सम्पादकीय

अब्‍दुलरज्‍जाक गुरनाह को साहित्‍य का नोबेल: काले लोगों को खुद लिखना होगा अपना इतिहास, खुद सुनानी होगी अपनी कहानी

Gulabi
8 Oct 2021 6:54 AM GMT
अब्‍दुलरज्‍जाक गुरनाह को साहित्‍य का नोबेल: काले लोगों को खुद लिखना होगा अपना इतिहास, खुद सुनानी होगी अपनी कहानी
x
तंजानिया के लेखक अब्‍दुलरज्‍जाक गुरनाह को इस वर्ष का नोबेल पुरस्‍कार देने की घोषणा हुई है

मनीषा पांडेय।

तंजानिया के लेखक अब्‍दुलरज्‍जाक गुरनाह को इस वर्ष का नोबेल पुरस्‍कार देने की घोषणा हुई है. गुरनाह हारुकी मुराकामी और जे.एम. कोएट्जी की तरह पॉपुलर तो नहीं हैं, लेकिन साहित्‍य में रुचि रखने वालों और खोज-खोजकर किताबें पढ़ने वालों के लिए इतना अजनबी नाम भी नहीं. 10 से ज्‍यादा उपन्‍यास और कहानियां लिख चुके गुरनाह पहली बार खबरों में तब आए, जब 1994 में उनका उपन्‍यास 'पैराडाइज' बुकर और व्‍हाइटब्रेड पुरस्‍कार के लिए शॉर्टलिस्‍ट हुआ था. उसके बाद 2005 में उनका उपन्‍यास 'डिजरशन' और 2011 में उपन्‍यास 'बाय द सी' भी बुकर और लॉस एंजेल्‍स टाइम्‍स बुक अवॉर्ड के लिए नामित हुआ.


इस पुरस्‍कार के लिए गुरनाह का नाम चुना जाना थोड़ा चौंकाने वाला जरूर है, लेकिन अगर गुरनाह के जीवन और उनके रचनात्‍मक अवदान पर एक नजर डालें तो पाएंगे कि उपन्‍यास और कहानियों में जिस दुनिया की कहानी वो लेकर आए, उसके बारे में बहुत कम लिखा गया है. कॉलोनियल स्‍टडी के विशेषज्ञ गुरनाह की कहानियों में भी नस्‍लीय भेदभाव, पूर्वाग्रह, काले और गोरे, अमीर और गरीब, ताकतवर और कमजोर के सामाजिक और ऐतिहासिक समीकरण को गहराई से देखने की कोशिश है. इसके पहले शायद ही किसी लेखक ने इतने विस्‍तार और बारीकी से इस बारे में लिखा है कि 1960 के दशक में ब्रिटेन में एक काला आदमी होने का क्‍या मतलब होता था.

कहानी जो जंजीबार से शुरू होती है
अब्‍दुलरज्‍जाक गुरनाह का जन्‍म 1948 में जंजीबार में हुआ था. जंजीबार उन दिनों ब्रितानियों की कॉलोनी हुआ करती थी. गुरनाह की शुरुआती स्‍कूली शिक्षा भी कॉलोनियल शिक्षा ही थी. उन्‍होंने उतना और वैसा ही पढ़ा, जितना और जैसा गोरे अंग्रेज अपने गुलामों को पढ़ाना चाहते थे. 1967 की क्रांति, जिसने जंजीबार को ब्रितानी हुकूमत से आजादी दिलाई, के तीन साल पहले 1964 में गुरनाह ब्रिटेन चले गए. वहां उन्‍होंने क्राइस्‍ट चर्च कॉलेज, कैंटबरी से पढ़ाई की. इस कॉलेज की डिग्री उन दिनों यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन दिया करता था. उसके बाद उन्‍होंने यूनिवर्सिटी ऑफ केंट में पढ़ाई की और वहां से अपनी पीएचडी की डिग्री पूरी की.

