सम्पादकीय

पूरी हुई एक लंबी प्रतीक्षा, भारतीय भाषाओं में चिकित्सा के अलावा अन्य विषयों की शिक्षा देने की हो पहल

Rani Sahu
18 Oct 2022 6:13 PM GMT
पूरी हुई एक लंबी प्रतीक्षा, भारतीय भाषाओं में चिकित्सा के अलावा अन्य विषयों की शिक्षा देने की हो पहल
x
सोर्स - JAGRAN

प्रेमपाल शर्मा : बीता रविवार देश में चिकित्सा शिक्षा की दृष्टि से ऐतिहासिक रहा, जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एमबीबीएस की पढ़ाई से जुड़ी हिंदी की तीन पाठ्यपुस्तकों का विमोचन किया। डाक्टरी की हिंदी माध्यम में पढ़ाई की पहल का श्रेय मध्य प्रदेश सरकार को जाता है। यहां 13 मेडिकल कालेजों ने हिंदी माध्यम में पढ़ाई की शुरुआत की है। इस कड़ी में अभी केवल बायोकेमेस्ट्री, मेडिकल फिजियोलाजी और मेडिकल एनाटामी की किताबें आई हैं। जल्द ही अन्य विषयों की पुस्तकें उपलब्ध होंगी।

इसके लिए तैयारी और मेहनत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि करीब सौ डाक्टरों की ऐसी टीम को किताबें लिखने के लिए लगाया गया, जो हिंदी माध्यम से पढ़े हैं और अंग्रेजी भी अच्छी जानते हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि केवल अंग्रेजी नामों को ही हिंदी में लिख दिया गया है तो वे यह जान लें कि इसमें अंग्रेजी के आम प्रचलन वाले तकनीकी शब्दों को आत्मसात किया गया है, जो पूरी तरह व्यावहारिक है। वैसे भी वैश्विक होती दुनिया में भाषाई शुद्धतावाद से अधिक ज्ञान की समझ और सहजता जरूरी है। वस्तुत:, अमृत काल के दौरान शिक्षा में यह शुरुआत किसी क्रांति से कम नहीं है।

हाल में एक संसदीय समिति ने सिफारिश की थी कि हिंदी प्रदेश के संस्थानों में मेडिकल के अलावा अन्य विषयों की शिक्षा भी हिंदी में दी जानी चाहिए और देश के दूसरे प्रदेश भी अपनी भाषाओं में ऐसी शुरुआत करें। वैसे सिफारिशें तो न जाने कितनी होती हैं, लेकिन भाषा के मसले पर इस सरकार ने ऐतिहासिक काम किया है। वह अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने के गांधीजी के स्वप्न को साकार करने में लगी है। आश्चर्य है कि दक्षिण के कुछ राज्य और हर बात का विरोध करने वाले तमाम नेता ऐसी पहल का विरोध कर रहे हैं।

तमिलनाडु के जो लोग तमिल माध्यम में शिक्षा की वकालत करते हैं और जिन करुणानिधि ने राज्य के सभी सरकारी स्कूलों में तमिल माध्यम अनिवार्य किया, उनके उत्तराधिकारी किस मुंह से ऐसी अनुशंसा का विरोध कर रहे हैं? यही बात केरल और दूसरे राज्यों पर लागू होती है। संसदीय समिति ने केवल हिंदी के लिए ही नहीं कहा। उसने सभी राज्यों से अपनी मातृभाषा में शिक्षा देने की पैरवी की है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी इसी बात को रेखांकित करती है कि जहां तक संभव हो प्राथमिक और उससे आगे की शिक्षा अपनी भाषाओं में दी जाए। क्या यह संविधान की आत्मा का ही विस्तार नहीं है, जिसे अमृत काल तक अपनी भाषा में शिक्षा देने की प्रतीक्षा करनी पड़ी। वह भी तब जब देश के करीब 95% बच्चे अपनी मातृभाषा में पढ़ाई करते हैं।

