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सम्पादकीय
सुविधाजनक राजनीति का नया अध्याय और राष्ट्रीय चेहरा बनने की छटपटाहट
Gulabi Jagat
10 Aug 2022 5:29 PM GMT

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अवधेश कुमार : नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने एक बार फिर पाला बदल लिया। इसकी तरह-तरह से व्याख्या की जा रही है। ऐसे माहौल में यदि कोई सर्वेक्षण करा लिया जाए तो संभव है कि अधिकांश लोग नीतीश कुमार के भाजपा से अलग होने से सहमत न हों। जो भी हो, यह शायद ही कोई माने कि नीतीश के 2024 लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर मोदी विरोधी सर्वसम्मत चेहरा बनने के साथ ही भाजपा का ग्राफ गिरने की शुरुआत हो गई है। नि:संदेह इससे भाजपा की चुनौतियां बढ़ गई हैं, क्योंकि लंबे समय से गठबंधन के कारण बिहार में भाजपा का कोई कद्दावर नेता नहीं उभर सका है।
भाजपा ने बिहार में कई अन्य राज्यों की तरह स्वयं को अकेले बड़ी शक्ति बनाने का वैसा उपक्रम नहीं किया, जैसा उसे करना चाहिए था। नीतीश के पाला बदलने के खतरे को भांपते हुए भी भाजपा ने आवश्यक कदम नहीं उठाए। नीतीश कुमार ने 2015 में भी राजद के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा और सरकार बनाई। दो वर्ष से कम समय में ही उन्होंने गठबंधन तोड़ दिया। गठबंधन बनाए रखने, बनाने और तोड़ने के रिकार्ड का सेहरा नीतीश के सिर ही सजा है। इस मायने में वह भारतीय राजनीति में पहले नेता हैं जो गठबंधन बनाते और तोड़ते हुए भी मुख्यमंत्री बने रहे हैं। प्रश्न है कि बिहार के घटनाक्रम को मोदी और भाजपा के पतन की आधारशिला मानने वाले इस सिद्धांतविहीन स्थिति को किस रूप में लेते हैं?
राजनीति में न कोई स्थायी मित्र होता है और न स्थायी शत्रु, इसे भारतीय राजनीति में अगर किसी नेता ने सर्वाधिक चरितार्थ किया तो वह नीतीश ही हैं। उन्होंने एक ऐसा चक्र बनाया है, जिसमें वही सत्ता के शीर्ष पर स्थायी भाव से बने रहें। बस उनके अहं की तुष्टि होती रहे। क्या ऐसे व्यक्ति को बिहार और भारत की जनता भविष्य में भी अपने नेता के रूप में स्वीकार कर सकती है? निष्पक्षता से विचार करें तो ऐसा कोई कारण नहीं दिखेगा, जिससे गठबंधन तोडऩे का फैसला तार्किक लगे।
जो तर्क जदयू के नेता दे रहे हैं, उनमें कोई गहराई नहीं दिखती। जदयू (JDU) के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह (Lalan Singh) ने कहा कि आरसीपी सिंह (RCP Singh) के जरिये पार्टी को तोड़ने के लिए 'चिराग पासवान' माडल काम कर रहा था। ललन सिंह यहां तक कह गए कि आरसीपी कैसे केंद्रीय मंत्री बने, यह बात तो वही बताएंगे। क्या बगैर नीतीश कुमार की सहमति के प्रधानमंत्री ने आरसीपी को मंत्रिमंडल में स्थान दे दिया? जाहिर है कि यह सब बहानेबाजी के अलावा कुछ नहीं।
भाजपा से फिर अलगाव का नीतीश कुमार का फैसला उनकी राजनीतिक समझ पर तो प्रश्नचिन्ह खड़ा करता ही है, उनके निजी व्यक्तित्व का विश्लेषण करने की आवश्यकता भी रेखांकित करता है। जदयू खेमा आज चिराग पासवान माडल का आरोप उछाल रहा है, लेकिन इसे अनदेखा कर रहा है कि भाजपा ने नीतीश की भावना को महत्व देते हुए ही चिराग की जगह पशुपति कुमार पारस के गुट को राजग का भाग बनाया। भाजपा से नाता तोड़ने की एक वजह नीतीश ने यह भी बताई कि भगवा पार्टी द्वारा समाज में विवाद पैदा करने की जो कोशिश हो रही थी, वह उन्हें अच्छी नहीं लग रही थी।
