सम्पादकीय

संस्कृति की परिचायक

Gulabi
14 Sep 2021 5:40 AM GMT
संस्कृति की परिचायक
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किसी भी राष्ट्र की उन्नति की परिचायक है वहां की मातृभाषा

किसी भी राष्ट्र की उन्नति की परिचायक है वहां की मातृभाषा। भाषा कहने को तो विचारों के आदान-प्रदान का साधन मात्र है, परंतु इससे बहुत से साध्यों को भी साधा जा सकता है। हिंदी हमारे संस्कारों से जुड़ी है, इसलिए यह मात्र भाषा ही नहीं मातृभाषा है। हिंदी हम भारतवासियों की मां के समान है, इसलिए मातृभाषा कहलाती है। गर्व से स्वीकारते हैं कि हम हिंदी भाषी हैं। अनेकता में एकता का स्वर हिंदी के माध्यम से गूंजता है। जीवन में भाषा का सबसे अधिक महत्व होता है। एक भाषा ही हममें संस्कारो का विकास करती है। इसी कारण सभी देशों की अपनी एक मूल भाषा होती है, जिसका सम्मान करना देशवासियों का कत्र्तव्य है। माना कि भाषा भावनाओं को व्यक्त करने का एक साधन मात्र है, लेकिन इस साधन में वह बल है जो दुनिया को बदल सकता है। विभिन्नताओं के बीच एक भाषा ही है जो एकता का आधार बनती है और हम सभी को इस एकता के साधन का सम्मान करना चाहिए। हिंदी हमारी मातृभाषा है जिसे सम्मान देना हमारा कत्र्तव्य है। 14 सितंबर का दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ था। उसके बाद सन् 1953 से हर वर्ष 14 सितंबर का दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी भारत में सबसे अधिक 65 फीसदी लोगो द्वारा बोली व समझी जाती है। 30 फीसदी लोग अन्य भाषाओं को समझते व बोलते हैं, जबकि 5 फीसदी लोग अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हैं। वर्तमान समय में कोरोना महामारी के दौरान हिंदी साहित्य सृजन में कोई रुकावट नहीं आई, बल्कि ऑनलाइन हिंदी साहित्य के रूप में हिंदी ने अपने नए स्वरूप को भी विकसित किया है।

आज हम देखते हैं कि सोशल मीडिया या अन्य ऑनलाइन जगहों पर कई ऐसे गुमनाम कवि और शायर निरंतर हिंदी के उत्थान के लिए प्रयासरत हैं। सभी जगह भाषा संस्कृति विभाग द्वारा ऑनलाइन कवि सम्मेलन, लेखक गोष्ठियों का आयोजन सफलतापूर्वक किया जा रहा है। हम हिंदी को ऑनलाइन स्तर पर भी सृजित करने में आगे हैं। कभी कहा जाता था कि कंप्यूटर की भाषा सिर्फ अंग्रेजी है, परंतु अब इसमें भी भारतीयों ने अपनी पकड़ बना ली है। हिंदी भाषा की लिपि देवनागरी तथा प्राचीन रूप संस्कृत है। हिंदी ने भारत की धरती पर कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। हम हिंदी भाषा की बात तो करते हैं, परंतु कभी उसके उन्नत इतिहास को जानने का प्रयत्न नहीं करते और न ही आने वाली पीढ़ी को बताते हैं। आज देश में एक ऐसा समाज पल रहा है जो अपनी मातृभाषा से दूर हो रहा है और अफसोस तो इस बात का है कि वह मात्र अपनी भाषा से ही नहीं, अपनी मातृभूमि से भी दूर हो गया है। अंग्रेजी के फैशन में इस तरह लिपटने का प्रयास आज की नई पीढ़ी कर रही है जिसका कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता और ऐसा वर्ग हिंदी को मातृभाषा से मात्र भाषा बनाने में लगा है। हिंदी भाषा का प्रयोग स्कूल में करने पर अब जुर्माना देना पड़ेगा, यह कौनसी सभ्यता है, यह कहां की संस्कृति है। मातृभाषा से व्यक्ति निर्माण होता है, व्यक्ति से समाज का, समाज से राष्ट्र का और राष्ट्र से विश्व का निर्माण होता है। हम अपनी मातृभाषा के बिना कल्पना भी नहीं कर सकते कि समाज को संस्कारी बना सकें। इसलिए कहा भी गया है कि हिंदी मात्र सरोकारों की नहीं, संस्कारों की भाषा है। हिंदी के बिना आगामी पीढ़ी को संस्कार नहीं सौंपे जा सकते।
आशीष बहल, लेखक चुवाड़ी से हैं
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