सम्पादकीय

नेपाल में शेर बहादुर देउबा के सामने खड़ा मुश्किलों का पहाड़, कब तक खैर मनाएगी उनकी सरकार

Tara Tandi
21 July 2021 9:42 AM GMT
नेपाल में शेर बहादुर देउबा के सामने खड़ा मुश्किलों का पहाड़, कब तक खैर मनाएगी उनकी सरकार
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नेपाल की राजनीति में बीते कई महीनों से उठापटक चल रही थी,

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| संयम श्रीवास्तव| नेपाल (Nepal) की राजनीति में बीते कई महीनों से उठापटक चल रही थी, हालांकि 13 जुलाई को जब शेर बहादुर देउबा (Sher Bahadur Deuba) ने केपी ओली (K. P. Sharma Oli) की जगह नेपाल के नए प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली तो कुछ लोगों को लगने लगा कि शायद अब नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता शांत होगी. नेपाल के नए प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने रविवार को संसद में विश्वास मत भी हासिल कर लिया. इसलिए ये उम्मीद और पुख्ता हुई कि अब नेपाल में शांति और स्थिरता का दौर शुरू सकेगा. विश्वास मत में उन्हें समर्थन भी अच्छी-खासी संख्या में मिला. नेपाली कांग्रेस प्रमुख शेर बहादुर देउबा की सरकार के पक्ष में संसद की 275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में 165 वोट पड़े जबकि 83 सांसदों ने नवगठित सरकार के विरोध में मतदान किया. देउबा सरकार ने आसानी से संसद में अपना बहुमत साबित कर दिया. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस अवसर पर शेर बहादुर देउबा को विश्वास मत हासिल करने पर बधाई दी.

शेर बहादुर देउबा इस वक्त भले ही नेपाल के प्रधानमंत्री बन गए हों, विश्वास मत भी हासिल कर लिया हो और सुप्रीम कोर्ट भी उनके फेवर में हो पर उनके सामने अभी मुश्किलों का पहाड़ खड़ा है. अब सवाल उठता है कि क्या शेर बहादुर देउबा इस बार अपना कार्यकाल पूरा कर पाएंगे. क्योंकि उनका इतिहास रहा है कि उन्होंने आज तक कभी भी अपना कोई कार्यकाल पूरा नहीं किया है.

दावे से अधिक वोट इकट्ठा करने का मतलब देउबा को समर्थन दूसरों ने भी किया

नेपाल का पीएम बनने के लिए शेर बहादुर देउबा जब दावा कर रहे थे तो उनके पास 146 सांसदों का समर्थन था. जबकि संसद के निचले सदन में नेपाली कांग्रेस के 61 सदस्य हैं, जबकि उसकी गठबंधन साझेदार नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी केंद्र) के 48 सदस्य हैं. इसके उलट विश्वास मत हासिल करने पर उन्हें 165 वोट मिले हैं. इसलिए ये उम्मीद जग रही है कि देउबा सरकार शांतिपूर्ण ढंग से चला लेंगे. हालांकि इस बार देउबा के प्रधानमंत्री बनने का सफर इतना आसान नहीं था. दरअसल ओली और प्रचंड की लड़ाई में नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी हमेशा ओली की तरफ झुकी रहीं, ओली को जब-जब लगा कि वह बहुमत सिद्ध नहीं कर पाएंगे उन्होंने विद्या देवी भंडारी से कह कर संसद भंग करा दी, जिसकी निंदा नेपाल की शीर्ष अदालत ने भी की.

49 सांसदों के साथ प्रचंड का खेमा भी शेर बहादुर देउबा के खिलाफ खड़ा है

केपी शर्मा ओली की सरकार जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण था कि उनके साथ के गठबंधन के दल उनसे खुश नहीं थे, क्योंकि सरकार में उन्हें बराबर का हक नहीं मिल रहा था. पुष्पकमल दहल प्रचंड भी इसी बात से नाराज थे कि केपी शर्मा ओली ने जो वादा उनसे किया था सरकार बनाने से पहले की आधे कार्यकाल तक वह प्रधानमंत्री रहेंगे और आधे कार्यकाल तक केपी शर्मा ओली उसे केपी शर्मा ओली पूरा नहीं कर रहे थे. शेर बहादुर देउबा के साथ भी अब यही चुनौती है कि कैसे वह अपने गठबंधन के साथियों को उनके मन चाहे मंत्रालय और पद देकर उन्हें कब तक अपने साथ रख पाते हैं. इसके साथ ही 49 सांसदों के साथ प्रचंड का खेमा भी शेर बहादुर देउबा के खिलाफ खड़ा है जो देउबा के लिए समस्या पैदा कर सकता है.

