सम्पादकीय

सामाजिक फलक से ऊपर

Rani Sahu
17 March 2022 7:07 PM GMT
सामाजिक फलक से ऊपर
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जिस शिद्दत से देवभूमि क्षत्रिय संगठन आंदोलन की भूमि तैयार कर रहा था

जिस शिद्दत से देवभूमि क्षत्रिय संगठन आंदोलन की भूमि तैयार कर रहा था, उतनी ही आसानी से इसका बिखराव भी हो गया। सामाजिक संगठन की शक्ति के परचम तले सवर्ण आयोग के गठन के महत्त्वाकांक्षी सपने उस वक्त बिखर गए, जब इसकी अपनी आंधियां राजनीतिक आकाश में पगार मांगने लगीं। आक्रामक रुख का पहला एपिसोड तपोवन के शीतकालीन सत्र को हिला गया था, तो संगठन की पैरवी में शिमला की मंजिल भी थरथरा रही थी, लेकिन अध्यक्ष रुमित सिंह ठाकुर द्वारा देवभूमि पार्टी के लांच करने की सूचना ने सारे समूह को तितर-बितर कर दिया। हालांकि इससे पूर्व की हिंसक घटनाओं में एएसपी समेत चार पुलिस कर्मी घायल हो चुके थे और सरकार पर दबाव के साक्ष्य शिमला को घेर चुके थे। ऐसे में आंदोलन के बिखरने और ऐसे आंदोलनों से निपटने के लिए सबक धरातल पर तैर रहे हैं। जिन आंदोलनकारियों ने रुमित सिंह का दामन छोड़ा उन्हें सराहा जाए या आंदोलन की परिणति में बिखरे समाज की आहें सुनी जाएं। जो भी हो इस प्रकरण को लेकर एक बार फिर 'कबीरा खड़ा बाजार में' की स्थिति पैदा हो रही है जहां हिमाचल का समाज अपने नेतृत्व को अंततः राजनीति की धारा में गुम कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि समाज जब एकजुट होता है, तो राजनीति की शरण में जाने को आतुर भी हो जाता है। विडंबना यह है कि ऐसे सोच ने सामाजिक भूमिकाओं को सीमित करते हुए, राजनीति के दायरे बढ़ा दिए हैं और इसीलिए रत्तीभर आलोचना पर भी नेताओं का वर्चस्व खौल जाता है।

यहां सवाल नेताओं की सामाजिक दृष्टि पर इसलिए भी पैदा होता है, क्योंकि नागरिक भीड़ उन्हें सदा अलंकृत करती है और बदले में वे असामान्य, अतिप्रतिष्ठित तथा समाज के फलक से कहीं ऊपर रहना चाहते हैं। इसे राजनीतिक बहस के परिप्रेक्ष्य में देखें या उस संवाद में महसूस करंे जहां लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में राजनीतिक मानस अलग तरह से साबित होना चाहता है। इसी बजट सत्र के उन क्षणों को याद करें जब कांग्रेस के विधायक सुखविंद्र सिंह सुक्खू मीडिया को महज इस बात पर लपेट लेते हैं कि उसने विधायकों को सैर सपाटे पर मिलने वाली सुविधाओं और व्यय की सीमा का वर्णन करते हुए उनकी सुसज्जित छवि खराब की है। आश्चर्य यह कि एक सत्य की तथ्यपूर्ण खोज में मीडिया इसलिए अपराधी घोषित हो रहा है, क्योंकि उसकी खबर से तर्क के नुक्ते निकाल कर समाज खुद का माप तोल करते हुए सोचता है कि आम आदमी से कितना ऊपर हैं विधायकगण। राजनीति को समाज से ऊपर देखने का दोषी समाज खुद भी है और ऐसी रिवायतें बन रही हैं, जहां हर बार नेताओं के पांव में हाथ झुक जाते हैं या सारे बागीचे के फूल उन्हें अर्पित हो जाते हैं। किसी भी स्कूल के वार्षिक समारोह में नेताओं की मौजूदगी की अनिवार्यता या तो इसलिए बढ़ रही है कि हम हर वक्त एक नई घोषणा चाहते हैं या व्यवस्था ऐसी बना दी गई है कि राजनीतिक प्रश्रय की जरूरत में ही समाज सुरक्षित महसूस कर सकता है। जो भी हो हम देवभूमि क्षत्रिय दल से देवभूमि पार्टी के लांच तक अपने समाज के नेतृत्व में राजनीति का मोह और युवा आक्रोश की नई उभरती हुई परिपाटी देख सकते हैं।
इसी के साथ छात्र राजनीति की एक अलग शाखा भी देख सकते हैं, जो परिपक्वता के साथ समाज की संवेदना और सामाजिक विषयों के उद्वेलित अध्याय जोड़ना चाहती है। सवर्ण आयोग की मांग का कारवां जिन राहों से होकर गुजरा वहां पारंपरिक सियासत को चुनौती पैदा हो रही थी और इसे देखते हुए वह दिन दूर नहीं, जब मुद्दों की तपिश और अंदाज भी बदलेगा। सवर्ण आंदोलन से जो हासिल हो सकता था या जिसे हासिल करने से पहले राजनीतिक तमाशा हो गया, उसे देखते हुए यह अनुमान लगाया जाएगा कि ऐसी करवटें आने वाले समय में तीसरे मोर्चे की अवधारणा में ही सहयोग करेंगी। हिमाचल में पहले ही कर्मचारियों को चुनाव लड़ने की चुनौती मिल चुकी है और अगर कर्मचारी वर्ग की सियासी पृष्ठभूमि का अवलोकन होगा, तो आगामी चुनाव की पटकथा अलग भी हो सकती है। हिमाचल एक बार फिर सामाजिक विरोधाभास और राजनीतिक मजबूरियों के बीच कभी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा व मणिपुर में लौटती भाजपा को देख रहा है, तो कभी पड़ोसी पंजाब में आप के गूंजते तराने सुन रहा है। अंततः समाज से निकले आंदोलनों की अहमियत को देखते हुए हिमाचल अपने मुद्दे गढ़ लेगा। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और सियासत के वर्तमान को लेकर समाज का राजनीतिक जनमानस चौक-चौराहों पर उद्वेलित होकर किसे चुनता है, यह कशमकश अब आने वाले दिनों की मेहनत और मेहनताना सरीखी होगी। यह दीगर है कि अगर आप का सिक्का उछल गया, तो राजनीतिक व्यवहार को जमीन पर उतरना ही पड़ेगा।
Rani Sahu

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