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दांपत्य जीवन एक वृक्ष की तरह है। जब हम कोई बीज बोते हैं या पौधा रोपते हैं तो उसे बड़ा करने के लिए पशुओं से भी बचाना है
पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:
दांपत्य जीवन एक वृक्ष की तरह है। जब हम कोई बीज बोते हैं या पौधा रोपते हैं तो उसे बड़ा करने के लिए पशुओं से भी बचाना है, बच्चों से भी सुरक्षित रखना है। प्रकृति अपना काम दिखाएगी, हवा, पानी, पाला, कीड़े, खरपतवार इन सबसे रक्षा करते हुए पौधे को पेड़ बनाना होता है, तब जाकर वह फल देता है।
बीज बोना अकलमंदी है और उसकी देख-रेख करना समझदारी। दांपत्य जीवन में पुरुष-महिला पति-पत्नी के रूप में केंद्र में होते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं पुरुष अकलमंद होता है, स्त्री समझदार होती है। इन दोनों के अंतर को समझना पड़ेगा। अकल में जब अनुभव जुड़ता है तब समझ पैदा होती है।
महिला को समझदार मानने के पक्ष में तर्क यह है कि उसके पास एक ऐसा अनुभव है जो किसी पुरुष के पास नहीं होता। वह है मातृत्व का अनुभव। देह के भीतर देह को रखकर जीवन देना कोई साधारण बात नहीं है। इस अनुभव के सामने दुनिया के सारे अनुभव फीके हैं। इसलिए एक समझदार दंपति को पारिवारिक जीवन में अकलमंदी-समझदारी का संतुलन बनाकर चलना चाहिए।
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