गुरनाह दुनिया के जिस हिस्‍से से आते हैं, गुलामी का उसका बहुत लंबा इतिहास है. 15वीं शताब्‍दी में ही पुर्तगालियों ने जंजीबार पर कब्‍जा करने की कोशिश की थी. 1822 में गुलामों के
व्‍यापार की प्रथा को खत्‍म करने के नाम पर जंजीबार में पहुंचे ब्रिटिश
रॉयल नेवी के बेड़ों ने उन्‍हें एक तरह की गुलामी से
निकालकर अपना गुलाम बना लिया.
फिर वे नाइजीरिया चले गए और वहां की कानो यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे. वे वहां दो साल तक रहे, 1980 से लेकर 1982 तक . 2004 में ब्रिटेन की केंट यूनिवर्सिटी ने उन्‍हें अपने यहां प्रोफेसर के पद पर बुलाया. वो आज भी उस यूनिवर्सिटी के सबसे पॉपुलर प्रोफेसरों में से एक हैं. वे इस वक्‍त केंट यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएट स्‍टडीज में प्रोफेसर और डायरेक्‍टर हैं.

निर्वासन में जीवन गुजार रहे गुरनाह ने 21 साल की उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था. स्‍वाहिली उनकी मातृभाषा थी, लेकिन अभिव्‍यक्ति का हथियार बनी अंग्रेजी भाषा.

गुरनाह का पहला उपन्‍यास
अब्‍दुलरज्‍जाक गुरनाह का पहला उपन्‍यास 'मैमोरीज ऑफ डिपारचर' 1987 में प्रकाशित हुआ था. यह उपन्‍यास जंजीबार की क्रांति के समय पूर्वी अफ्रीका के एक बेनाम शहर में रह रहे लड़के हसन ओमर की कहानी है. हसन की कहानी वहां से शुरू होती है, जब वह 15 साल का हो चुका है. गुरनाह अपनी कहानी के साथ पाठक को हसन के बचपन और स्‍कूल के दिनों में लेकर जाता है.

निर्वासन में जीवन गुजार रहे गुरनाह ने 21 साल की उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था. स्‍वाहिली उनकी मातृभाषा थी, लेकिन अभिव्‍यक्ति का हथियार बनी अंग्रेजी भाषा.
हसन अपनी जिंदगी से खुश नहीं है. वह उस पिछडे़ जगह की मामूली और गुलामी की जिंदगी से निकलना चाहता है. वह विदेश जाकर पढ़ना चाहता है. अपनी जिंदगी बनाना चाहता है.
इस कोशिश में वह नैरोबी में रह रहे अपने अमीर मामा से मदद मांगने की भी कोशिश करता है. कहानी के इन तमाम संघर्षों और उतार-चढ़ावों के बीच कुछ बहुत से नाजुक हिस्‍से भी हैं. कहानी में जब-जब सलमा का जिक्र आता है. सलमा हसन की कजिन है और हसन उससे प्‍यार करता है. कहानी में उम्‍मीद है, धोखा है, भरोसे का होना और फिर टूट जाना है, छूटना है, लौटना है और फिर हमेशा के लिए चले जाना है. कहानी का अंत उस दृश्‍य के साथ होता है, जब मामा से धोखा खाने और सबसे निराश होने के बाद हसन सलमा को एक चिट्ठी लिखता है और मद्रास जाने वाले जहाज में बैठ जाता है.

