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सम्पादकीय
हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार। जब दुनिया में कोई कहता है भारत, तो उस भारत का अर्थ एक भूगोल होता है, एक संस्कृति होती है, उसका इतिहास, उसका वर्तमान होता है, या इसे और भी कई तरह से सोचा जा सकता है। भारत का अर्थ इस देश पर शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी, या लंबे समय तक यहां शासन कर चुकी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी नहीं होता। एक बार, आपातकाल के दौरान, देवकांत बरुआ ने कह दिया था कि इंदिरा गांधी भारत हैं और भारत इंदिरा गांधी, तो अगले ही आम चुनाव में इस देश के लोगों ने उन्हें इस गलती का सबक भी दे दिया था।
भारत के उलट दुनिया में जब भी कोई कहता है चीन, तो इसके दूसरे तमाम अर्थों के साथ एक सबसे बड़ा अर्थ होता है, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ही वह सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वायुमंडल है, जिसमें इस विशाल देश के लोग सांस लेते हैं। उनकी नियति भी यही पार्टी तय करती है। चीन का जो कुछ भी है, वह इस कम्युनिस्ट पार्टी से ही बाकी दुनिया में अभिव्यक्त होता है। सुबह से शाम तक चीन में बने उत्पादों और गैजेट्स के बीच अपनी पूरी दिनचर्या गुजारने के बावजूद चीन के बारे में हम उतना ही जान पाते हैं, जितना कि वहां की कम्युनिस्ट पार्टी हमें बताना चाहती है। आधुनिक चीन के जितने भी किस्से-कहानियां हमारे पास हैं, वे या तो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के जरिये हमारे पास पहुंचे हैं या फिर पश्चिम के उन देशों में लगे नैरेटिव बनाने वाले कारखानों में ढाले गए हैं, जिनकी चीन से आपत्ति सिर्फ इतनी है कि दुनिया का इतना बड़ा और इतना महत्वपूर्ण भूगोल सिर्फ एक कम्युनिस्ट पार्टी में कैसे बदल गया?
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल का इतिहास दरअसल, एक देश के राजनीतिक दल में बदल जाने, या एक पार्टी के एक राष्ट्र में बदल जाने का इतिहास है। ऐसी कोशिशें दुनिया में कई और देशों में हुईं। सोवियत संघ में हुईं, पूर्वी जर्मनी में हुईं, पोलैंड में हुईं, अल्बानिया, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया जैसे देशों में हुईं, लेकिन कहीं भी वे ऐसा और इतना लंबा सफर तय नहीं कर सकीं, जितना कि उन्होंने चीन में किया। बाकी सभी जगह लोगों की आजादी की चाहत और पश्चिम की हवाओं ने कम्युनिज्म के किले ध्वस्त कर दिए। तब यह लग रहा था कि साम्यवाद के एकदलीय सपने की अंतिम नियति हर जगह यही है। लेकिन चीन इस धारणा के सामने अपवाद बनकर खड़ा हो गया। और यह अपवाद उस धारणा से ज्यादा बड़ा हो गया।
यह सिर्फ इस अकेली धारणा की बात नहीं है। पिछली सदी की जितनी भी राजनीतिक और सामाजिक धारणाएं थीं, जितने भी इतिहास बोध थे, लोकतंत्र के जितने भी दर्शन और शास्त्र थे, जितनी भी प्रज्ञाएं थीं, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के किले के सामने सब हथियार डाल चुकी हैं। यह बात अक्सर कही जाती है कि चीन आज दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में खड़ा है, लेकिन शायद इससे बड़ा सच यह है कि पिछली डेढ़-दो सदी में पश्चिम की दुनिया ने आचार, विचार और व्यवहार के जितने पोथे तैयार किए थे, आज का चीन उन सबके एक मजबूत खंडन की तरह खड़ा है। यहां यह जिक्र भी जरूरी है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी खुद जिस विचार पर खड़ी है, वह भी पश्चिम से आयातित साम्यवाद ही है, लेकिन उसके बाद इस पार्टी ने दुनिया की वैचारिक हवाओं को रोकने के लिए जो फौलादी दीवार खड़ी की, उसके आगे तो शायद मिंग राजवंश द्वारा तैयार चीन की महान दीवार भी शरमा जाए।
पिछली सदी के उत्तराद्र्ध में हमें यह समझाया जाता रहा कि आर्थिक समृद्धि अंतत: लोकतंत्र के रास्ते से ही आ सकती है। आजादी ही वह माहौल है, जिसमें अर्थव्यवस्था और लोगों की खुशहाली के फूल खिलते हैं। लेकिन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने जब माओवाद को ठिकाने लगाते हुए वैश्विक पूंजीवाद के लिए अपने दरवाजे खोले, तो बिना किसी आजादी और लोकतंत्र के इस मुल्क ने भी खुशहाली की राह पकड़ ली। जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कभी आजादी का परवाना माना जाता था, आज वे चीन की तमाम पाबंदियों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी को फर्शी सलाम ठोकती नजर आती हैं। एक दूसरी सोच यह थी कि तकनीक सब कुछ बदल देगी। दशकों तक यह माना जाता रहा कि संचार तकनीक बहुत सी बंद खिड़कियां खोल देगी। जब पूरी दुनिया के लोग कहीं भी किसी से भी संपर्क करने की स्थिति में आएंगे, तो देशों की सीमाएं बेमानी हो जाएंगी और सरकारें बेमतलब, उसके बाद लोगों पर नियंत्रण मुश्किल हो जाएगा। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने न सिर्फ यह साबित किया कि तकनीक पर लगाम लगाए बिना लोगों को कई तरह की आजादी से दूर रखा जा सकता है, बल्कि उसने इस तकनीक का इस्तेमाल अपने नियंत्रण का दायरा बढ़ाने के लिए भी किया।
एक सोच यह भी थी कि जब समृद्धि आएगी और अपनी जेब में पैसे लिए नौजवान सड़कों पर आएंगे, तो वे दुनिया के नए फैशन अपनाएंगे, उनकी शाम दुनिया के सबसे लोकप्रिय फास्ट फूड और बाकी रंगीनियों के साथ होगी, वे हॉलीवुड की फिल्में देखेंगे और सिलिकॉन वैली में बने कंप्यूटर गेम खेलेंगे। ऐसे में, भला उन्हें पश्चिम के मूल्यों से कैसे बचाया जा सकेगा? जल्द ही उनके मन में आजादी और लोकतंत्र की चाहत भी हिलोरें लेने लगेगी। साल 1989 में वह मौका आया, जब एकबारगी लगा कि चीन में भी यह बात सही साबित होने जा रही है। शहर-शहर, कस्बे-कस्बे में नौजवान सड़कों पर निकल आए। उनका सबसे बड़ा जमावड़ा जुटा बीजिंग के थ्येन ऑन मन चौक पर। लगा कि चीन अब बदल जाएगा। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी का फौलादी नियंत्रण फिर सामने आया और अब थ्येन ऑन मन के उस आंदोलन को सिर्फ एक घटना के रूप में याद किया जाता है। किसी ऐसी परंपरा के रूप में नहीं, जो अब तक जारी हो।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल और उसके कर कमलों से चीन में जो कुछ भी हो रहा है, वह महज चीन का आंतरिक मामला नहीं है। यह सब अब पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बन गया है, क्योंकि यह पार्टी अब पूरी विश्व व्यवस्था को प्रभावित करने और उसे बदलने के लिए निकल पड़ी है। एक ऐसी पार्टी, जिसकी निष्ठाओं में आजादी और लोकतंत्र के लिए कोई जगह नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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