सम्पादकीय

एक युद्ध जिसे आज याद किया जाए

Gulabi
14 March 2022 8:42 AM GMT
एक युद्ध जिसे आज याद किया जाए
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इस विस्तारवाद ने 19वीं शताब्दी के आसपास एक ऐसे राष्ट्र को आकार दिया, जो अपने विस्तार की शक्ति पर भरोसा करता था
क्या इस बार फिर इतिहास खुद को दोहराएगा? दुनिया फिर आज से पांच-छह सौ साल पीछे जाएगी? यूक्रेन-रूस युद्ध के परिप्रेक्ष्य से सोचा जाए तो जवाब होगा- हां! इसके पीछे वजह है. सोलहवीं शताब्दी के ईवान चतुर्थ वसीलयेविच से लेकर व्लादिमीर पुतिन तक, रूस का विस्तारवाद इतिहास भी रहा है. इतिहास के कई जानकार रूस द्वारा यूक्रेन पर किए गए युद्ध और उसके यूक्रेन विरोधी रुख को उसी विस्तारवादी नीति की परिणति मानते हैं.
इस विस्तारवाद ने 19वीं शताब्दी के आसपास एक ऐसे राष्ट्र को आकार दिया, जो अपने विस्तार की शक्ति पर भरोसा करता था. यही वजह है कि इस सदी के काफी पहले रूस की अंतिम शासक महारानी व रूस की सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली महिला नेता कैथरीन द ग्रेट ने मजाकिया बयान दिया था, "यदि मैं अपनी सीमाओं की रक्षा करना चाहती हूं, तो मेरे पास उन्हें बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है." इसी अवधि में रूस ने कई हजार वर्ग किलोमीटर का विशाल विस्तार दर्ज किया था. उस समय यह देश कितना बड़ा होना चाहिए? दरअसल, पृथ्वी की भूमि का छठवां भाग इसी देश का था. लेकिन, रूस को अपना आकार इतना बढ़ा कर क्या हासिल हुआ?
इतिहास का यह अंश प्रासंगिक
क्या रूस पश्चिमी देशों से आगे निकल सका? उत्तर खोजने के लिए पीटर द ग्रेट (इतिहास के सबसे विश्व-विख्यात राजनीतिज्ञों में से एक जिसने 18वीं शताब्दी में रूस के विकास की दिशा को सुनिश्चित किया था), साम्यवाद के उदय, रूसी क्रांति, मिखाइल गोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका (सोवियत संघ में 80 के दशक के मध्य में मिखाइल गोर्बाचेव द्वारा स्थापित एक कार्यक्रम), ग्लासनोस्ट (एक सोवियत नीति जिसका उद्देश्य सरकारी संस्थानों व क्रियाकलापों में पारदर्शिता को बढ़ाना था) आदि के इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं है. फिर भी, उस इतिहास के एक अंश को याद रखना महत्त्वपूर्ण है. इसका संबंध भी युद्ध से है. लेकिन, उस युद्ध से जिसे भुला दिया गया है, यह है उस युद्ध की कहानी:
यह कहानी स्टालिन से जुड़ी है. जी हां, जोसेफ विसारिओनोविच स्टालिन, सोवियत संघ का वर्ष 1922 से 1953 तक का नेता, जिसके बारे में कहा जाता है कि स्टालिन साम्यवादी नेता ही न था, बल्कि तानाशाह भी था. वर्ष 1936 में 13 रूसी नेताओं पर स्टालिन को मारने की साजिश का आरोप लगाया गया था, जिन्हें बाद में मृत्यु दंड दिया गया.
युद्ध से जुड़ी घटना वर्ष 1939 के आसपास की बताई जाती है. तब तक रूस सोवियत महाशक्ति बन चुका था. प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो गया था. दूसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी. रूस अपनी नीति को लागू कराने में देर कर रहा था. लेकिन, वर्ष 1939 से कुछ साल पहले, उत्तरी चीन में शक्तिशाली विस्फोट में एक बड़ा पुल गिर गया था. घटना चीन में असंतोष की पृष्ठभूमि थी. इसलिए माना जा रहा है कि विस्फोट चीन में आंतरिक विवाद के कारण हुआ है. लगभग हर आदमी यही बात कर रहा था और वहां तनाव की स्थिति बनी हुई थी.
साम्राज्यवादी नीति की कुटिलता
लेकिन, बाद में बताया गया कि इस विस्फोट के पीछे जापान का हाथ था. इस विस्फोट में चीन का नाम आए, इसके लिए जापान ने रणनीति के स्तर पर विशेष तैयारी की हुई थी, ताकि ऐसा करने वाले सभी चाइनीज नजर आएं. दरअसल, कहा जाता है कि उस समय जापान इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देने में कुख्यात था.
लेकिन, जापान ने ऐसा क्यों किया? दरअसल, जापान चीन के मंचूरिया क्षेत्र में घुसपैठ करना चाहता था और उसके लिए वह कोई वजह ढूंढ़ रहा था.
आज बहुत से लोग युद्धों के पहले अपनाई जाने वाली दुष्टताओं के बारे में नहीं जानते होंगे. लेकिन, उस समय जापान द्वारा अपनाई गई यह रणनीति इतनी भयानक थी जो हिटलर को भी हैरान कर दे! इस तरह, जापान ने विस्फोट के बहाने मंचूरिया पर हमला किया और बताया कि वह तो महज चीन के हमले का जवाब दे रहा है.