उपनिवेशवाद का साहित्‍य
गुरनाह जिस सांस्‍कृतिक परिवेश से आते हैं, वह उनके उपन्‍यासों और कहानियों में जाहिरन रचा-बसा है. लेकिन एक लेखक, आलोचक और प्रोफेसर के बतौर भी उनकी रुचि और प्रमुख कार्यक्षेत्र पोस्‍ट कॉलोनियल राइटिंग ही रहा है. यानि उपनिवेशवाद के बाद ही दुनिया में लिखा गया साहित्‍य. वो दुनिया के जिस हिस्‍से से आते हैं, गुलामी का उसका बहुत लंबा इतिहास है. 15वीं शताब्‍दी में ही पुर्तगालियों ने जंजीबार पर कब्‍जा करने की कोशिश की थी. 1822 में गुलामों के व्‍यापार की प्रथा को खत्‍म करने के नाम पर जंजीबार में पहुंचे ब्रिटिश रॉयल नेवी के बेड़ों ने देखते ही देखते उन्‍हें एक तरह की गुलामी से निकालकर अपना गुलाम बना लिया. 1967 की क्रांति ने आखिरकार जंजीबार को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी दिलवाई.

'पिलग्रिम्‍स वे'- गुरनाह की अपनी कहानी
जंजीबार में अंग्रेजों की औपनिवेशिक सत्‍ता का इतिहास और समाज और इंसानी रिश्‍तों पर पड़ने वाला उसका असर गुरनाह के उपन्‍यास और कहानियों में बार-बार आता है. 1988 में प्रकाशित हुआ गुरनाह का दूसरा उपन्‍यास 'पिलग्रिम्‍स वे' उनकी अपनी जिंदगी की कहानी से प्रेरित है.

तंजानिया का रहने वाला एक नौजवान साठ के दशक के अंत में ब्रिटेन आता है और वह एक अस्‍पताल में काम करता है. इस कहानी में वो सारा संघर्ष, चुनौतियां और पूर्वाग्रह हैं, जो सैकड़ों सालों के गुलामी के इतिहास के बाद गुलाम और मालिक दोनों के मानस में बहुत गहरे धंसी होती हैं.

डॉटी: केंद्रीय स्‍त्री चरित्र वाला इकलौता उपन्‍यास
1990 में प्रकाशित उपन्‍यास 'डॉटी' भी उसी नस्‍लीय पूर्वाग्रहों और भेदभाव की कहानी है जो गुरनाह के उपन्‍यासों में बार-बार आता है. डॉटी एक युवा ब्‍लैक लड़की है, जो ब्रिटेन में रहती है. एक ज्‍यादा सुविधा और संपदा संपन्‍न देश में रहने के बावजूद उसका जीवन आसान नहीं है. उसके निजी जीवन के बहुत सारे संघर्ष हैं, लेकिन इन सबके बीच कोई है, जो उसे अपने पिता, दादा जैसा लगता है. एक ब्‍लैक बूढ़ा आदमी, जिसे वो अकसर लाइब्रेरी में देखा करती थी. उसके अवचेतन ने उस बूढ़े को अपना दादा मान लिया था. उसे हमेशा लगता कि मानो वो उसका कोई बहुत अपना है. लेकिन तभी अचानक उस आदमी की मौत हो जाती है और अखबार में उसकी एक श्रद्धांजलि तक नहीं छपती, बावजूद इसके कि वो आदमी बड़ा डॉक्‍टर था. डॉटी को एहसास होता है कि फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने बड़े हैं, आपने क्‍या कुछ हासिल कर लिया, अगर आप ब्रिटेन में रह रहे एक काले इंसान हैं तो नस्‍लीय पूर्वाग्रह और भेदभाव मृत्‍यु तक आपका पीछा करेंगे. डॉटी को यह भी एहसास होता है कि काले लोगों को अपना इतिहास खुद लिखना होगा, अपनी कहानी खुद सुनानी होगी और अपनी जड़ों को खुद संजोकर रखना होगा. इन गोरे अंग्रेजों पर भरोसा नहीं किया जा सकता.

डॉटी गुरनाह का एकमात्र नॉवेल है, जिसका मुख्‍य चरित्र और नायिका एक स्‍त्री है. एक युवा, दृढ़, बुद्धिमान और प्रतिभाशाली स्‍त्री.
Next Story