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- कांग्रेस नहीं, भाजपा...
निशिकांत ठाकुर: आखिर पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपना जलवा कायम रखा। अब कोई कितना भी विश्लेषण क्यों न करे, कितना ही आरोप-प्रत्यारोप क्यों न लगाए, जीत तो जीत ही है, चाहे वह एक मत से ही क्यों न हुई हो। दूसरी बात यह भी कि हारने वाले ने भी तो मेहनत की थी। स्वाभाविक है, वह अपनी हार से बिलबिलाएगा ही। हर चुनाव में ऐसा होता है। इतिहास इसका गवाह है। भविष्य में भी ऐसा होगा। चार राज्यों में भाजपा ने अपने शासन को बरकरार रखा। पंजाब तो पहले भी भाजपा का नहीं था, इस बार भी नही हुआ और 'आप' जैसी नई पार्टी ने दिल्ली की तरह सत्तारूढ़ कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया।
अब पांचों राज्यों में हुए चुनाव और उनके परिणामों की समीक्षा शुरू होगी और आगामी चुनाव के लिए योजना और रणनीति बनाई जाएगी। सबसे पुरानी और देश के लिए एक-से-एक राजपुरुष देने वाली कांग्रेस इस चुनाव में बहुत पिछड़ गई। ऐसा क्यों हुआ? क्या और कहां कमियां रहीं? इन पर मंथन के लिए कांग्रेस वर्किंग कमेटी की पिछले दिनों बैठक भी हुई, जिसमें तरह—तरह के मुद्दों पर विमर्श हुआ और इस चुनाव में हार तथा उसके गिरते प्रदर्शन के महत्वपूर्ण कारणों का पता लगाने का प्रयास किया गया।
चारों तरफ से आवाज आ रही थी कि कांग्रेस के प्रदर्शन में गिरावट के लिए गांधी परिवार दोषी है, लेकिन इस आरोप को पार्टी के शीर्ष नेताओं ने सिरे से खारिज कर दिया। हालांकि, स्वयं सोनिया गांधी ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में प्रस्ताव रखा था कि यदि पार्टी को ऐसा लगता है तो वह खुद दोनों संतानों — राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ पार्टी पद से हटने के लिए हमेशा तैयार हैं।
आज भले ही कांग्रेस की देश के सियासी पिच पर हालात बुरी नजर आ रही हो, पर देश को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद कराने में इस पार्टी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। आजादी के समय और उसके बाद तक लोग अपने आपको कांग्रेस से जुड़ा बताने पर गर्व महसूस करते थे। कांग्रेस एक पार्टी के साथ एक विचारधारा थी। भारत में राजनीतिक आंदोलन की शुरुआती परंपरा की नींव आजादी से पूर्व रखी गई थी। इंडियन नेशनल कांग्रेस का इसमें खास योगदान है।
कांग्रेस देश की पहली और बड़ी राजनीतिक पार्टी है। आजादी के बाद के करीब 75 साल में देश में सबसे ज्यादा इसी राजनीतिक दल की सरकार रही है। देश का संविधान बनने से लेकर देश की हर व्यवस्था में कांग्रेस की छाप दिखती है। देश के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण नेता, चाहे वह आजादी के आंदोलन से जुडे हों या फिर आजादी के बाद सभी की राजनीतिक जड़ें कांग्रेस से जुड़ी हुई थीं। जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस से लेकर अन्य कई बड़े नामों ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत इसी कांग्रेस से की थी।
देश की इस सबसे पुरानी पार्टी की स्थापना का श्रेय किसी हिंदुस्तानी को नहीं, बल्कि एक अंग्रेज एओ ह्यूम को जाता है, जिन्होंने सन् 1885 में इसकी स्थापना की थी। कांग्रेस की स्थापना का मूल उद्देश्य यह था कि फिर कभी सन् 1857 जैसी क्रांति न हो। कांग्रेस अपने गठन के बाद से अब तक कई बार टूटी– बिखरी, फिर बार बार गिरकर सत्ता में देश में अपना राजनीतिक वजूद कायम रखती रही है ।
अब सबसे नई पार्टी आम आदमी पार्टी के विषय में कुछ जानकारी कर लेते है। वर्ष 2011 में इंडिया अगेंस्ट करप्शन नामक संगठन ने अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए जन लोकपाल आंदोलन के दौरान भारतीय राजनीतिक दलों द्वारा जनहित की उपेक्षा के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी जनलोकपाल आंदोलन को राजनीति से अलग रखना चाहते थे, जबकि अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों की यह राय थी कि पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा जाए।
