सम्पादकीय

इकोनॉमिक्‍स के लिए नोबेल प्राइज पाने वाले अभिजीत बनर्जी ने कुकिंग और रेसिपी पर ये किताब लिखी है

Rani Sahu
15 Dec 2021 7:11 AM GMT
इकोनॉमिक्‍स के लिए नोबेल प्राइज पाने वाले अभिजीत बनर्जी ने कुकिंग और रेसिपी पर ये किताब लिखी है
x
फर्ज करिए, अगर दुनिया एक न्‍याय, समानता पर टिकी और अच्‍छे गुणों को आदर करने वाली होती तो किसके काम और टैलेंट को सबसे ज्‍यादा सम्‍मान और सराहना मिलती

मनीषा पांडेय फर्ज करिए, अगर दुनिया एक न्‍याय, समानता पर टिकी और अच्‍छे गुणों को आदर करने वाली होती तो किसके काम और टैलेंट को सबसे ज्‍यादा सम्‍मान और सराहना मिलती. मर्दों के खाते में तो दुनिया के सारे युद्ध, तबाहियां, ध्‍वंस, विध्‍वसं के कारनामे लिखे हैं. स्त्रियों ने रचने का काम किया है. मर्द बाहर की दुनिया में अपनी सत्‍ता जमाते रहे हैं और स्त्रियों ने हमेशा से घर के उस कोने का जिम्‍मा संभाला है, जो संसार की सबसे सुंदर, सबसे रचनात्‍मक जगह है. हमारी रसोई. रसोई, जहां भोजन पकता है. भोजन, जो देह को बल देता है. देह, जिस पर जीवन

