सम्पादकीय

आशा की किरण: देश की लड़कियों के लिए नई उम्मीद का नाम है- निकहत ज़रीन

Gulabi Jagat
29 May 2022 2:35 PM GMT
आशा की किरण: देश की लड़कियों के लिए नई उम्मीद का नाम है- निकहत ज़रीन
x
देश की लड़कियों के लिए नई उम्मीद का नाम है
स्वाति शैवाल।
निकहत जरीन वो बॉक्सर, जिनके चर्चे। पूरे देश में हैं। कारनामा करने वाली दुबली सी लड़की। जिसको देखो तो लगे, आखिर ये जुनून, ये आग, ये लड़की लाई कहां से? तो जनाब ये वही आग है जिसको आज से कुछ सालों पहले निकहत और उसके माता-पिता ने चिंगारी के रूप में अपने मन में संजो लिया होगा। समय आने पर अपनी ज्वाला से लोगों के बेवजह के सवालों को जलाने के लिए। जब लोगों ने उनको रोकने के लिए तमाम सामाजिकताओं की दुहाई दी होगी। लड़की को लड़कीनुमा बने रहने की ताकीद की होगी।
बकौल निकहत, उन्हें यह सलाह भी दी गई कि-
लड़की को ऐसे खेल में क्यों डाल रहे हो जहां निक्कर पहननी पड़ती है? आज वही लोग उनके साथ एक फोटो खिंचवाने के लिए अनुरोध कर रहे हैं।
ये 80 के शुरुआत की बात है। छोटे से एक गांव में पापा की पोस्टिंग होने की वजह से मुझे नाना-नानी के पास पढ़ाई शुरू करने के उद्देश्य से छोड़ा गया। जिस स्कूल में मेरा एडमिशन हुआ उसे आर्मी ऑफिसर्स की पत्नियां संचालित किया करती थीं। मुझे उस स्कूल की उस यूनिफॉर्म ने ज्यादा आकर्षित किया जो लड़के पहनते थे और हमेशा की तरह बिना भेदभाव वाली सोच रखने वाले पापा मेरे लिए मुस्कुराते हुए नेकर और हरी चैक्स वाली शर्ट ले आए।
न नाना के घर में किसी को ये अजीब लगा न ही मेरे पापा को। स्कूल जाना मुझे पसंद था और अब तो मनपसंद यूनिफॉर्म भी थी। स्कूल का पहला ही दिन था और मैं प्रेयर के दौरान उस लाइन में जाकर खड़ी हो गई जहां मेरी जैसी यूनीफॉर्म पहने बाकी लोग खड़े थे। 3 साल की उम्र में न तो मेरे दिमाग में ये कि था कि मैंने लड़कों के कपड़े पहने हैं, न ही ये कि जिस लाइन में मैं खड़ी हूं वो लड़कों की है।
बहरहाल, 3-4 दिनों तक ऐसे ही चलता रहा। मैं क्लास में भी लड़कों वाली साइड पर ही बैठती। पहला हफ्ता गुजरने को था कि मेरी प्यारी सी क्लास टीचर को खटका हुआ कि अटेंडेंस के दौरान स्वाति नाम लेने पर एक लड़का हाथ खड़ा करके 'यस मिस' कहता है। उन्होंने चश्मे से पीछे से मुझे घूरा और मैं मुस्कुरा दी।
मुझे ये भी खेल लगा। उसके बाद के 2 दिनों तक जैसे ही मैम मेरा नाम पुकारतीं, मैं और भी जोर से चिल्लाकर यस मिस कहती।
मैम असमंजस, अधीरता, असंतोष जैसे कई भावों से भरकर मुझे घूरतीं। अब मुझे इस खेल में मजा आ रहा था। आखिर मैम से रहा नहीं गया। उन्होंने क्लास खत्म होते ही मुझे करीब बुलाया और पूछा-
बेटा आपका नाम क्या है? मैंने मुस्कुराते हुए कहा- स्वाति। उन्होंने और धैर्य रखते हुए पूछा- और आप लड़के हो या लड़की? और मैंने उसी कॉन्फिडेंस से उनके पूछे ऑप्शन को समझे बिना तपाक से रिपीट कर दिया- लड़का। मैम का अवाक चेहरा पीछे छोड़कर मैं फिर अपनी जगह पर आ गई।
अगले दिन प्रेयर के बाद जब हम अपनी क्लास की ओर जा रहे थे, वही मैम एक सर के साथ गेट पर खड़ी थीं। उन्होंने मुझसे फिर पुराना प्रश्न पूछा और मैं वही जवाब दोहराती रही। बाद में नानी जब मुझे स्कूल लेने आईं तो मैम ने उनसे पूछा और सच्चाई जानने पर राहत की सांस लेते हुए बोलीं- आप नहीं जानती। घर पर मेरी और मेरे पति की बहस हो गई थी कि मेरी क्लास में स्वाति नाम का लड़का आया है।
इसलिए वो आज ऑफिस जाने से पहले स्कूल आए थे। अब मैं घर जाकर ये क्लियर कर दूंगी कि ये लड़की ही है। बाद में क्या हुआ ये तो मुझे पता नहीं चला लेकिन मेरी यूनिफॉर्म ट्यूनिक में जरूर बदल गई। जाहिर है इसमें स्कूल का प्रोटोकॉल बाधित होता होगा। खैर....