इसी उद्देश्य के तहत पार्टी पहली बार दिसंबर 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में झाड़ू चुनाव चिह्न के साथ चुनाव मैदान में उतरी। पार्टी ने चुनाव में 28 सीटों पर जीत दर्ज की और कांग्रेस के समर्थन से दिल्ली में सरकार बनाई। अरविंद केजरीवाल ने 28 दिसंबर, 2013 को दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री बने। 49 दिनों के बाद 14 फ़रवरी, 2014 को विधानसभा द्वारा जन लोकपाल विधेयक प्रस्तुत करने के प्रस्ताव को समर्थन न मिल पाने के कारण अरविंद केजरीवाल की सरकार ने त्यागपत्र दे दिया।
दिल्लीवासियों को वर्ष 2015 में एक बार फिर चुनाव का सामना करना पड़ा और इस बार केजरीवाल के नेतृत्व में आप ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए दिल्ली विधानसभा की 70 में 67 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की। इस चुनाव में केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा सिर्फ तीन सीटें जीत सकी, जबकि कांग्रेस का तो यहां खाता भी नहीं खुल पाया। इसी तरह इस बार पंजाब में कमजोर कांग्रेस को बुरी तरह रौदते हुए 117 में 90 सीटों पर 'आप' ने कब्जा करते हुए मुख्यमंत्री भगवंत मान के नेतृत्व में सरकार का गठन कर लिया। निःसंदेह आम आदमी पार्टी की इस ऐतिहासिक जीत पर कई संस्थाओं द्वारा अनुसंधान किया जा रहा होगा।
अब उत्तर प्रदेश के दो बड़े दलों— बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का भी इतिहास जानने की कोशिश करते है। बसपा का प्रारंभिक काल सर्वश्री कांशीराम की नीतियों के कारण उत्तर प्रदेश में उस पार्टी की सरकार बनी और मायावती ने मुख्यमंत्री का पदभार संभाला। लेकिन, लचर नीतियों के कारण धीरे—धीरे पार्टी अपना अस्तित्व खोती चली गई। फिर वर्ष 2022 के चुनाव में पूरे उत्तर प्रदेश में केवल एक सीट पर सिमटकर तो लगभग अपना अस्तित्व ही खत्म कर लिया।
अब कई समीक्षक इसकी भी एक्स-रे करेंगे। समाजवादी पार्टी की स्थापना एक शिक्षक मुलायम सिंह यादव ने 4 अक्टूबर, 1992 को की थी। समाजवादी पार्टी के संस्थापक व संरक्षक मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री और देश के पूर्व रक्षा मंत्री रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव वर्तमान में इस दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।
2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से बुरी तरह चुनाव हारने के बाद पार्टी का फिर से चुनाव में जीत हासिल करना बड़ी टेढ़ी खीर थी, लेकिन समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी ने तथा अन्य दलों के गठबंधन ने जनता से अपने अस्तित्व को बचाए रखने की अपील का लाभ लेते हुए लगभग सवा सौ सीटों पर अपना कब्जा करके यह साबित कर दिया कि अगले चुनाव में यह दल और जोरदारी से उत्तर प्रदेश में भाजपा को टक्कर दे सकती है साथ ही अपने वोट प्रतिशत में भी दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करके जनता में अपना विश्वास बढ़ाने का संकेत दिया है।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की स्थापना साल 1980 में हुई, लेकिन इसके मूल में श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 में निर्मित भारतीय जनसंघ ही है। इसके संस्थापक अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी रहे, जबकि मुस्लिम चेहरे के रूप में सिकंदर बख्त महासचिव बने। वर्ष 1984 के चुनाव में भाजपा के खाते में मात्र दो सीटें थीं, लेकिन वर्तमान में सर्वाधिक राज्यों में भाजपा की खुद की या फिर उसके समर्थन से बनी हुई सरकारें हैं।