तराई और पहाड़ी क्षेत्र के इलाकों का प्रतिनिधित्व करने वालों के बीच भी फंस सकते हैं देउबा

शेर बहादुर देउबा के सामने एक समस्या हो तो उसका हल भी निकले, लेकिन उनके सामने ऐसी कई बड़ी चुनौतियां हैं जिन्हें उन्हें आने वाले समय में झेलना होगा इन सभी चुनौतियों में जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है तराई और पहाड़ी इलाकों से आने वाले प्रतिनिधियों को एक साथ लाना. दरअसल जब केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने नागरिकता के मुद्दे पर तराई के इलाके में रहने वाले मधेसी समुदाय को अधिकार देने की बात स्वीकार कर ली थी. हालांकि शीर्ष अदालत ने मधेसी समुदाय को अधिक अधिकार देने के ओली के निर्णय को रद्द कर दिया था. अब जब शेर बहादुर देउबा नेपाल के नए प्रधानमंत्री हैं तो इनसे भी तराई के इलाकों से आने वाले दलों की कुछ अपेक्षाएं रहेंगी जिसे पूरा करना शेर बहादुर देउबा की मजबूरी होगी. हालांकि अगर शेर बहादुर देउबा मधेसी समुदाय को अधिकार देते हैं तो जाहिर सी बात है उससे पहाड़ी क्षेत्र के खेमे नाराज हो जाएंगे इसलिए शेर बहादुर देउबा को हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा और उन्हें देखना होगा कि किस तरह दोनों क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को एक साथ लेकर आगे चला जा सकता है.

शेर बहादुर देउबा के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत से बेहतर होंगे संबंध?

बीते कुछ वर्षों में नेपाल और चीन के संबंध पहले से कहीं ज्यादा बेहतर हुए, यहां तक कि नेपाल ने 2017 में चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव योजना का भी समर्थन किया था. नेपाल के कई गांव के स्कूलों में अब मंदारिन भाषा भी सिखाई जाने लगी है. हालांकि उस वक्त प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली थे जो नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे इस वजह से भी माना जा रहा था कि कम्युनिस्ट विचारधारा होने की वजह से उनका झुकाव चीन की तरफ ज्यादा था. लेकिन शेर बहादुर देउबा जो नेपाली कांग्रेस नेता हैं और नेपाली कांग्रेस का संबंध भारत के साथ पहले भी बहुत बेहतर रहा है भारत और नेपाल के बीच रोटी बेटी का संबंध कहा जाता है. इसलिए पूरी उम्मीद जताई जा रही है कि देउबा के नेपाल के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत से नेपाल के रिश्ते पहले से भी बेहतर साबित होंगे.

प्रचंड और ओली के बीच में फायदा उठा ले गए देउबा

नेपाल की सियासत में बीते कई महीनों से पुष्पकुमार दहल उर्फ प्रचंड और केपी शर्मा ओली के बीच सियासी जंग तेज थी. प्रचंड किसी भी कीमत पर ओली को नेपाल के प्रधानमंत्री पद से हटाना चाहते थे और ओली ने कसम खा रखी थी की वह प्रचंड को नेपाल का प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे. उन्होंने ओली पर इतना दबाव बनाया कि अंततः उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. हालांकि इस लड़ाई के बीच मलाई उठा ले गए 75 वर्षीय नेपाली कांग्रेस नेता शेर बहादुर देउबा.

शेर बहादुर देउबा इससे पहले भी चार बार नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं, वह पहली बार 1995 से 1997 तक रहे, दूसरी बार 2001 से 2002 तक रहे, तीसरी बार 2004 से 2005 और चौथी बार जून 2017 से फरवरी 2018 तक रहे. हालांकि शेर बहादुर देउबा आज तक अपना कोई भी कार्यकाल पूरा नहीं कर सके. इस बार भी शेर बहादुर देउबा ने भले ही प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली है, लेकिन उन्हें अपने पद पर बने रहने के लिए कई पापड़ बेलने होंगे चाहे वह अपने सहयोगी दलों को एक साथ रखना हो या फिर तराई और पहाड़ी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के बीच समन्वय बनाना हो.

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