सम्पादकीय

आधार कार्ड और चुनाव सुधार

Subhi
17 Dec 2021 2:19 AM GMT
आधार कार्ड और चुनाव सुधार
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केन्द्रीय मन्त्रिमंडल ने चुनाव आयोग की सिफारिशों के आधार पर मतदाता कार्डों स्वैच्छिक रूप से आधार कार्ड से जोड़ने पर सहमति दे दी है। इसके साथ ही 18 वर्ष पूर्ण करने वाले युवाओं को भी पांच साल में चार बार अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज कराने की छूट होगी |

केन्द्रीय मन्त्रिमंडल ने चुनाव आयोग की सिफारिशों के आधार पर मतदाता कार्डों स्वैच्छिक रूप से आधार कार्ड से जोड़ने पर सहमति दे दी है। इसके साथ ही 18 वर्ष पूर्ण करने वाले युवाओं को भी पांच साल में चार बार अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज कराने की छूट होगी। इसके साथ ही सेना में काम करने वाली महिला फौजियों के पतियों को भी उनके नाम पर वोट डालने की अनुमति प्रदान की जायेगी। इसके लिए सरकार जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 व आधारकार्ड अधिनियम 2016 में संशोधन करेगी। आधार कार्ड से मतदाता कार्ड को जोड़े जाने से दोहरे मतदान की समस्या को समाप्त करने में सफलता मिलेगी और मतदाता सूची अधिक पारदर्शी होगी। परन्तु हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आधार कार्ड किसी भी व्यक्ति के केवल निवास का प्रमाण पत्र होता है, उसकी राष्ट्रीयता का नहीं। इसका उपयोग सरकारों द्वारा शुरू की गई विभिन्न योजनाओं को लाभ प्राप्त करने के लिए मुख्य रूप से किया जाता है। इसके बावजूद चुनाव आयोग ने यदि इस आशय का सुझाव दिया है तो उसने इस सम्बन्ध में समुचित मेहनत की होगी। इन बदलावों को चुनाव सुधार कहना ज्यादा प्रासंगिक इसलिए नहीं है क्योंकि इससे भारत की चुनाव प्रणाली की मुख्य खामियों का विशेष लेना-देना नहीं है। यह जगजाहिर हकीकत है कि भारत में चुनाव लगातार इस कदर महंगे होते जा रहे हैं कि कोई साधारण सुविज्ञ नागरिक इनमें खड़े होने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकता। चुनावों पर धन का प्रभाव इतना बढ़ चुका है कि भारत का प्रजातन्त्र कभी-कभी धनतन्त्र का दास लगने लगता है। स्वस्थ लोकतन्त्र के ​लिए यह स्थिति किसी भी सूरत में अच्छी नहीं कही जा सकती। इसका तोड़ ढूंढ़ने के लिए अभी तक देश में कई बार चुनाव सुधार समितियों या आयोगों का गठन भी हो चुका है मगर नतीजा ढाक के तीन पात की तरह ही रहा है। इसकी मुख्य वजह राजनीतिक पार्टियां हैं जो यथास्थिति में बदलाव नहीं चाहती हैं। चालू व्यवस्था में इनके हित इस तरह गुंथ चुके हैं कि चुनाव सुधारों का नाम लेते ही इनके पसीने छूटने लगते हैं। जबकि लोकतन्त्र में स्वतन्त्र व निर्भीक व बिना लालच के मताधिकार का प्रयोग होना जनता की सरकार बनने की पहली शर्त होती है। बेशक संविधान में यह उल्लिखित है कि कोई भी चेतन वैध नागरिक किसी भी चुनाव में खड़ा हो सकता है मगर व्यावाहरिक रूप में हम जो देखते हैं कि केवल बड़े-बड़े धनाड्य लोग ही इस दम पर विभिन्न पार्टियों से टिकट पाने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं उनकी निजी वित्तीय हालत मजबूत होती है। चुनावों में अपराधी छवि के लोगों के प्रवेश को कानूनी प्रावधान करके रोकने के भी विभिन्न उपाय किये गये हैं और वे कुछ मायनों में भी कारगर भी रहे हैं मगर धन से छुटकारा दिलाने का अभी तक कोई उपाय नहीं किया गया है। आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि स्व. इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ 1974 में शुरू किया जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन चुनाव सुधारों के पक्ष में भी था और जिस सम्पूर्ण क्रान्ति का नाम देकर यह आंदोलन चलाया गया था उसमें चुनावों के अधिक खर्चीला हो जाने का भी एक प्रमुख मुद्दा था। इस घटना को भी अब 45 साल गुजर चुके हैं और हम जहां के सतहाें पर ही खड़े हुए हैं। जय प्रकाश नारायण ने उस समय बम्बई उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री वी.एम. तारकुंडे के नेतृत्व में एक चुनाव सुधार समिति भी बनाई थी मगर इस आन्दोलन की समाप्ति और इमरजेंसी लग जाने के बाद के हुए चुनावों में 1977 में जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार गठित हुई तो सबसे पहले उसने तारकुंडे समिति की रिपोर्ट को ही परे करते हुए तत्कालीन अवकाश प्राप्त मुख्य चुनाव आयुक्त पी.एल. शकधर के नेतृत्व में एक चुनाव आयोग गठित कर दिया और इसकी रिपोर्ट को भी बाद में अलमारी में बन्द कर दिया गया। संपादकीय :लड़कियों की शादी की उम्रजय हिन्द से बना 'बांग्लादेश'ओमीक्रोन का बढ़ता खतराशाखाएं बंद करने के लिए क्षमा...कश्मीर में चुनाव परिसीमनआतंक षड्यंत्र अभी जारी हैतारकुंडे समिति ने सरकारी खर्च से चुनाव कराने का पूरा खाका रखा था। बाद में और भी कई चुनाव सुधार समितियां बनी जिनमें गोस्वामी समिति का उल्लेख किया जाना आवश्यक है क्योंकि इसकी रिपोर्ट में कुछ मूल सुधार करने की सिफारिश थी। इसके बाद मुख्य चुनाव आयुक्त बने टी.एन. शेषन ने कोरी वाहवाही बटोरने के लिए चुनाव प्रणाली के स्थान पर चुनाव प्रबन्धन में ऐसे संशोधन किये कि उनसे लोकतन्त्र के सबसे बड़े पर्व या जश्न कहे जाने वाले चुनाव किसी तेरहवीं के मातम की तरह बदलने लगे। उन्होंने चुनाव प्रबन्धन में आम आदमी की शिरकत को न्यूनतम कर दिया। मेरा आशय किसी भी रूप में स्व. शेषन की नीयत पर सवाल खड़ा करने का नहीं है बल्कि यह है कि उन्होंने भी बुराई की जड़ पर हाथ डालने का कोई प्रयास नहीं किया। चुनाव प्रणाली में संशोधन की जरूरत पिछले चालीस साल में पनपी विभिन्न मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों को किसी भी सूरत में रास नहीं आती है क्योंकि इन दलों का ढांचा पूरी तरह किसी खानदानी या कदीमी परचून की दूकान की तरह होता है जिनमें बाप की गद्दी बेटा या बेटी संभालते रहते हैं। प्रत्याशियों का चयन करने का मापदंड ये नेता स्वयं तय करते हैं और कहीं कहीं तो प्रत्याशी बनने की शर्त पहले ही नेता की मुट्ठी गर्म करने तक की होती है। इसीलिए इस समस्या का सिरा राजनीतिक दलों के तन्त्र से जुड़ा हुआ है। जरूरत इस बात की है हम व्यापक आधारभूत चुनाव सुधारों के बारे में सोचें।

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