सम्पादकीय

आंदोलन का एक साल

Gulabi
26 Nov 2021 5:19 AM GMT
आंदोलन का एक साल
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आज किसान आंदोलन एक वर्ष का हो गया
दिव्याहिमाचल.
आज किसान आंदोलन एक वर्ष का हो गया। आंदोलन अब भी जारी है। आज ही 26 नवंबर को 'संविधान दिवस' है। 1949 में इसी दिन संविधान को स्वीकृति दी गई थी और 26 जनवरी, 1950 को भारत पूरी तरह गणतांत्रिक और संवैधानिक देश बन गया था। उसकी पवित्रता को भी नमन् करना चाहिए, जिसकी बदौलत किसान या कोई भी वर्ग आंदोलन कर पा रहा है। आज एक तरफ किसान संगठन विरोध-प्रदर्शन के नाम पर अराजकता फैला रहे हैं। हालांकि ऐसा करार दिए जाने पर कथित किसान नेता चिढ़ते दिखाई दिए हैं। उन्हें अपना आंदोलन सर्वशक्तिमान और ईमानदार लगता है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री पर कोई भरोसा नहीं हैै। तो उनकी मांगें कौन मानेगा और लागू करेगा? किसान आंदोलन का एक अघोषित हिस्सा निहंग जत्थेबंदी भी रहे हैं। उन्होंने घोषणा की है कि जिस दिन संसद मंे कृषि कानून वापसी का नया विधेयक पारित हो जाएगा, उसी दिन वे नगर-कीर्तन करते हुए पंजाब लौट जाएंगे, क्योंकि भारत सरकार ने उनकी बुनियादी मांग मान ली है।
वे इसे 'खालसा पंथ' की जीत करार दे रहे हैं। संविधान के अनुच्छेदों में विरोध-प्रदर्शन और आंदोलन के अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या है, लेकिन ये प्रावधान नहीं हैं कि विदेशों में भी ऐसा किया जा सकता है। आंदोलन की सालगिरह पर अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, ऑस्टे्रलिया और नीदरलैंड्स सरीखे देशों में भी किसान आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन किए जाएंगे। कुछ जगह भारतीय उच्चायोग और दूतावास के बाहर प्रदर्शन किए जाने की ख़बर है। किसान आंदोलन में विदेशों के हस्तक्षेप और भारत के किसान संगठनों की मौन स्वीकृति के मायने क्या हैं? चूंकि ये सभी देश लोकतांत्रिक हैं, लिहाजा भारत के मित्र-देश होने के बावजूद वहां भारत-विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं। यही लोकतंत्र और संविधान की गरिमा है। हमारे किसान भाइयों को भी समझना चाहिए कि विरोध या टकराव ही सभी समाधानों का रास्ता नहीं होता। सरकार इतनी दुर्बल नहीं होती, लेकिन वे जनवादी जरूर होती हैं, लिहाजा आंदोलनों की परिणति अक्सर सुखद रही है। बहरहाल कुछ देश ऐसे हैं, जहां खालिस्तान-समर्थक तत्त्व और नेता आज भी सक्रिय हैं और उनके खिलाफ भारत के शहरों में कानूनी केस दर्ज हैं।
यदि किसान आंदोलन में खालिस्तान की परोक्ष घुसपैठ की बात कही जाती है, तो आंदोलित किसान नेताओं समेत कुछ राजनीतिक दलों को भी आपत्ति है। इसके मद्देनजर सियासी तौर पर व्यंग्य कसे जाते रहे हैं कि सरकार के समर्थकों ने किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, मवाली, आंदोलनजीवी और परजीवी आदि विशेषण दिए हैं। कुछ हद तक ये विशेषण गलत भी नहीं हैं। इसकी अलग व्याख्या की जा सकती है। किसान आंदोलन राजनीतिक रहा है, यह आरोप भी सही है, लेकिन विदेशों में भारतीय दूतावासों पर प्रदर्शन होगा, तो उससे हासिल क्या होगा? क्या किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को गारंटी कानून बनाए जाने की मांग मान ली जाएगी? क्या इस तरह भारत सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है? केंद्रीय कैबिनेट ने तीनों कृषि कानूनों की वापसी का बिल तो मंजूर कर लिया है। संसद में पारित होकर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर किए जाने और अधिसूचना जारी होने की औपचारिकताएं शेष हैं। विदेशों में किसान आंदोलन के समर्थन के नाम पर प्रदर्शन करना क्या भारत-विरोधी प्रयास नहीं है? क्या यह देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की छवि को क्रूर और किसान-विरोधी करार देने की कोशिश नहीं है? एमएसपी को लेकर विरोधाभासी विश्लेषण हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित कमेटी के सदस्य रहे और शेतकारी संगठन के अध्यक्ष डॉ. अनिल घनवट का मानना है कि एमएसपी देना संभव ही नहीं है। कृषि को खुला बाज़ार दिया जाना चाहिए। विशेषज्ञों का ही एक अन्य तबका मानता है कि एमएसपी की गारंटी से बोझ बढ़ेगा।
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