सम्पादकीय

पंडित रविशंकर को 'संगना' का सुरीला प्रणाम!

Gulabi
26 Aug 2021 12:53 PM GMT
पंडित रविशंकर को संगना का सुरीला प्रणाम!
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भारत सरकार की संगीत नाटक अकादमी ने अपनी सांस्कृतिक पत्रिका ‘संगना’ का हाल ही प्रकाशित अंक पंडित रविशंकर के जीवन और सृजन पर केंद्रित किया है

विनय उपाध्यायकला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक।

हर आदमी में छिपे होते हैं कई आदमी, जब भी देखना कई बार देखना… मरहूम शायर निदा फाज़ली के इस शायराना इज़हार के साथ एक ऐसी शख्सियत का संदर्भ भी मौजूं हो उठता है, जिसे ठीक से जानने-पहचानने के लिए बार-बार, कई बार देखना ज़रूरी लगता है. समंदर की तरह विशाल और गहरा वजूद पाने वाले इस शख़्स को दुनिया ने पंडित रविशंकर के नाम से पहचाना. जीवित होते, तो रविशंकर अपनी उम्र की एक सदी जी रहे होते. इस दुनिया-ए-फ़ानी में वे अब नहीं हैं, लेकिन कहते हैं- आवाज़ें कभी मरती नहीं. सो रविशंकर जैसे भारत रत्न संगीत के सतरंगी आसमान पर एक सितारे की मानिंद अब भी वे रौशन है.


भारत सरकार की संगीत नाटक अकादमी ने अपनी सांस्कृतिक पत्रिका 'संगना' का हाल ही प्रकाशित अंक पंडित रविशंकर के जीवन और सृजन पर केंद्रित किया है. 275 से भी ज़्यादा पृष्ठों का यह दस्तावेज़ी प्रकाशन शताब्दी वर्ष में रविशंकर के महान सांगीतिक अवदान के प्रति राष्ट्र की सामूहिक प्रणति है. इस अंक में कमोबेश वो सब है, जो रविशंकर के व्यक्तित्व को समग्रता में देखने-समझने के लिए ज़रूरी है. संगीत की अध्येता और सुपरिचित कला प्रवक्ता सुनीरा कासलीवाल व्यास ने इस विशेष संस्करण का संपादन किया है. इन पृष्ठों पर एक ऐसे तेजोमय प्रवाह का अनुभव होता है, जो समूचे विश्व को अपनी सुरीली लहरों में समेटकर अनंत की सैर पर ले जाता है.

यादों, बातों और मुलाक़ातों का अनूठा सिलसिला है यहां, जो मुसलसल कुछ उजले, कुछ पोशीदा से पहलुओं का खुलासा करते हुए इस बात की तस्दीक करता है कि पंडित रविशंकर सितार के सिरमौर ही नहीं, संगीत के एक फरिश्ते की मानिंद इस क़ायनात में आए. देश-दुनिया के पच्चीस से भी ज़्यादा संगीतकारों, चिंतकों और कला अध्येताओं से हुए साक्षात्कारों की श्रृंखला इस अंक की उपलब्धि है. अधिकांश वे विद्वान-शागिर्द हैं, जिन्होंने रविशंकर का निकट सानिध्य पाया. उनके साथ संगत की या उनकी सोहबत में संगीत के प्रयोग किये. लिहाज़ा यहां रविशंकर की मेधा, कल्पना, प्रयोग और नवाचार तथा भारतीय शास्त्रीय संगीत की गुरूता और गहनता के प्रति विश्व मानवता को एक सूत्र में बांधने की रचनात्मक जिजीविषा को लक्ष्य किया जा सकता है.

देश-दुनिया की यात्राओं के बेशुमार कि़स्से

देश-दुनिया की यात्राओं के बेशुमार कि़स्से हैं. यहां कृतज्ञता के रसभीने बोल हैं, तो उनकी उस्तादी पर निहाल हो जाने वाली घटनाओं का जि़क्र है. मूर्धन्य तालमणि पंडित किशन महाराज रविशंकर के साथ दुर्लभ तबला संगत की यादें फरमाते हैं तो दूसरी ओर उस्ताद ज़ाकिर हुसैन कहते हैं कि रविशंकरजी से उन्हें मिली बड़ी तालीम. पंडित कृष्णराव पंडित रविशंकर को स्वतंत्र सितार वादक के रूप में नई शैली का प्रवर्तक मानते हैं, तो सितार वादक सतीशचन्द्र श्रीवास्तव मीड़-गमक और लयकारी का बेजोड़ फ़नकार कहते हुए रविशंकर से मिली सीखों का हवाला देते हैं.

