सम्पादकीय

थोड़ी गुस्ताख़ हंसी भी ज़रूरी है, कुछ चुभने वाले व्यंग्य चाहिए

Rani Sahu
28 May 2022 5:16 PM GMT
थोड़ी गुस्ताख़ हंसी भी ज़रूरी है, कुछ चुभने वाले व्यंग्य चाहिए
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एक चुटकुला और याद आता है- संयुक्त राष्ट्र ने एक वैश्विक सर्वे किया

'9/11 और एक गाय में क्या अंतर है?

9/11 को लेकर अमेरिका में चली राजनीति पर इस चुटकुले की वजह से किसी को गिरफ़्तार नहीं किया गया. किसी ने नहीं कहा कि ये आतंक के ख़िलाफ़ अमेरिका के युद्ध का मज़ाक बनाना है.
एक चुटकुला और याद आता है- संयुक्त राष्ट्र ने एक वैश्विक सर्वे किया. सर्वे में बस एक ही सवाल था- क्या आप कृपया बाक़ी दुनिया में भोजन की कमी के हल को लेकर अपनी ईमानदार राय देंगे? सर्वे बुरी तरह नाकाम रहा. अफ़्रीका में किसी को 'भोजन' का मतलब मालूम नहीं था. पूर्वी यूरोप में किसी को 'ईमानदार' का अर्थ पता नहीं था, पश्चिमी यूरोप में 'कमी' का अर्थ पता नहीं था, चीन में लोग नहीं जानते थे कि 'राय' क्या होती है. मध्य पूर्व में लोगों को 'हल' का मतलब मालूम नहीं था तो दक्षिण अमेरिका में 'कृपया' का. और अमेरिकियों को नहीं पता था कि 'बाक़ी दुनिया' का मतलब क्या होता है.
ये 1940 का साल था जब चार्ली चैपलिन ने 'द ग्रेट डिक्टेटर' बनाई थी. उनकी यह कह कर आलोचना की गई कि वे एक बहुत ही गंभीर मसले को हल्के ढंग से ले रहे हैं. चैपलिन ने न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में इसका जवाब दिया था. उन्होंने कहा- 'निराशावादी कहते हैं कि मैं नाकाम हो सकता हूं. तानाशाह मनोरंजक नहीं रह गए हैं, ये बुराई कहीं ज़्यादा संगीन है. ये बात ग़लत है. मैं जानता हूं कि शक्ति को हमेशा हास्यास्पद बनाया जा सकता है.'
शक्ति को हास्यास्पद बनाना ज़रूरी होता है. सत्ता और शक्ति की क्रूरता के ख़िलाफ़ जब बहुत सारी कार्रवाइयां विफल हो जाती हैं तो शायद हंसी उसका एक जवाब बनती है- वह गूंजती हुई हंसी हो सकती है, फुसफुसाती हुई हंसी हो सकती है, कोई तीखा व्यंग्य हो सकता है, कोई चुटीला चुटकुला हो सकता है- लेकिन ये सब उस विराट गुब्बारे में पिन चुभोने का काम करते हैं जो किसी अधिनायकवादी प्रवृत्ति के तानाशाह की ताकत के मिथ से बनता है. कई बार यह अधिनायकत्व लोकप्रियता या धार्मिक आस्था का कवच पहन लेता है तो हंसी की यह कार्रवाई भी संकट में पड़ जाती है.
ये सारी बातें पिछले दिनों के कई प्रसंगों को याद करते हुए ध्यान में आईं. देश में बहुत आक्रामक क़िस्म की बांटने वाली जो राजनीति पिछले दिनों चल रही है और जिसकी छाया समाज पर भी डरावने ढंग से बड़ी होती जा रही है, उसको लेकर कुछ मित्रों की 'हल्की' टिप्पणियों की बहुत आलोचना हुई. ख़ास कर ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग मिलने के दावे पर प्रोफेसर रतनलाल के ट्वीट पर धार्मिक भावनाएं आहत होने का ऐसा डर पैदा किया गया कि उनकी गिरफ़्तारी तक की गई. बेशक, सबने इस गिरफ़्तारी की आलोचना की, लेकिन दूसरी ही सांस में यह भी माना कि ऐसा ट्वीट उन्हें नहीं करना चाहिए था. कुछ अतिरिक्त संवेदनशील लोगों ने तो उनको विश्वविद्यालय से बर्खास्त करने की मांग तक कर डाली. इसके अलावा फेसबुक पर भी शिवलिंग बरामदगी के दावे पर हल्के ढंग से जो सवाल उठाए गए, उन्हें गलत बताया गया. यह दलील दी गई कि ऐसी हरकतों से वास्तविक लड़ाई कमज़ोर पड़ती है. ज्ञानवापी मस्जिद जैसे मसले पर बहुत गंभीरता से लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है.
