है, डिग्रियां पश्चिमी प्रभाव या अंग्रेजों के काल में आईं।
पर किसी विषय में विद्वता हासिल करने के लिए वर्षों गुरु सान्निध्य की अहमियत गुरुकुल परंपरा मानती ही है। आधुनिक शिक्षा संस्थानों, शोध संस्थानों को हमने गुरुकुल की जगह ही तो प्रतिस्थापित किया है। इतिहास लेखन, इतिहास पठन-पाठन, मायथोलॉजी, ऐतिहासिक कहानियों से अलग है, तो इतिहास की लेखनसम्मत समझ श्रम और समय साध्य प्रक्रिया है।
एक ताजा मामले में कोर्ट का याचिकाकर्ता से यह कहना कि जाओ, पहले इतिहास की पढ़ाई करके आओ-बहुत मानीखेज है। नीम हकीम केवल चिकित्सा के पेशे में ही जानलेवा नहीं होते, इतिहास के नीम हकीमों की चूकें कई पीढ़ियां भुगतती हैं। ताजमहल के तेजो महालय होने या न होने की बहस को हम जेरे बहस नहीं लाएंगे, यह थिअरी देने वाले पीएन ओक ने हिंदू नजरिये से इतिहास के कई प्रश्नों को देखा है।
उनकी एक दर्जन से ज्यादा ऐसी थिअरीज खास राजनीतिक गलियारों में गूंजती रही हैं। पिछले कुछ समय से उनकी चर्चाएं फिर होने लगी हैं। सवाल अब भी यही है कि क्या अकादमिक दुनिया अब पुरुषोत्तम नागेश ओक को इतिहासकार मानने लगी है? उनकी मेथडोलॉजी और शोध के स्रोत क्या उन्हें इतिहासकार सिद्ध करते हैं?
यहां कुछ बातें रेखांकित किए जाने लायक लगती हैं, इतिहास की मेथडोलॉजी की पहली जरूरत और खूबी यह है और होनी चाहिए कि नए तथ्यों, नए स्रोतों की रोशनी में बदलाव के लिए हमेशा गुंजाइश रहे। पूर्व ज्ञात स्रोतों से हासिल तथ्यों की नवीन व्याख्या के लिए खुले दिल से तैयार रहें। व्याख्या में हठाग्रह की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, अन्यथा वह मार्ग वाचिक या कर्मणा हिंसा का मार्ग है।
नैतिकता जैसे देशकाल सापेक्ष अवधारणा है, उसी तरह बहुत सारे जीवन मूल्य सर्वकालिक, सार्वदेशिक सम्मानीय, आदरणीय नहीं होते। इतिहास की नैतिकताओं और मूल्यों का प्रश्न भी ऐसा ही है। पर जो बात इतिहास के ज्ञान के एक अनुशासन के रूप में सबसे ज्यादा अक्षुण्ण प्रकृति या मूलभूत प्रस्तावना जैसी है, वह है- तथ्य सापेक्षता, स्रोत आधारित तथ्यों के प्रकाश में ही सब कुछ कहना होता है।
नहीं तो यह इतिहास लेखन वैसा ही हो जाता है, जैसा बिना नेट के बैडमिंटन खेलना। कर्नल जेम्स टॉड ने पहली बार अकबर की पत्नी (और जहांगीर की मां) के रूप में जोधाबाई का जिक्र किया, जबकि अकबर का कोई समकालीन स्रोत पत्नी के रूप में उसका उल्लेख नहीं करता, जहांगीर की मां हरखाबाई थी।
फिर एक नाटक, इम्तियाज अली ताज का अनारकली और इस नाटक के फिल्मी रूपांतरण मुगल-ए-आजम ने जोधाबाई को अकबर की पत्नी के रूप में जनमानस में स्थापित कर दिया। टॉड का राजस्थान के इतिहास लेखन में योगदान बहुत बड़ा है, पर वह प्रशिक्षित/ पेशेवर इतिहासकार नहीं थे, इसलिए उनसे यह एक स्वाभाविक, संभाव्य-सी चूक हुई थी।
कानून हाथ में लेना एक मुहावरा है, क्या ही कहा जाए कि देश का हर आदमी इतिहास को हाथ में ले रहा है। इसके कुछ सुखद आयाम भी होंगे, पर मुझे खतरनाक पहलू भी दिखाई दे रहे हैं। हमें तय करना होगा कि इतिहास से सीखना क्या है?
सोर्स: अमर उजाला
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