इस अंक को पढ़ते हुए कई जानकारियां नए सिरे से मालूम होती है. 'सारे जहां से अच्छा' सुनकर प्रायः हमें इकबाल याद आती हैं, पर कम लोगों को पता होगा कि इसकी धुन पं. रविशंकर ने बनाई है. भारतीय स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती का पर्व जब मुंबई के एन.सी.पी.ए. (नेशनल सेण्टर फॉर परफॉर्मिंग आटर्स) में मनाया गया, तो 14 अगस्त 97 की रात पं. रविशंकर का कार्यक्रम रखा गया था. रात्रि बारह बजे समारोह का सबसे रोमांचक क्षण था, जब टाटा सभागार में अपना सितार वादन रोककर, स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती का स्वागत उन्होंने ख़ुद के बनाए 'शांतिमंत्र' से किया.

सभागार की बत्तियां धूमिल हो चलीं और रविशंकर के स्वर संयोजन में 'ऊँ शांति…' का सुरीला नाद फिज़ाओं में फैल गया. इसके तुरंत बाद उन्होंने सितार पर 'सारे जहाँ से अच्छा…' बजाया और फिर हज़ारों कण्ठों का समवेत स्वर गूंज उठा. सच ही है, मन में सुगंध की तरह फैलती है याद की धूप. धुंधली सी जाने कितनी तसवीरें रौशन होने लगती है. कोई पुराना संगीत भर देता है नए रंग और किसी सुरीली बंदिश की तरह वक्त फिर गा उठता है.
अपने नाम के अनुरूप सूर्य साबित हुए पंडित रव‍िशंकर
अपने नाम के अनुरूप वो एक ऐसा रवि (सूर्य) साबित हुआ, जिसने पूरब और पश्चिम की सरहदों के फासले मिटाए और सात सुरों की ज़मीन पर इंसानियत का पैगाम लिख दिया. सात अप्रैल 1920 को बनारस में संस्कृत के मूर्धन्य और नामी वकील के घर में जन्में रविशंकर 'भारत रत्न' से सम्मानित एक ऐसे विलक्षण संगीतकार के रूप में प्रकट हुए, जिसने मैहर के शारदा देवी धाम में बाबा उस्ताद अलाउद्दीन खां के साये में रहकर संगीत के सबक सीखे. एक दिन गुरू के ऋण को सिर माथे रख दुनिया की सैर पर निकल पड़ा उनका यह शागिर्द.

'संगना' के इस प्रकाशन में 'रागमाला' भी है. 'रागमाला' नाम से उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई है. इसके पहले 'माई म्यूजि़क माई लाइफ' में उन्होंने विशेष रूप से अपने संगीत पर ही लिखा था. ये किताबें पंडित रविशंकर की जि़ंदगी का आईना है. इन पन्नों पर हम एक ऐसे फ़नकार की शख्सियत से वाबस्ता होते हैं, जो तमाम असहमतियों-वर्जनाओं और विरोधाभासों का सामना करते हुए संगीत का क्रांतिकारी इतिहास रच रहा था.
यहूदी मेनहुईन, जॉर्ज हेरिसन, जुबीन मेहता, फिलिप ग्लास और जॉन पियरे जैसे पश्चिमी मुल्कों के संगीतकार रविशंकर की प्रतिभा, प्रयोग और प्रसिद्धि पर मुग्ध थे. ये वे परदेसी कलाकार थे, जिनके साज़ों पर भारत के गोमुख से फूटी स्वर-गंगा का नाद गूंजा. रविशंकर के दार्शनिक चिंतन से बैरागी भैरव, अहेरी ललित, तिलक श्याम और चारू कौंस जैसी लगभग बीस रागों की रचना हुई.

