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करीब एक हफ्ता पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) सहित 13 राजनीतिक दलों के नेताओं ने एक संयुक्त बयान जारी किया था
राकेश दीक्षित
करीब एक हफ्ता पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) सहित 13 राजनीतिक दलों के नेताओं ने एक संयुक्त बयान जारी किया था. इस बयान में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई थी कि कैसे सत्ताधारी दल जानबूझकर भोजन, पोशाक, आस्था, त्योहारों और भाषा जैसे मुद्दों का "इस्तेमाल कर समाज का ध्रुवीकरण कर रही है. बयान में ये भी मांग की गई कि देश में सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाले अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए. इस बयान पर दस्तखत नहीं करने वालों में एक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) थे. हालांकि उनकी अनुपस्थिति कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है. धर्मनिरपेक्षता पर पार्टी का अस्पष्ट रवैया हमेशा से ही बहस का मुद्दा रहा है, खास तौर पर ये बहस तब सामने अई थी जब आप 2015 में दिल्ली में सत्ता में आई थी और एक बार फिर ये बहस जोर-शोर से होने लगी जब आप की 2020 में फिर से सत्ता में वापसी हुई थी
AAP राष्ट्रवाद और देशभक्ति जैसे दो बेहद ही भावनात्मक मुद्दों पर बीजेपी को पछाड़ने की जबरदस्त कोशिश में लगी है. अब इस कोशिश के तहत आप एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी होने का ढोंग छोड़ कर बहुसंख्यकवादी राजनीति के प्रतिस्पर्धी प्रदर्शन में लगी है. लेकिन ये प्रदर्शन अमन-शांति के दौरान उतना ध्यान नहीं खींच पाता है. बहरहाल, मौजूदा मुश्किल दौर में जहांगीरपुरी में बुलडोजर ने कई मुसलमानों की आजीविका के साधनों को बेरहमी से तबाह कर दिया. ऐसे वक्त में दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी का पीड़ितों के साथ न खड़ा होना केजरीवाल के पाखंड को स्पष्ट रूप से उजागर करती है.
केजरीवाल धार्मिकता के सार्वजनिक प्रदर्शन से काफी आगे निकल गए हैं
दंगा प्रभावित क्षेत्र में मुख्य रूप से मुसलमानों की आबादी है और यह आबादी लगातार दो विधानसभा चुनावों में आप के साथ खड़ी रही. यहां की मुस्लिम आबादी को पार्टी के नेताओं से कम से कम ये तो उम्मीद थी कि उनके दुख भरे घड़ी में वे उनके साथ खड़े होते. आप से जो वो उम्मीद कर रहे हैं वो बतौर वफादार मतदाता होने के नाते कर रहे हैं, न कि हिंदू या मुस्लिम के. यही मतदाता पहले हिंदुत्व के प्रति आप के झुकाव को लेकर थोड़ा परेशान जरूर था, लेकिन फिर भी वे यह मानते हैं कि बहुसंख्यक तुष्टीकरण पर बीजेपी की बराबरी करने के लिए पार्टी अपने मतदाताओं को असहाय रूप से बीजेपी के क्रोध, प्रायोजित बुलडोजर का सामना करने के लिए नहीं छोड़ सकती है. उनका भरोसा अब टूट चुका है.
जैसे-जैसे आप ने हिंदू बहुसंख्यक प्रतीकों से नज़दीकी बढ़ाई वैसे-वैसे ये मुसलमानों के हितों की वकालत करने की रणनीति से भी दूरी बनाती गई. केजरीवाल धार्मिकता के सार्वजनिक प्रदर्शन से काफी आगे निकल गए हैं. अगर दिल्ली के मुख्यमंत्री ने खुद को सिर्फ इतना तक ही सीमित रखा होता तो उन्हें माफ किया जा सकता था कि उन्होंने तो सिर्फ धर्म और राजनीति का मिश्रण ही सामने रखा है. आखिर मजहब और सियासत के कॉकटेल को लंबे समय से भारत में सभी राजनीतिक दलों की तरफ से वैधता मिल चुकी है.