ये किस्सा मेरे ननिहाल के उन किस्सों में से एक है जिन्हें नानी, मामा के मुंह से सुनकर मुझे हमेशा ही मजा आता रहा। जब निकहत वाली खबर पढ़ी तो अचानक जेहन में फिर से यही किस्सा जाग गया।
ओलंपिक खेलों में महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत देर से हुई
महिलाओं की भागीदारी
खेल हों या सामाजिक जीवन महिलाओं को कभी भी भागीदारी थाली में परोस कर नहीं दी गई। जबकि पुरुषों के लिए तो खेल हमेशा से शारीरिक सौष्ठव और मनोरंजन का मामला रहे हैं। कबूतरबाजी से लेकर तलवारबाजी तक हर जगह पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है।
बाकी दुनिया की बातें छोड़ भी दें तो हमारे भारत में ही लड़कियों को पेट भर खाना, शिक्षा और पीरियड्स के समय सैनेटरी पैड्स मिल जाए, फिलहाल तो यह सुविधा भी लग्जरी ही है। खुशी की बात यह है कि तमाम बाधाओं और दिक्कतों के बावजूद लडकियां खुद को साबित करने में कोई कसर नहीं रख रहीं और यही गेम चेंजर स्थिति है।
इतिहास की बात करें तो ओलिम्पिक खेलों में प्रतिभागिता लंबे समय तक सिर्फ पुरुषों के लिए थी। महिलाएं केवल एक जरिए से खेल के मैदान तक आ सकती थीं- घुड़सवारी की प्रतियोगिताओं में घोड़ों की मालकिन बनकर। और चूंकि वे घोड़ों की मालकिन हुआ करतीं, उन्हें जीत में भी श्रेय दे दिया जाता। ठीक जैसे घी लगी रात की किस्मत से बच गई बासी रोटी एहसान जताकर दी जाती है।
तुर्रा ये कि आयोजन में शामिल होने से उनको मनाही थी। एथेंस में हुए पहले ओलंपिक खेलों में महिलाओं को शामिल न करने के लिए वजहें गिनाते हुए कहा गया था कि महिलाओं को इन खेलों में शामिल करना अव्यवहारिक, अरुचिकर, असुंदर और अभद्र निर्णय होगा।
विक्टोरियन दौर में तो यह कहा जाता था कि महिलाएं अगर खेलों में भाग लेंगी तो उनके प्रजनन अंगों को क्षति पहुंचेगी। जिससे वे पुरुषों के लिए कम आकर्षक रह जाएंगी। इतना ही नहीं अगर वे अपनी ऊर्जा खेलों और पढ़ाई में जाया करेंगी तो तंदरुस्त बच्चों को जन्म कैसे देंगी भला? बेचारी, अब एक यही काम भी अगर ठीक से न कर सकें तो धिक्कार है उनके औरत होने पर!
