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सूरज ने उत्तर की दिशा का रुख कर लिया है. ज्योतिष इसे मकर राशि में प्रवेश के साथ जोड़ता है
सूरज ने उत्तर की दिशा का रुख कर लिया है. ज्योतिष इसे मकर राशि में प्रवेश के साथ जोड़ता है. भारतीय जीवन और संस्कृति इसे शुभ और मंगलकारी मुहूर्त मानकर नई संभावनाओं का रूपक मानते हैं. यानि सूरज की महिमा, उसके महत्व और जीवन और प्रकृति में उसकी अहमियत का यह उत्सवी क्षण होता है. कहीं पढ़ा याद आता है कि समय ने सिर्फ उन्हें याद रखा जिनके पास सूर्य की तरह तप था. उगता हुआ सूरज एक महान घटना है. हजारों बरसों के सांस्कृतिक, पौराणिक, पुरातात्विक इतिहास पर नजर जाती है तो शिल्प कला के बेमिसाल नमूनों पर सूर्य की स्वर्णिम कथाएं समय का सच बयान करती दिखाई देती हैं. ये मूर्तियां इस तथ्य का भी खुलासा करती हैं कि भारतीय मानस में सूर्य का मिथक एक ऐसी दैवीय चमत्कारी शक्ति के इस सृष्टि में होने की तस्दीक करता है जो कण-कण में मौजूद है. वह पूजा-प्रार्थना, साधना, उपासना आदि अनेक विधियों के जरिये आत्मा में प्रकाश लाने वाला कारक है.
इन मूर्तियों में गहरे तक पैठी आस्था और पूजा के पवित्र भाव यह साबित करते हैं कि यह भुवन भास्कर सतरंगी जीवन अनुभूतियों का संचारक है. सूर्य है तो रंग हैं. वरना कालिमा डेरा डालने से नहीं चूकती. इन्हीं सूर्य किरणों ने हमारी मोर पंखी उम्मीदों को गति और साहस दिए हैं. जीवन की शक्ति का नियंता यह रवि हमारा मित्र है, हितैषी है. वह हमारी आत्म जागृति का प्रतीक है. सूरज की वजह से इस धरती पर ऋतुचक्र है. मौसम हैं, उत्सव हैं. दिशाओं की सुन्दरता है. नदी, झील और समंदर की निराली शोभा है. आसमान की सुन्दर शक्ले हैं. बाग-बगीचों और खेत-खलिहानों के मनछूते आंचल हैं. प्रकृति बार-बार अनेक तरह से सूरज का आभार मानती है.
भारतीय कला में सूर्य का अंकन देखते ही बनता है. ईसा पूर्व पहली सदी में निर्मित एक वैदिक स्तम्भ पर जो अब पुरातत्व-संग्रहालय, बोधगया में सुरक्षित है, सूर्य को चार घोड़ों वाले एक रथ पर विराजमान दिखाया गया है. इनके दोनों ओर एक-एक धनुर्धारिणी नारी बनी है. मिट्टी की बनी दो मूर्तियां बंगाल में चन्द्रकेतुगढ़ तथा बिहार में वसाढ़ नामक स्थान से भी प्राप्त हुई थीं. प्रथम मूर्ति जो अब कोलकाता के आशुतोष-संग्रहालय में प्रदर्शित है, उसका स्वरूप सूर्य के चार घोड़ों वाले रथ पर सवारी के रूप में हैं. इन्होंने कवच धारण कर रखा है. इस आशय से सम्बद्ध एक अन्य समकालीन मिट्टी की मूर्ति पटना-संग्रहालय में भी प्रदर्शित है. ओडिशा में खण्डगिरिकी 'अनन्तगुम्फा' गुहा में भी सूर्य को चार घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले एक रथ पर दिखाया गया है. दक्षिण में भाजा की गुफा के मुख्य द्वार के एक ओर सूर्य अपनी पत्नियों सहित चार घोड़ों वाले रथ पर विराजमान दिखाए गए हैं. कुषाणकाल- लगभग पहिली-दूसरी शती ईसवीं में भी सूर्य की अनेक प्रतिमाओं का निर्माण हुआ था. मथुरा से सूर्य की इस काल की अनेक प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं, जो सफेद चिटकीदार लाल बलुए पत्थर की बनी हैं. इनमें से कुछ में वे उत्कुटा आसन में बैठे हैं तथा कइयों में एक पहिये वाले रथ पर जिसे चार अश्व खींच रहे हैं, विराजमान दिखाए गए हैं.
सूर्य प्रतिमाओं के प्रामाणिक संदर्भों का जिक्र कुछ बरस पहले गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित 'कल्याण' के 'सूर्यांक' में मिलता है. इन संदर्भों से गुजरते हुए मालूम होता है कि मूर्तिशिल्पों का अध्ययन विश्व विद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले अध्यायों से कहीं ज्यादा रोचक और ज्ञानवर्धक है.
गुप्तकाल- (लगभग 325 ई. से छठा शती ई.) में सूर्य-पूजा का पर्याप्त प्रचार था तथा उनके निमित्त कई देवालयों का भी निर्माण हुआ था. इस युग की प्रतिमाओं में सबसे प्रसिद्ध प्रतिमा, जो खैरखनेह (अफगानिस्तान) से मिली थी, अब काबुल-संग्रहालय में प्रदर्शित है. श्वेत संगमरमर की इस कलात्मक प्रतिमा में सूर्य चार घोड़ों वाले रथ पर सवार हैं. जिसे सूर्य चला रहे हैं.