सिनेमा संगीत को दिया नया संस्‍कार

सिनेमा के संगीत को भी उन्होंने नया संस्कार दिया. वाद्यवृन्द को नयी तासीर दी. स्वीडेन के पोलर संगीत पुरस्कार से लेकर ग्रामी, ऑस्कर, पद्विभूषण और कालिदास सम्मानों ने रविशंकर के अद्वितीय योगदान पर स्वीकृति की मोहर लगायी. बेशक सितार की सुरम्य राग-परंपरा में नया अध्याय जोड़ा रविशंकर ने. उनका सितार गाता था. उनका सोच वैश्विक था. वे सच्चे अर्थों में भारत के सांस्कृतिक राजदूत थे.

पंडित रविशंकर की सोहबत जिन्हें भी मिली, वो इन क्षणों को जीवन का सौभाग्य ही मानता रहा. उनके व्यक्तित्व का जादुई करिश्मा ही था कि संग-साथ के संगीतकार और शागिर्द इस संयोग को सबक की तरह स्वीकार करते रहे. मूर्धन्य संतूर वादक और संगीतकार पंडित भजन सोपोरी उस लम्हे को कभी नहीं भूलते जब छः-सात बरस की उम्र में उन्होंने रविशंकरजी को पहली बार श्रीनगर में देखा था.

वे बताते हैं कि- सत्तर साल पुरानी बात है. पंडित रविशंकर श्रीनगर आए थे. उन दिनों राजनेता डॉ. कर्णसिंह जो, ख़ुद संगीत और अन्य कलाओं में गहरी रूचि रखते थे, उनकी पहल पर श्रीनगर के ही एक महल में पंडितजी की एक सभा आयोजित की गई थी. मेरे पिता तब श्रीनगर के एक स्कूल में अध्यापक थे और पंडित रविशंकर से उनका अच्छा परिचय हो गया था. पिताजी के आग्रह पर पंडितजी उनके स्कूल भी गये थे. वो पहला लम्हा था जब मैंने उनके दर्शन किये थे. यही वो मौक़ा भी था जब पिताजी ने उन्हें मेरी प्रतिभा से अवगत कराया था.

ऐसी डायमेंशनल पर्सनालिटी, जिसे वे सारे संसार किया स्वीकार

सोपोरी जोड़ते हैं कि यूं तो उनकी महानता के अनेक रूप हैं. मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि दुनिया में उनसे बड़ा कोई तंत्रकारी संगीतकार नहीं हुआ. मैं उन्हें नंबर वन मानता हूं. शास्त्रीय संगीत की जिस ज़मीन पर पांव रखकर उन्होंने चलना शुरू किया उसे सर्वोच्च शिखर तक तो जाना ही था. वे सारे संसार में स्वीकार किये गये तो इसलिए कि वे डायमेंशनल पर्सनालिटी थे. वे जहां भी गये, उनका अलग से नोटिस किया गया. मैं उनके फिल्म संगीत पर भी हमेशा मुग्ध रहा. उनकी धुनें और उनमें बरता गया वाद्य संगीत चलन में रहे सिने संगीत से निहायत अलहदा था. मेरी बातें सुनकर, मेरी प्रतिभा देखकर वे अक्सर मुझे कहते कि आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दो. आसमान खुला है, नई उड़ान भरो. फिर हंस देते.

रविशंकरजी के वाद्यवृन्द को लेकर अनूठे-प्रयोगों का जि़क्र करते हुए भजनजी ने बताया कि मैहर में अपने उस्ताद बाबा अलाउद्दीन खां के साए में रहकर उन्होंने कई सारे वाद्य बनते देखे, बजते देखे और ख़ुद भी उन्हें बजाना सीखा. यहीं से साज़ों के संगीत के प्रति उनका आकर्षण परवान चढ़ा.

ऑल इंडिया रेडियो के लिए पहला वाद्यवृन्द पंडितजी ने ही तैयार किया. इस वाद्यवृन्द ने कई धुनें बजायी. वे बहुत पापुलर हुई. श्रोताओं के ज़ेहन में उन्होंने गहरा असर किया. इस वाद्यवृन्द की तारीफ यह थी कि यह सच्चे अर्थों में 'अनेकता में एकता' का मंत्र बन गया. पंडितजी ने यहाँ नार्थ और साउथ को एक किया. दोनों राज्यों और वहाँ की परंपरा में परवरिश पाने वाले साज़ अपनी मौलिकता के साथ इस वृन्द में शामिल किये गये.

एक संगीत ऋषि को 'संगना' का यह सुरीला प्रणाम है.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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