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यूपी सरकार की टू चाइल्ड पॉलिसी से छिड़ा एक नया विवाद
अशोक बागड़िया। उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की योगी आदित्यनाथ सरकार (Yogi Adityanath Government) ने यूपी में जनसंख्या नियंत्रण (Population Control) करने के लिए 'उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक 2021' लाकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है. इस विधेयक के अनुसार जिस भी दंपति के 2 से अधिक बच्चे होंगे उन्हें सरकारी नौकरियां, सरकारी सब्सिडी और उससे जुड़े लाभ इसके साथ ही सरकारी नौकरी में प्रमोशन और स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित होना पड़ेगा. उत्तर प्रदेश सरकार का मानना है कि इस मसौदे से यूपी के हर जोड़े को प्रोत्साहन मिलेगा कि वह 2 से ज्यादा बच्चे ना पैदा करें और इससे राज्य की आबादी को नियंत्रण करने में आसानी होगी.
हालांकि सबसे बड़ी समस्या तो इस बात की है कि योगी आदित्यनाथ की जनसंख्या नियंत्रण नीति, 2000 की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के बिल्कुल विरोध में है जिसका सुप्रीम कोर्ट में नरेंद्र मोदी सरकार ने बचाव किया था. दिसंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें कहा गया था कि सरकार को देश की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के लिए कुछ कदम उठाने की जरूरत है. इस पर स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया गया था, जिसमें कहा गया था कि अंतरराष्ट्रीय अनुभव से पता चलता है एक निश्चित संख्या में बच्चे पैदा करने के लिए किसी भी तरह का दबाव डेमोग्राफिक चेंज के लिए खतरनाक साबित हो सकता है.
इन तर्कों पर किया गया था बचाव
यह हलफनामा स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा अश्वनी उपाध्याय की ओर से दायर किया गया था जो बीजेपी के नेता होने के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता भी हैं. जनहित याचिका में जनसंख्या नियंत्रण के पीछे यह तर्क दिया गया था कि, जनसंख्या बढ़ने से अपराधों में वृद्धि हो रही है, प्रदूषण बढ़ता जा रहा है और देश में संसाधनों और नौकरियों की कमी हो रही है.
उस वक्त स्वास्थ्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 का बचाव करते हुए कहा था कि फैमिली वेलफेयर प्रोग्राम बिना किसी दबाव और जबरदस्ती के दंपतियों को परिवार नियोजन के तरीकों को अपनाते हुए उनके पसंद अनुसार अपने परिवार का आकार तय करने की पूरी छूट देता है. इसके साथ ही स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने हलफनामे में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 का बचाव करते हुए तर्क दिए थे कि भारत में कुल प्रजनन दर में लगातार गिरावट देखी जा रही है. साल 2000 में जब राष्ट्रीय जनसंख्या नीति को अपनाया गया था, उस वक्त भारत की प्रजनन दर 3.2 थी. जो 2018 के अनुसार गिरकर 2.2 हो गई है. इन आंकड़ों से साफ संकेत मिलता है कि भारत के दंपति औसतन दो से अधिक बच्चे खुद ही पैदा नहीं करना चाहते.
इसी हलफनामे में आगे कहा गया है कि देश के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 25 ने पहले ही 21 या उससे से कम की प्रजनन क्षमता हासिल कर ली है. इसके साथ ही इसमें दावा किया गया है कि बीते 100 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है जब भारत की बढ़ती जनसंख्या में इतनी ज्यादा गिरावट दर्ज की गई है. आंकड़ों के अनुसार 1991 से 2001 जनसंख्या विकास दर 21.54 फ़ीसदी थी, जबकि 2001 से 2011 तक यह केवल 17.64 फीसदी ही रही.
उत्तर प्रदेश समेत इन 7 राज्यों में देश की सबसे ज्यादा जनसंख्या
हालांकि इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि सात राज्य, जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और असम शामिल है भारत की आबादी का 44 फ़ीसदी हिस्सा हैं. इसके साथ ही इन राज्यों की प्रजनन दर भी 3 फ़ीसदी या उससे अधिक है. लेकिन राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 के तहत ना सिर्फ मांओं के लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं दी गईं बल्कि जागरूकता अभियान भी चलाया गया. यही वजह रही कि इन योजनाओं ने न केवल मां और बच्चे की मृत्यु दर को कम किया, बल्कि जनसंख्या स्थिरीकरण और विकास के लक्ष्यों को भी आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई.
इससे यह साबित होता है कि प्रोत्साहन, जागरूकता और गर्भनिरोधक विकल्पों पर विचार कर जनसंख्या नीति को बनाया जा सकता है और जनसंख्या वृद्धि को स्थिर करने में यह कारगर भी साबित होता है. जबकि अगर दमनकारी कदम उठाए जाते हैं तो इसके दुष्परिणाम भी सामने आ सकते हैं, जैसे कि चयनात्मक लिंग के लिए गर्भपात या फिर 2 से अधिक बच्चों वाले कुछ पुरुष चुनाव लड़ने के लिए अपनी पत्नियों को तलाक दे सकते हैं या फिर अपने बच्चों को छोड़ सकते हैं, ताकि वह चुनाव लड़ सकें.
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