राहुल गांधी और ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक सभी ये सुनिश्चित करते हैं कि उनकी मंदिर-यात्रा कैमरों की चकाचौंध में हो. कोई भी अपनी पहचान "हिंदू विरोधी" के रूप में नहीं कराना चाहता क्योंकि ये आजकल की भारतीय राजनीति में अंतिम कलंक है. केजरीवाल कभी भी राहुल गांधी की तरह हिंदुत्व के मुखर आलोचक नहीं रहे. वे सार्वजनिक रैलियों में 'हिंदू-मुस्लिम' राजनीति के लिए कभी-कभी मोदी की निंदा कर दिया करते थे. लेकिन वह 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले था, जिसने मोदी सरकार को दूसरी बार सत्ता में वापस लाया.
आप अब एक वैकल्पिक राजनीति वाली पार्टी होने का दिखावा नहीं करती है
चुनाव परिणाम से आप ने दो सबक जल्दी-जल्दी सीखे. एक, भारतीय राजनीति का वैचारिक केंद्र-स्थल अब दक्षिणपंथ की तरफ स्थानांतरित हो गया है, और दूसरा, निकट भविष्य में भारत एक बीजेपी-प्रधान सिस्टम के अधीन होगा. सार्वजनिक क्षेत्र में आप ने हिंदुत्व के बहुसंख्यकवादी प्रतीकों को वैध ठहराया और इस पर जो भी नैतिक आपत्तियां दर्ज की गई उसकी वजह से पार्टी की विस्तार योजनाओं को काफी मदद मिली. कम से कम पार्टी का शीर्ष नेतृत्व तो यही सोचता है. राम मंदिर के विषय, अनुच्छेद 370 और सीएए को खत्म करने में पार्टी के मुखर समर्थन से उसकी सोच साफ तौर से दिखाई देती है.
'आप' की महत्वाकांक्षा है कि 'न्यू इंडिया' में कम से कम वो कांग्रेस की बराबरी तो कर ही ले. कमजोर होती कांग्रेस की राजनीतिक जगह पर कब्जा जमाने की चाहत में आप खुद को बीजेपी-प्रधान व्यवस्था में वैकल्पिक राष्ट्रीय ध्रुव के रूप में उभारने की कोशिश कर रही है. आप ने खुद के लिए बीच मैदान पर एक ऐसा पिच तैयार किया है जिस पर दक्षिणपंथी मतदाता अपनी विचारधारा से समझौता किए बिना उसके लोकलुभावन वादों के लिए मतदान कर सकते हैं. जहां तक मुस्लिम मतदाता की बात है तो वह कांग्रेस को बीजेपी से मुकाबला करने के लिए एक कमजोर पार्टी के रूप में चित्रित करती है. इस रणनीति ने कम से कम दिल्ली में अपना अच्छा काम किया, जहां लगभग 70 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस के बजाय आप को अपना वोट दिया. गौरतलब है कि सीएए विरोध के मुद्दे पर आप के मुकाबले कांग्रेस ने ज्यादा समर्थन दिया था. आप को अतीत के किसी भी "भारत के विचार" से कोई भावनात्मक लगाव नहीं है. जबकि धर्मनिरपेक्ष दल, विशेष रूप से कांग्रेस, उस "भारत के विचार" को जनता के बीच उठाने की भरपूर कोशिश कर रही है, लेकिन इसका आम जनता पर बहुत कम प्रभाव दिख रहा है. यकीनन, आप की तरह अब किसी भी भारतीय पार्टी की इन विचारों में उतनी दिलचस्पी नहीं है.
आप अब एक वैकल्पिक राजनीति वाली पार्टी होने का दिखावा नहीं करती है और कहती है कि यह केवल एक वैकल्पिक शासन मॉडल वाली पार्टी है. और यह ईमानदार शासन और सभी के लिए कल्याण के दिल्ली मॉडल को आक्रामक तरीके से पेश करती है, ठीक उसी तरह जिस तरह करीबन एक दशक पहले बीजेपी 'विकास' के गुजरात मॉडल की मार्केटिंग किया करती थी. आप की योजना में ऐसा लगता है कि भविष्य में उनके लिए मुस्लिम मतदाता अब नगण्य हो गए हैं. एक मीडिया रिपोर्ट में आप नेता के हवाले से ये कहा गया कि जहांगीरपुरी के मुसलमानों की मदद करने के लिए पार्टी उतनी इच्छुक नहीं है. हम अल्पसंख्यकों के डर को शांत करने के लिए कुछ नहीं कर सकते. 2020 के दंगों के बाद ऐसा करने के अवसर मिले हैं. लेकिन एक समाज के रूप में सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए जितनी कड़ी मेहनत की जरूरत है, उतना करने को हम तैयार नहीं हैं.
साभार : TV 9
Rani Sahu
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