हिंदी में चिकित्सा शिक्षा की पहल को दूसरे नजरिये से भी देखा जाना चाहिए। ऐसी विशेषज्ञता वाली पढ़ाई कड़ी मेहनत मांगती है। उसमें छात्रों का पूरा ध्यान भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान जैसे विषयों पर होता है। इनमें तमाम छात्र अपनी भाषा में तो सहज होते हैं, लेकिन अंग्रेजी पर उनका वैसा अधिकार नहीं होता। इसी कारण तमाम छात्रों को पीड़ा होती है कि प्रथम वर्ष में अंग्रेजी माध्यम बहुत मुश्किल होता है। ऐसी स्थिति में उन्हें अंग्रेजी पर अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है, जिससे अन्य आवश्यक विषयों के लिए उन्हें कम समय मिलता है। क्या यह उनकी प्रतिभा का गला घोंटना नहीं है? क्या जबरन विदेशी भाषा लादना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है। कुछ महीनों पहले यूक्रेन, चीन और दूसरे देशों में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्रों की आवाज पूरे देश ने सुनी होगी कि वहां जाते ही सबसे पहले उन्हें उनकी भाषा सीखनी पड़ती है।

अंग्रेजी भाषा के मसले पर देश भर में आत्महत्या की खबरें लगातार आती रही हैं। याद कीजिए 2012 में दिल्ली एम्स में अनिल मीणा नामक छात्र ने यही लिखकर आत्महत्या की थी कि न मेरी समझ में अंग्रेजी आती है और न ही इसमें कोई मेरी मदद करता है। आइआइटी जैसे संस्थानों में भी प्रथम वर्ष में बच्चे अंग्रेजी की वजह से लगातार फेल होते रहते हैं। इस कारण इंजीनियरिंग और दूसरे महत्वपूर्ण विषयों में अपनी प्रतिभा को निखारने के बजाय उनकी पूरी ताकत अंग्रेजी ठीक करने में ही लगी रहती है। इस संवेदनशील पहलू पर प्रख्यात शिक्षाविद् दौलत सिंह कोठारी ने 1976 में अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि क्या सारी प्रतिभा अंग्रेजी में ही होती है? उन्होंने सभी प्रशासनिक सेवाओं को वर्ष 1979 से अपनी भाषाओं में करने की सिफारिश की थी। हालांकि वह सपना अभी भी आधा-अधूरा है।

चिकित्सा के अलावा देश के 10 राज्यों के कुछ कालेजों में इंजीनियरिंग की पढ़ाई छह भारतीय भाषाओं में शुरू हुई है। मेडिकल एंट्रेंस की परीक्षा आठ भाषाओं से शुरू होकर अब 13 भाषाओं में हो रही है। इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में भी ऐसा ही रुझान है। इसमें तकनीक का महत्वपूर्ण योगदान है, लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है सत्ता की दृढ़ इच्छाशक्ति। न्यायपालिका में भी देर से ही सही अपनी भाषाओं की तरफ कुछ कदम बढ़े हैं, जैसे गवाहों को अपनी भाषा में बयान देने का प्रविधान। सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण निर्णय भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराए गए हैं। ला एंट्रेंस और कैट एंट्रेंस भी अपनी भाषाओं में देने पर काम चल रहा है। इसके बावजूद संघ लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग, बैंकों और एनडीए की परीक्षाओं में अभी भी अंग्रेजी जरूरत से ज्यादा हावी है। ऐसी स्थितियों के लिए आजादी के तुरंत बाद सत्ता में आए लोग भी जिम्मेदार रहे, क्योंकि उन पर अंग्रेजी इस कदर हावी थी कि उन्होंने न केवल भाषा के मसले को, बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही पटरी से उतार दिया।

यह भी सच है कि भाषा-संस्कृति के मसले रातोंरात हल नहीं होते। इसीलिए पिछले आठ-नौ साल से गहन मंथन के बाद इस दिशा में जो कदम बढ़े हैं, उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। उम्मीद है ये कदम रुकेंगे नहीं। इसके साथ ही यदि बुद्धिजीवी वर्ग भी संविधान की आवाज सुनते हुए अपनी भाषाओं के पक्ष में राजनीतिक पूर्वाग्रह छोड़कर आगे आए तो इससे न केवल देश का भला होगा, बल्कि उनकी भाषा, संस्कृति और साहित्य भी बचे रहेंगे।

Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story