पहली बार 1900 वीं शताब्दी की शुरुआत के बाद पेरिस में महिलाओं को ओलम्पिक में उन कुछ खेलों में अपनी काबिलियत दिखाने का मौका मिला जिनमें उनकी नजाकत और नारीत्व बरकरार रहता। इसके बाद 1928 के ओलंपिक्स में एथलेटिक्स और जिम्नास्टिक आयोजनों में महिलाओं ने प्रतिभागिता की। 2012 में महिलाओं की बॉक्सिंग प्रतियोगिता भी शुरू हुई, जिसमें पंच जड़ने को अब निकहत भी तैयार होंगी।
आंकड़े बताते हैं कि 2021 में टोक्यो में सम्पन्न ओलंपिक्स खेलों में पहली बार कुल 206 नेशनल ओलंपिक कमेटियों को अपनी टीमों में कम से कम 1 महिला और 1 पुरुष खिलाड़ी रखने के आदेश थे। 2012 के लंदन ओलंपिक्स से पहले तीन मुस्लिम देशों क़तर, ब्रूनेई और सऊदी अरब से कोई महिला प्रतियोगी इन खेलों में हिस्सा नहीं ले सकती थी। अब वह परिदृश्य भी बदल गया है।
हालांकि समान खेल के लिए समान पारितोषिक अब भी एक बड़ा मसला है जिसे सुलझाना बाकी है।
महिला खिलाड़ियों के परिधानों को ग्लैमरस बनाया जाता है
खेल में महिलाओं के परिधान
महिलाओं के खेलों में उनके परिधानों से जुड़े भी बड़े अटपटे विवाद रहे हैं। शुरुआत में लंबी मैक्सी से लेकर साड़ी तक पहनकर महिलाओं ने खेलों में भाग लिया। इसके बावजूद औरतें लॉन टेनिस से बैडमिंटन कोर्ट तक भाग-भाग कर कीर्तिमान रचती रहीं और रचती रहेंगी।
कुछ साल पहले एक विवाद स्पोर्ट्स से जुड़े एक बड़े क्लोदिंग और एक्सेसरी ब्रांड के साथ हुआ था। नाइकी जैसे बड़े ब्रांड ने लॉन टेनिस के सबसे सभ्य टूर्नामेंट कहे जाने वाले विम्बलडन में महिला खिलाड़ियों के लिए ऐसी ड्रेस तैयार की जो कुछ ज्यादा ही शॉर्ट थीं और खेलते समय इससे खिलाड़ियों को असहजता हो रही थी।
अब यहां यह गौर करना भी जरूरी है कि खेलों में महिलाओं के आने के बाद से उनके कपड़ों को लेकर कुछ ज्यादा ही प्रयोग हुए हैं। पुरुष जहां अब भी ज्यादातर खेल नेकर और टीशर्ट में खेलते हैं। महिलाओं के लिए ड्रेस को जितना हो सके ग्लैमरस बनाने की भी कोशिश की जाती है।
सवाल यह है कि खेलों में भी एक निश्चित यूनिफॉर्म (लड़के-लड़कियों दोनों के लिए शारीरिक रूप से आरामदायक) क्यों तय नहीं हो सकती?
खेलों के दौरान पहनी जाने वाली ड्रेस का मुख्य मकसद होता है पूरे आराम के साथ खिलाड़ी को खेल पर ध्यान देने में मदद करना। एक स्वीमिंग कॉम्पिटीशन में भाग लेने वाली लड़की के स्वीमिंग सूट से ज्यादा दिलचस्पी लोगों को उसके रिकॉर्ड ब्रेक करने में होनी चाहिए। ठीक यही बात दौड़, ऊंची कूद, टेनिस, जिम्नास्टिक आदि जैसे सारे खेलों पर लागू होती है। लेकिन अक्सर महिलाओं के खेलों को देखने जाने वाले पुरुषों में एक बड़ा वर्ग उनके शरीर, उभारों और उनकी पोशाको से दिखने वाले मांस को देखकर सीटियां बजाने और भद्दे कमेंट्स वालों का भी होता है।
इसका प्रत्यक्ष अनुभव मैं खुद कई कबड्डी, टेबल टेनिस, बैडमिंटन, क्रिकेट और स्वीमिंग प्रतिस्पर्धाओं में कर चुकी हूं।
बहरहाल, निकहत जिन्होंने अपने बॉक्सिंग पंच से दुनियाभर में तहलका मचा दिया है। भारत की महज 25 साल की ये लड़की उस वर्ग से ताल्लुक रखती है जहां लड़कियों को अब भी बचपन से फ्रॉक को नीचे तक खींचकर बैठने, ढंग से चलने और सीना ढंककर रहने की हिदायतें जन्म से घुट्टी की तरह मिलती हैं।
नई उम्मीद का नाम-निकहत
निकहत एक मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार से आती हैं जहां लड़कियों के लिए बंदिशें रोज दाल-चावल का कुकर चढ़ाने जैसी सहजता से लगा दी जाती हैं। लेकिन निकहत के साथ उनके अब्बू-अम्मी खड़े थे और उन्होंने निकहत को दिल से कहा- जा निकहत, जी ले अपनी ज़िंदगी। ये वो मंत्र है जो रील लाइफ का होते हुए भी रियल लाइफ में बहुत प्रभाव रखता है।
आज निकहत ने जो अचीव किया है उसके पीछे उनकी मेहनत और लगन तो है ही, उनके परिवार और शुभचिंतकों का साथ भी है। साथ ही एक बहुत बड़ा सबक भी चस्पा है, कि अपनी सीमा लांघी तो ऐसा पंच पड़ेगा कि सारी सलाहें भूल जाओगे। तो ये समय बस निकहत की सफलता का जश्न मनाने का है और कपड़ों से ऊपर उठकर सोचने का भी।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
Next Story