टिका है.
क्‍या संसार में सबसे ज्‍यादा आदर, स्‍नेह और गरिमा वाली जगह वो नहीं, जहां हमेशा स्‍त्री का आधिपत्‍य रहा है. होनी तो चाहिए थी, लेकिन सच तो ये है कि है नहीं. बल और सत्‍ता के मद में डूबा पुरुष रसोई को कमतर जगह समझता है और रसोई से जुड़ी कला और प्रतिभा को कमतर प्रतिभा.
लेकिन जो पुरुष मर्दाने दंभ, अहंकार और उन सारे पारंपरिक गुणों से मुक्‍त हो जाता है, जो अब तक सिर्फ पुरुष के गुण माने जाते रहे थे, तो वो न सिर्फ रसोई को आदर से देखता है, बल्कि उसमें भी उन गुणों का विस्‍तार ही होता है.
अभिजीत बनर्जी संभवत: दुनिया के पहले ऐसे अर्थशास्‍त्री हैं, जिन्‍होंने इकोनॉमिक्‍स में नोबेल पुरस्‍कार जीतने के बाद अगली किताब इकोनॉमिक्‍स पर नहीं, बल्कि कुकिंग और रेसिपीज पर लिखी है. उनकी नई किताब का नाम है- "कुकिंग टू सेव योर लाइफ."
इस किताब को पढ़ते हुए लगता है कि अभिजीत बनर्जी रसोई की कला में भी उतने ही माहिर हैं, जितने कि अर्थशास्‍त्र में. वो खुद किसी मास्‍टर शेफ की तरह चंद मिनटों में रसोई में तरह-तरह के पकवान बनाने का हुनर रखते हैं. अपने इस हुनर को उन्‍होंने जिस खूबसूरती के साथ शब्‍दों में उतारा है, उसे पढ़ने का स्‍वाद किसी स्‍वादिष्‍ट रेसिपी को चखने के स्‍वाद से कम नहीं है.
अभिजीत बनर्जी के पास ऐसी ढेरों शॉर्टकट रेसिपीज हैं, जिसे वो दनादन किसी जायकेदार लजीज व्‍यंजन में तब्‍दील कर देते हैं. उनके पास हर रेसिपी के लिए एक फिलॉसफी भी है. दोस्‍तों के लिए, अपनों के लिए, प्‍यार भरे रिश्‍तों के लिए क्‍या पकाया जाए और कैसे उन्‍हें प्‍यार से सर्व किया जाए.
अभिजीत रसोई के एक-एक मसाले और एक-एक इंग्रेडिएंट से इस तरह वाकिफ हैं कि वो सब मानो उनकी स्‍मृति, मस्तिष्‍क और उंग‍लियों के साथ एकाकार हो रखे हैं. वो कब कहां और कैसे किस मसाले को किस दूसरे मसाले के साथ मिलाकर एक नया स्‍वाद रच देते हैं, पढ़ने वाला चमत्‍कृत होकर उस स्‍वाद को मानो पढ़ते हुए भी महसूस करने लगता है.
अभिजीत रेसिपीज के साथ- साथ हर रेसिपी में इस्‍तेमाल होने वाले इंग्रेडिएंट के बारे में भी विस्‍तार से जानते हैं. हालांकि हर रेसिपी का हर इंग्रेडिएंट सस्‍ता और आसानी से उपलब्‍ध होेने वाला नहीं होता. ऐसे में वो बताते हैं कि उस महंगे इंग्रेडिएंट का सस्‍ता और आसानी से उपलब्‍ध हो सकने वाला विकल्‍प क्‍या हो सकता है. जरूरी नहीं है कि सिर्फ महंगे और रेअर इंग्रेडिएंट के इस्‍तेमाल से ही कोई रेसिपी खास बनती हो.
सस्‍ते और मामूली संसाधनों से अर्थव्‍यवस्‍था को मजबूत बनाने का कारगर तरीका बताने वाले अभिजीत बनर्जी के पास सस्‍ते और मामूली इंग्रेडिएंट से जायकेदार और पौष्टिक रेसिपीज बनाने के भी ढेर सारे नुस्‍खे हैं. वो खाने को वैसे ही देखते और बरतते हैं, जैसे अर्थव्‍यवस्‍था को या यूं कहें कि अर्थव्‍यवस्‍था को वैसे बरतते हैं, जैसे घर की रसोई को.
जिस रात अभिजीत बनर्जी के पास स्‍टॉकहोम से फोन आया कि उन्‍हें और उनकी पत्‍नी एस्‍थर डेफेलो को वर्ष 2019 के इकोनॉमिक्‍स के नोबेल पुरस्‍कार के लिए चुना गया है तो उन्‍होंने नोबेल कमेटी की ओर से फोन करने वाले प्रतिनिधि का शुक्रिया अदा किया और फिर सोने चले गए. लोगों ने इंटरव्‍यू में बार-बार उनसे सवाल किया कि इतनी बड़ी खबर सुनने के बाद कोई इतनी आसानी से सो कैसे सकता है. एस्‍थर डेफेलो को उस फोन कॉल के बाद नींद नहीं आने वाली थीं. एक स्‍वीडिश चैनल को दिए इंटरव्‍यू के दौरान उन्‍होंने कहा भी कि मैं तो उस रात जल्‍दी सोने वाली नहीं थी.
लेकिन ये जो धैर्य और प्रशांति है अभिजीत बनर्जी के व्‍यक्तित्‍व में, उसी धैर्य की झलक उनकी पाककला में भी दिखाई देती है. उन रेसिपीज में, जिनका वो इस किताब में वर्णन करते हैं. कोई जल्‍दबाजी, कोई हड़बड़ाहट नहीं है. ज्‍यादा पूर्व नियोजित तैयारियां भी नहीं हैं कि कोई खास रेसिपी बनाने से पहले उससे जुड़ी सारी जरूरी चीजें जुटानी होंगी.
उनका मानना है कि जब अचानक दरवाजे पर दस्‍तक हो और कोई खास मेहमान, दोस्‍त या कोई अपना दरवाजे पर खड़ा हो और तुरंत कुछ स्‍वादिष्‍ट खाना बनाकर उसे परोसना है तो वो क्‍या किया जाए. वो रसोई में जाते हैं और वहां जो कुछ उपलब्‍ध होता है और जो उपलब्‍ध नहीं भी होता, उन सबके मेल से कुछ ऐसा तैयार कर देते हैं, जिसमें बहुत सारा स्‍वाद होता है और उतना ही प्‍यार भी.
सदियों से चूंकि रसोई कभी भी मर्दों की मुख्‍य कर्मभूमि नहीं थी, इसलिए उस रसोई के भीतर की गतिविधियों को समाज में वो सम्‍मान और ऊंचा दर्जा भी हासिल नहीं हुआ. वरना सोचो तो तरह-तरह के मसालों का जैसा अनोखा मेल सैकड़ों सालों से स्त्रियां करती रहीं और उससे जो अनोखे स्‍वाद रचती रहीं, वैसी रचनात्‍मकता, सृजन और पोषण की क्षमता किसी और कला में कहां हैं.
अभिजीत बनर्जी रसोई और खाने की बात करके वही सम्‍मान और ऊंर्जा दर्जा हासिल किया है, जो संसार की हर स्‍त्री के खाते में सदियों से आना चाहिए था, लेकिन नहीं आया. ये कुक बुक कुकिंग को एक नई दार्शनिक रौशनी में देखने और दिखाने की कोशिश है. 1500 रु. की किताब है. संभव है, सबके लिए इतनी महंगी किताब खरीदना और पढ़ना आसान न हो. लेकिन इस जानकारी के बाद वो कम से कम रसोई और उसके काम को थोड़ा और आदर के साथ तो देख ही सकते हैं.
रसोई, जो न सिर्फ हमारे घरों और बल्कि मनुष्‍य के रचे इस संसार की सबसे सुंदर और सबसे रचनात्‍मक जगह है. वहीं से प्राणों को प्राण मिलता है. जीवन को सांस, देह को बल. जहां उसका आदर नहीं, वहां किसी का आदर नहीं.
Next Story