अतीत की बात करें तो 2010 से ही नीतीश कुमार ने मोदी के विरुद्ध कड़े बयान देने शुरू कर दिए थे। पटना में उन्होंने भाजपा कार्यकारिणी की बैठक के लिए आयोजित भोज भी रद कर दिया था और मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी बनाने के बाद राजग ही छोड़ दिया था। इस तरह उन्होंने स्वयं को सेक्युलर खेमे के सबसे बड़े झंडाबरदार के रूप में पेश किया। इसी पर मोहित हुए स्वयंभू सेक्युलर इकोसिस्टम ने उन्हें 'प्रधानमंत्री मैटेरियल' कहना शुरू किया। उन्हें लगा कि मोदी के विरुद्ध आक्रामक रुख अख्तियार किया तो वह विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे बन जाएंगे। हालांकि यह वास्तविकता से कोसों दूर है, फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतीश के अंतर्मन में मोदी के समानांतर कथित सेक्युलर खेमे का राष्ट्रीय चेहरा बनने की छटपटाहट बनी हुई है। उपेंद्र कुशवाहा ने कहा भी है कि 'देश आपका इंतजार कर रहा है।'
जहां तक राष्ट्रीय विकल्प की बात है तो खुद बिहार ने ही नीतीश कुमार को तब खारिज कर दिया था, जब 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू के खाते में महज दो सीटें आई थीं। इसी के बाद नीतीश ने मुख्यमंत्री पद छोड़कर जीतन राम मांझी को बागडोर सौंप दी थी। इसके बावजूद उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा और फिर वही गलती दोहराई। यह ध्यान रहे कि जो व्यक्ति स्वयं को अपनी वास्तविक क्षमताओं से कई गुना बड़ा मानने लगता है और यह मान बैठता है कि उसके विचार एवं व्यवहार अन्य से श्रेष्ठ हैं, वह सदैव अहं और असुरक्षा बोध से ग्रस्त रहता है।
जरा बिहार की दृष्टि से सोचिए। आज तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद एक बड़ी शक्ति है, किंतु लोगों ने 15 वर्ष के कुशासन से मुक्ति के लिए मतों के माध्यम से क्रांति की थी। नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजद लगातार पांच चुनाव में पराजित हुआ। 2020 में जदयू की कम सीटें आई तो नीतीश कुमार को विचार करना चाहिए था कि जनता उन्हें क्यों पहले की तरह पसंद नहीं कर रही? बोचहा विधानसभा उपचुनाव में बड़े तबके ने मुख्यत: नीतीश कुमार की शैली और उनका अनुसरण करने वाले भाजपा नेताओं के विरुद्ध विद्रोह करके राजग उम्मीदवार को पराजित किया। इसका संकेत उन्हें समझना चाहिए था। नीतीश और जदयू के नेता इस कटु यथार्थ को मानने को तैयार नहीं कि लोगों का उनसे मोहभंग होना काफी पहले से आरंभ हो चुका है। आज तेजस्वी के नेतृत्व में राजद का जनाधार नीतीश से कहीं ज्यादा है।
नीतीश ने तेजस्वी यादव के साथ पत्रकारों से बातचीत में कहा कि समाज में विवाद पैदा करने की जो कोशिश हो रही थी वह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। याद रहे कि जिहादी तत्वों के विस्तार की आवाज उठाना समाज को बांटना नहीं होता। हमें नहीं भूलना चाहिए कि बिहार में पीएफआइ के बड़े माड्यूल का पर्दाफाश हुआ। इसके बावजूद वह यह मानने को तैयार नहीं कि बिहार जिहादी आतंकियों के रडार पर है। क्या बिहार की जनता इस खतरे को नहीं समझती? उसे पता है कि ऐसे खतरे से मुक्ति दिलाने की सोच जदयू या राजद में नहीं है। देश का माहौल ऐसा है, जिसमें यह बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। नीतीश और उनके पालाबदल से उत्साहित लोग इसे समझें तो पता चलेगा कि बिहार और देश की राजनीति की दिशा क्या होगी?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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Gulabi Jagat
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