पूर्व मध्य युग में कश्मीर में सूर्य- पूजा का भी उल्लेख मिलता है. यहां पर ललितादित्य नामक शासक ने मार्तण्ड नामक प्रसिद्ध सूर्य देवालय का निर्माण करवाया था. इसके गर्भ गृह में अपने सूर्य की ही कलात्मक मूर्ति स्थापित की थी. अब यह मंदिर खंडहर में बदल रहा है. कश्मीर से ही प्राप्त कर्कोट-कालीन लगभग आठवीं शती ई. की एक सुन्दर कांस्य सूर्य मूर्ति अमेरिका के क्लीवलैण्ड-संग्रहालय में देखने को मिली थी. इसमें उन्होंने आकर्षक किरीट-मुकुट, चोलक, उपानह पहन रखे हैं तथा अपने दोनों हाथों में पूर्ण विकसित कमल धारण किए हैं. यह मूर्ति कांस्य कला का अद्वितीय उदाहरण है.
उत्तर भारत में मध्य युग में सूर्य-पूजा अपनी पराकष्ठा पर थी. प्रतिहार-वंश के कई शासक सूर्य-भक्त थे और उन्होंने कई देवालयों का निर्माण भी कराया था. राजस्थान में ओसियां नामक स्थान पर 10वीं शती ई. का बना सूर्य-मंदिर आज भी विद्यमान है.
प्रतिहार-शक्ति का हृास हो जाने पर राजस्थान में प्रतापी चौहान शासक तथा उत्तर प्रदेश में गाहड़वाल नरेशों ने शासन किया. चौहानकालीन हर्षनाथ, सीकर से प्राप्त एक सूर्य-मूर्ति अजमेर-संग्रहालय एवं किसी अन्य भाग से प्राप्त एक संगमरमर निर्मित प्रतिमा दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में देखी जा सकती है. ऐसे ही गोरखपुर तथा वाराणसी से प्राप्त सूर्य की कई सुन्दर मूर्तियां राज्य-संग्रहालय लखनऊ तथा भारत कला भवन, काशी में विद्यमान हैं.
गुजरात के चालुक्यवंशी शासकों के शासनकाल में मोढ़ेरा के प्रसिद्ध सूर्य-मंदिर का निर्माण हुआ जो इस समय खण्डित दशा में है. मध्य प्रदेश में चन्देल-शासकों के समय खजुराहो में चित्रगुप्त नामक सूर्य-मंदिर की स्थापना हुई थी. यहां पर बने अन्य देव-मंदिरों पर सूर्य की मूर्तियां आज भी देखी जा सकती हैं. इनके अतिरिक्त कई नवग्रह-पट्टों पर भी सूर्य का अंकन मिलता है. मध्य प्रदेश में ही चन्देलों के समकालीन सम्राटों के समय में भी अनेक सूर्य मूर्तियों का निर्माण हुआ है. इन सूर्य मूर्तियों में सम्भवतः सबसे सुन्दर मूर्ति भेड़ाघाट स्थित चौंसठ योगिनियों के मंदिर के मध्य बने गौरी-शंकर के देवालय में स्थित लगभग 11वीं-12वीं शती ई. की मूर्ति है, जिसमें उनको अपने रथ पर स्थानक मुद्रा में दर्शाया गया है.
पूर्वी भारत में पाल-शासकों के समय, जो यद्यपि बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, अनेक सूर्य-प्रतिमाओं का निर्माण हुआ, जो आज पटना-संग्रहालय, भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता-संग्रहालय तथा राज्य संग्रहालय गौहाटी की शोभा बढ़ा रही हैं. पालकालीन कुछ अन्य सूर्य-प्रतिमाएं ब्रिटिश-संग्रहालय लन्दन, फिलाडेल्फिया-संग्रहालय तथा सैन फ्रान्सिसको के प्रसिद्ध संग्रहालयों में भी विद्यमान हैं. प्रायः इन सभी मूर्तियों में उन्हें सात घोड़ों के रथ पर दिखाया गया है.
ओडिशा में मध्यकाल में सूर्य- पूजा का समान रूप से प्रचार था. यहां पूर्वी-गंगायुगीन शासकों ने अनेक सूर्य मूर्तियों का निर्माण करवाया, जिनमें सम्भवतः सबसे सुन्दर किचिंग-संगहालय की स्थानक सूर्य-मूर्ति है.
इसी वंश के प्रतापी शासक नरसिंह वर्मन ने कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाने पर विश्वप्रसिद्ध कोणार्क के सूर्य-मंदिर का निर्माण तेरहवीं शती के मध्य में कराया और उसमें कई कलात्मक सूर्य-मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी स्वयं की. दक्षिण भारत में भी सूर्य-पूजा होती थी. पल्लवों के समय मयूर कवि ने 'सूर्यशतक' की रचना की थी. पल्लव-सम्राटों के समय सूर्य के अनेक देवालय एवं मूर्तियों का निर्माण हुआ. कर्नाटक में मैसूर के समीप स्थित हेलिविद एवं बेलूर के मध्यकालीन मंदिरों पर भी अनेक सूर्य-मूर्तियां उत्कीर्ण मिली हैं, जो लगभग 12वीं-13 वीं शती ई. की हैं. इनमें से कई मूर्तियां उत्तरी भारत की मूर्तियों की भांति सात घोड़ों वाले रथ पर स्थानक-मुद्रा में मिलती है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विनय उपाध्याय कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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