लेकिन सच्चाई क्या है? लोगों ने इतिहास और आस्था के नाम पर देश का मज़ाक बना कर रख दिया है. ताजमहल के कमरे खुलवाने से लेकर क़ुतुब मीनार के परिसर में पूजा पाठ की इजाज़त मांगने और ज्ञानवापी मस्जिद में हिंदू धर्म चिह्नों की बरामदगी का दावा करने तक जैसे एक तमाशा चल रहा है. मीडिया पर ज्ञानवापी के मुकदमे के हिंदू पक्ष के वकीलों को सुनिए तो हर बार वे अदालती कार्यवाही की जानकारी देने के बाद धार्मिक नारेबाज़ी करने से चूकते नहीं. अदालत सर्वे का आदेश दे देती है और उनके लिए जिन कमिश्नरों को नियुक्त करती है वे आपस में झगड़ पड़ते हैं. जिस सर्वे के नतीजों को अभी तक आधिकारिक तौर पर सार्वजनिक नहीं किया गया है, उसको आधार बना कर एक अन्य अर्जी डाली जाती है कि ज्ञानवापी मस्जिद में मुसलमानों को दाख़िल होने से रोका जाए.
इसके समानांतर मीडिया, सामाजिक संगठनों, घरों-परिवारों में चलने वाले वाट्सऐप समूहों, यू ट्यूब पर कुकुरमुत्तों की तरह उगे ढेर सारे यू ट्यूब चैनलों पर चौबीस घंटे चल रहे अनथक प्रलाप को देखें तो लगेगा कि हम धर्म, राष्ट्र और इतिहास के नाम पर चलाए जा रहे एक विराट चुटकुले के, एक लंबे असमाप्त प्रहसन के कॉमिक किरदार बना कर छोड़ दिए गए हैं. और हमारी मासूमियत ऐसी है कि हम इस पर संजीदगी से बहस करना चाहते हैं. जो इस देश में संजीदगी से बहस करने वाले लोग हैं उन्हें तो बिल्कुल खलनायक या अप्रासंगिक बना कर छोड़ दिया गया है. इस देश के इतिहासकारों, कलाकारों, लेखकों, नाट्यकर्मियों, अर्थशास्त्रियों की राय और सोच की कोई क़ीमत नहीं रह गई है, जो कुछ तय कर रहे हैं, वे राजनीति दलों के आइटी सेल में बैठे बहुत खुर्राट क़िस्म के कारोबारी लोग कर रहे हैं जिनकी इकलौती नज़र ऐसी चमकदार-चालू भाषा पर रहती है जिससे सत्य कुछ धुंधला हो जाए और वोट कुछ पक्के हो जाएं. इसके समानांतर घर-परिवारों के भीतर अचानक जो उन्मादी किस्म की देशभक्ति जाग गई है, देवताओं को स्थापित करने की जो ज़िद पैदा हो गई है, उससे आप कैसे लड़ेंगे? वह कौन सा गंभीर विमर्श है जिससे इन हालात का मुक़ाबला होगा. और वे हालात क्या आपके लिए बहुत ठोस रूप में मौजूद हैं? इमरजेंसी नहीं है, लेकिन इमरजेंसी जैसा माहौल है, आत्मनिर्भरता नहीं है लेकिन आत्मनिर्भरता की गूंज है, बेरोज़गारी और महंगाई है लेकिन किसी को नज़र नहीं आ रही, लगातार कमज़ोर पड़ता रुपया है, लेकिन किसी को एहसास नहीं, लूट और भ्रष्टाचार का एक छुपा हुआ सिलसिला भी है लेकिन कोई मानने को तैयार नहीं. जैसे यह एक अतियथार्थवादी दृश्य हो, जैसे कोई मायावी परदा हो, जिसे भेदने की कोशिश कर रहे लोग उसे छूते ही कीट-पतंगों में बदल जाते हैं.