स्टालिन को यह तरीका पसंद आया
लेकिन, स्टालिन को जापान का यह तरीका बहुत पसंद आया. वहीं, साम्राज्यवाद पर भरोसा रखने वाले कई देशों और नेताओं ने अपने आंतरिक मामलों पर इस नीति का अनुसरण किया. इसलिए वर्तमान में वास्तविकता को बड़ी चतुराई से देखा जाना चाहिए.
हालांकि, काफी पहले यह तरीका हिटलर ने ही इस्तेमाल किया था, तब जब जर्मनी में एक दूरसंचार टावर पर हमला किया गया था और उसे ध्वस्त कर दिया गया था. हिटलर ने इस मुद्दे पर पोलैंड को बदनाम किया. हिटलर ने पोलैंड पर सीधा हमला करते हुए यह दावा किया कि पोलिश सेना ने इस वारदात को अंजाम दिया, जबकि कहा जाता है कि टावर वास्तव में जर्मन सैनिकों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था. वे पोलैंड में घुसपैठ करने का कोई कारण चाहते थे. इसलिए बताते हैं कि यह पूरी रणनीति हिटलर ने पोलैंड पर अधिकार स्थापित करने के लिए बनाई थी.
यह द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत का समय था. इस कहानी के पीछे एक ऐसा झूठ था, जो तमाम तानाशाही प्रवृत्तियों के नेताओं को हमेशा भाता है. स्टालिन कोई अपवाद नहीं था. उसने सोचा होगा कि जो जापान ने किया और जो हिटलर ने किया वह हम क्यों नहीं कर सकते? इसके लिए उसने अपने देश का नक्शा देखना शुरू किया. उसने अपनी रणनीति का लागू करने के लिए एक देश ढूंढ लिया.
फिनलैंड पर इस तरह किया हमला
देश के उत्तरी सिरे से महज 20 किलोमीटर दूर स्टालिन ने उस देश की ओर देखा. लेकिन, सवाल था कि घुसे कैसे? क्योंकि, जर्मनी की तरह, उस देश का रूस के साथ गैर-युद्ध संधि थी. खास बात यह है कि इन दोनों देशों ने वर्ष 1917 में अपनी सीमाएं तय की थीं. दोनों ने इसकी पवित्रता का ध्यान भी रखा हुआ था.
लेकिन, स्टालिन मजबूर था. लिहाजा, स्टालिन ने उस देश को एक संदेश भेजा: हम भूगोल के बारे में कुछ नहीं कर सकते. लेनिनग्राद (सेंट पीटर्सबर्ग) का तो मैं कुछ भी नहीं हिला सकता. लेकिन, अंतरराष्ट्रीय सीमा की खाई को कम किया जा सकता है.
उस देश को स्टालिन की लोकतंत्र विरोधी छवि के बारे में अच्छी तरह से पता था. इसलिए वह सावधान था. लेकिन, सवाल यह कि वे जान-बूझकर क्या करेंगे? दरअसल, स्टालिन ने खाई को पाटने पर टिप्पणी करके अपने मन की बात दर्शायी थी. इस बीच यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया. स्थिति यह थी कि स्टालिन शांत हैं और आसपास के देशों में अशांति.
युद्ध से देश हार सकता है, जनता नहीं
इसी समय उत्तरी ध्रुव के पास रूस की सीमा पर बमबारी की गई थी. यह अप्रत्याशित थी, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध उस स्थिति तक नहीं पहुंचा था. फिर भी कैसे, क्यों और किसने इस बमबारी को अंजाम दिया? पांच रूसी सैनिक मारे गए थे. यह बात स्टालिन ने एक सवाल के जवाब में बताई.
स्टालिन ने घोषणा की कि फिनलैंड ने उस पर हमला किया था और उस पर युद्ध की घोषणा कर दी. रूसी सैनिकों ने फिनलैंड पर हमला कर दिया. स्टालिन ने पहले ही तय कर लिया था कि क्या करना है. उसने एक स्थानीय नेता को फिनलैंड के प्रमुख के रूप में स्थापित किया और अपनी जीत की घोषणा कर दी.
उसके बाद फिनलैंड के जन संगठनों ने रूसी सेना का विरोध करना शुरू कर दिया. उन्होंने गुरिल्ला युद्ध तक का मार्ग अपनाया. यह युद्ध इस स्थिति तक पहुंच गया कि सैकड़ों रूसी सैनिक मारे गए. स्टालिन भी परेशान हो गया और उसे भी अनुमान नहीं था कि यह देश उसे इस हद तक परेशान कर सकता है. लेकिन, सच्चाई यह है कि ऐसा हो रहा था. यह संघर्ष यहीं समाप्त नहीं हुआ. इस छोटे से देश के जवाबी हमले में बड़ी तादाद में रूसी सैनिक मारे जाते रहे.
अंत में, स्टालिन का सब्र टूट गया है. उसने फिनलैंड के साथ समझौता किया. फिनलैंड स्टालिन के रूस को अपनी सीमा एक हिस्सा देने के लिए तैयार हो गया और इस तरह यह पूरा युद्ध इतिहास का अहम अध्याय बन गया, जिससे सबक लेने की बजाय फिर उसे दोहराया जा रहा है.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शिरीष खरे लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
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