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कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुए आंदोलन को एक साल पूरा हो गया। हालांकि सरकार ने अब इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी है
कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुए आंदोलन को एक साल पूरा हो गया। हालांकि सरकार ने अब इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी है, संसद में इसकी विधिवत समाप्ति की भी तैयारियां कर ली गई हैं, मगर किसान आंदोलन का रुख नरम नहीं दिखाई दे रहा। शुरू में कयास लगाए जा रहे थे कि अगर सरकार इन कानूनों को वापस ले लेगी, तो किसान अपने घरों को लौट जाएंगे। मगर सरकार इस विषय को टालती रही और आंदोलन जड़ें पकड़ता रहा। पिछले एक साल से किसान दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले बैठे हैं।
यह आंदोलनों के इतिहास में पहला ऐसा आंदोलन है, जो इतना लंबा खिंचा है। अभी इसके और खिंचने की संभावना है। इस एक साल में किसानों ने हर मौसम की मार सही, हर तरह की तकलीफें सहीं, इस दौरान करीब सात सौ किसानों की मौत भी हो गई। उन्हें डिगाने की कोशिशें भी कम नहीं हुर्इं। सरकार की तरफ से भी उन्हें बदनाम करने के कई हथकंडे अपनाए गए। इस आंदोलन में सैकड़ों किसानों की गिरफ्तारियां हुई, उनमें से कई आज तक जेलों में बंद हैं। किसानों के रास्तों पर कीलें ठोंकी गर्इं, गड््ढे खोदे गए, बिजली-पानी की सुविधाएं रोकी गर्इं। फिर भी वे आंदोलन से हटे नहीं। उनमें से बहुत सारे किसानों ने आज तक अपने घर का मुंह भी नहीं देखा है।
सरकार के कृषि कानूनों को वापस लेने से स्वाभाविक ही किसानों में उत्साह और जोश है। आंदोलन के एक साल पूरा होने पर विभिन्न जगहों से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की सीमाओं पर जुटे। उन्होंने घोषणा की है कि जब तक उनकी सारी मांगें नहीं मान ली जातीं, तब तक वे घर वापस नहीं लौटेंगे। तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के अलावा किसान शुरू से न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने वाला कानून बनाने की मांग करते रहे हैं। उनकी वह मांग अभी कायम है। इसके अलावा कई और मांगें इसमें जुड़ गई हैं।
बिजली दरों को लेकर कानून बनाने, मारे गए किसानों को मुआवजा देने, गिरफ्तार किसानों की रिहाई और लखीमपुर खीरी में किसानों को कुचलने वाले मुख्य आरोपी के पिता और केंद्र में गृह राज्यमंत्री को पद से हटाने आदि की मांगें भी उसमें जुड़ती गई हैं। ये मांगें सरकार को थोड़ी मुश्किल में डाल सकती हैं। कृषि कानूनों पर तो सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही रोक लगा दी थी, इसलिए उन पर अडिग रहने का सरकार के लिए कोई मतलब नहीं रह गया था। पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने को लेकर वह शुरू से आज तक चुप्पी साधे हुई है।
किसान आंदोलन के इतना लंबा खिंचते जाने की बड़ी वजह यह थी कि सरकार उनसे व्यावहारिक ढंग से बात करने के बजाय बदनाम और परेशान करके आंदोलन खत्म कराने का प्रयास करती अधिक देखी गई। अब किसान उत्साहित हैं और उन्हें यकीन हो चला है कि सरकार उन्हें दमन के जरिए तितर-बितर नहीं कर सकती। इस आंदोलन की बड़ी खूबी यही रही कि तमाम साजिशों और दबावों के बावजूद यह हिंसक नहीं हुआ, लोकतांत्रिक मर्यादा का पालन करते हुए जारी रहा। अब भी अगर सरकार उनसे दूरी बनाए रखेगी, तो यह आंदोलन और लंबा खिंचेगा। किसानों की बाकी मांगों पर व्यावहारिक ढंग और खुले मन से सरकार को बातचीत के लिए आगे आना चाहिए। इसमें खुद प्रधानमंत्री कार्यालय को पहल करनी चाहिए, तभी इस आंदोलन को शांत करने में कामयाबी मिल सकती है।
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