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- सामाजिक फलक से ऊपर

जिस शिद्दत से देवभूमि क्षत्रिय संगठन आंदोलन की भूमि तैयार कर रहा था, उतनी ही आसानी से इसका बिखराव भी हो गया। सामाजिक संगठन की शक्ति के परचम तले सवर्ण आयोग के गठन के महत्त्वाकांक्षी सपने उस वक्त बिखर गए, जब इसकी अपनी आंधियां राजनीतिक आकाश में पगार मांगने लगीं। आक्रामक रुख का पहला एपिसोड तपोवन के शीतकालीन सत्र को हिला गया था, तो संगठन की पैरवी में शिमला की मंजिल भी थरथरा रही थी, लेकिन अध्यक्ष रुमित सिंह ठाकुर द्वारा देवभूमि पार्टी के लांच करने की सूचना ने सारे समूह को तितर-बितर कर दिया। हालांकि इससे पूर्व की हिंसक घटनाओं में एएसपी समेत चार पुलिस कर्मी घायल हो चुके थे और सरकार पर दबाव के साक्ष्य शिमला को घेर चुके थे। ऐसे में आंदोलन के बिखरने और ऐसे आंदोलनों से निपटने के लिए सबक धरातल पर तैर रहे हैं। जिन आंदोलनकारियों ने रुमित सिंह का दामन छोड़ा उन्हें सराहा जाए या आंदोलन की परिणति में बिखरे समाज की आहें सुनी जाएं। जो भी हो इस प्रकरण को लेकर एक बार फिर 'कबीरा खड़ा बाजार में' की स्थिति पैदा हो रही है जहां हिमाचल का समाज अपने नेतृत्व को अंततः राजनीति की धारा में गुम कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि समाज जब एकजुट होता है, तो राजनीति की शरण में जाने को आतुर भी हो जाता है। विडंबना यह है कि ऐसे सोच ने सामाजिक भूमिकाओं को सीमित करते हुए, राजनीति के दायरे बढ़ा दिए हैं और इसीलिए रत्तीभर आलोचना पर भी नेताओं का वर्चस्व खौल जाता है।