इस नए बनाए जा रहे यथार्थ से आप तर्कों और तथ्यों से नहीं लड़ सकते. ऐसा नहीं कि वे बेमानी हैं. वे किसी लंबी लड़ाई के सबसे महत्वपूर्ण और विश्वसनीय हथियार हैं. जब ये ज्वार उतरेगा, जब ये बाढ़ लौट जाएगी, तब इन्हीं तर्कों और तथ्यों की नाव पर बैठ कर हम अपने समाज की पुनर्रचना कर पाएंगे. बेशक, फिलहाल यह दूर का सपना है, लेकिन इसे बचाए रखने के लिए ज़रूरी है कि प्रतिरोध की बहुत सारी आवाज़ें गूंजती रहें- कुछ लेखों और विचारों की शक्ल में, कुछ नारों के रूप में, कुछ कविताओं और गीतों में और कुछ चुटकुलों में भी.
चुटकुलों पर लौटते हैं. दरअसल प्रतिरोध का मनोबल बनाए रखने में उन्होंने कई बार ऐतिहासिक भूमिका निभाई है. चालीस के दशक के नाजी जर्मनी में 'व्हिस्परिंग जोक्स' हुआ करते थे- बोलने की आज़ादी नहीं थी तो ऐसे फुसफुसाते हुए चुटकुले जिनमें लोगों का गुस्सा अभिव्यक्ति पाता था. आगे बढ़ने से पहले ऐसा ही एक चुटकुला सुन लीजिए. समंदर में एक जहाज़ पर हिटलर और उसके सारे भरोसेमंद लोग थे. अचानक ज़ोरदार तूफ़ान आया. लगा कि जहाज़ डूब जाएगा. लेकिन कुछ देर बाद हवा मंद पड़ गई, जहाज़ अपनी लय पर लौट आया. हिटलर के सहयोगी ने कहा, शुक्र है आज कोई नहीं बचता. जहाज़ के कैप्टन ने फुसफुसाते हुए कहा- जर्मनी बच जाता.
जर्मनी लेकिन नहीं बचा. 60 लाख यहूदियों का ख़ून बहाने के बाद हिटलर ने आत्महत्या कर ली. उसके सहयोगी मुसोलिनी को भागते हुए सेना ने पकड़ा और शहर के चौराहे पर ला खड़ा किया. उसे भी गोलियां मारी गईं. 13 साल तक उसके शव को ढंग से दफ़नाया नहीं जा सका. लेकिन वे चुटकुले बचे हुए हैं जिन्होंने प्रतिरोध का अपना व्याकरण बनाया.
हंसी को लेकर रघुवीर सहाय के बहुत मानीखेज व्याख्याएं हैं. 'हंसो-हंसो जल्दी हंसो' उनके संग्रह का नाम है. लेकिन उनको पता है कि हंसने की आजादी और हंसने की विवशता और हंसने की विडंबना सब अलग-अलग होती है. 'हंसो कि तुम पर नज़र रखी जा रही है' से लेकर 'कौन नहीं है भ्रष्टाचारी कह कर आप हंसे' तक आते-आते बीच में वे कह डालते हैं- 'लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कह कर आप हंसे.'
निश्चय ही लोकतंत्र का यह अंतिम क्षण नहीं है. यह बताने वाला बहुत सारा बेबस गुस्सा हमारे बीच पसरा हुआ है. इसे कुछ चुटकुलों, कुछ अशालीन लगते ट्वीट्स की मार्फ़त भी व्यक्त किया जा रहा है तो सहन करें. आख़िर बोलने वालों की घेराबंदी के लिए कोई बहाना नहीं चाहिए. रतनलाल को धार्मिक भावनाएं भड़काने के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया था, उन्हें ज़मानत मिल गई. हम सबके परिचित मित्र, बंधु, लेखक और फिल्मकार अविनाश के ख़िलाफ़ गुजरात पुलिस ने एफ़आइआर कर रखी है. अग्रिम ज़मानत लेने के लिए वे हाइकोर्ट पहुंचे तो हाइकोर्ट ने कहा कि उन्हें अहमदाबाद कोर्ट में इसकी अर्ज़ी देनी चाहिए. अविनाश जानते हैं कि अहमदाबाद पुलिस उन्हें कोर्ट तक पहुंचने न देने की पूरी कोशिश करेगी.
लेकिन अविनाश के ख़िलाफ़ एफ़आइआर दर्ज क्यों की गई है? क्योंकि उन्होंने एक तस्वीर साझा की जिसमें गृह मंत्री अमित शाह आइएएस अघिकारी पूजा सिंघल के साथ दिख रहे हैं. पूजा सिंघल वे आइएएस हैं जिनके घरों और ठिकानों पर पिछले दिनों पड़े छापे में क़रीब 20 करोड़ की बरामदगी हुई थी. उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था. अविनाश पर यह आरोप नहीं है कि उन्होंने कोई फ़र्ज़ी तस्वीर लगा दी. उन पर आरोप ये है कि उन्होंने 2017 की एक तस्वीर लगाई है. यह कितना बड़ा गुनाह है? इत्तिफ़ाक़ से जिस मनरेगा घोटाले के आरोप में पूजा सिंघल को पकड़ा गया है, वह भी इसी दौर का है. क्या इस तस्वीर की मार्फ़त अविनाश ये संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि जिस पूजा सिंघल के घोटाले को राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से जोड़ा जा रहा है, वे अमित शाह के करीब भी रही हैं? यह संदेश सही है या गलत है, इसका फ़ैसला तथ्य करेंगे, लेकिन उसके पहले अविनाश को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी. इसके बावजूद कि अदालत ने कह रखा है कि ऐसे मामलों में सीधे गिरफ़्तारी न की जाए, पहले नोटिस दिया जाए. रतनलाल के मामले में अदालत ने ठीक कहा कि संभव है, यह बैकफ़ायर हुआ व्यंग्य हो, लेकिन इसमें समाज में दुश्मनी फैलाने वाली दुर्भावना नहीं है.
यह भी एक चुटकुला है कि जो लोग ऐसी दुर्भावना सबसे ज़्यादा फैला रहे हैं, वही दूसरों पर सबसे ज़्यादा मुक़दमे कर रहे हैं. उनकी धार्मिक आस्थाएं सबसे ज्यादा आहत हो रही हैं. वे दरअसल परंपरा को भी नहीं पहचानते वरना उन्हें पता होता कि देवताओं के नाम पर भी हमारे लोक में बहुत सारे मज़ाक प्रचलित हैं. एक दौर में गड़बड़ रामायण तक सुनाई जाती थी और रामलीलाओं के दौरान तरह-तरह के क़िस्से बनते थे. लेकिन तब किसी की आस्था आहत नहीं होती थी और न ही राम या कृष्ण की मर्यादा भंग होती थी. शिव तो खैर लोकस्मृति में ऐसी मर्यादाओं के पार रहे हैं.
हरिशंकर परसाई ने बहुत सारे व्यंग्य हनुमानजी के आसपास लिखे. नेता, अफ़सर, मंत्री-प्रधानमंत्री-भगवान- सबका मज़ाक बनाया. उनका एक और किस्सा याद आया जो उन्होंने कबीर को लेकर लिखा है-
'कबीर-पंथियों ने मुझे ये खबर सुनाई.
कबीरदास बकरी पालते थे. पास में मंदिर था. बकरी वहां घुस जाती और बगीचे के पत्ते खा जाती. एक दिन पुजारी ने शिकायत की, 'कबीरदास, तुम्हारी बकरी मंदिर में घुस आती है. "
कबीर ने जवाब दिया, "पंडित जी , जानवर है. चली जाती होगी मंदिर में. मैं तो नहीं गया. '
हरिशंकर परसाई ने ये सब आज लिखे होते तो उन्हें जेल होती. जेल न होती तो पिटते ज़रूर.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...


Rani Sahu

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