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सोर्स- Jagran
ए. सूर्यप्रकाश। कांग्रेस पार्टी और गुलाम नबी आजाद का 50 साल पुराना रिश्ता बीते दिनों टूट गया। यह काम कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के ठीक पहले हुआ। नि:संदेह यह कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है, लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए उससे भी बड़ी चिंता की बात वह पत्र है, जिसमें आजाद ने पार्टी से नाता तोड़ने के कारणों का उल्लेख किया है। यह पत्र दर्शाता है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम की सारथी रही कांग्रेस आज किस कदर लुंजपुंज हो चुकी है। आजाद कांग्रेस की पारंपरिक शैली में पगे खांटी नेता रहे हैं। सौम्य, विचारशील और लोकतांत्रिक गुणों से ओतप्रोत आजाद ने राष्ट्रीय राजनीति में एक सम्मानित पारी खेली है।
आत्मघात पर आमादा कोई पार्टी या संगठन ही ऐसे नेता को इतना असहज कर सकता है कि वह उसे छोड़ने पर बाध्य हो जाए। पिछले दशक से ही कांग्रेस का पराभव होता दिख रहा है। इससे चिंतित आजाद और उनके जैसे प्रतिबद्ध कांग्रेसियों ने अपना एक समूह गठित किया। उसे जी-23 का नाम दिया गया। इस समूह ने दो वर्ष पहले पार्टी की दशा-दिशा सुधारने के लिए अपने स्वर मुखर करने का साहस किया, लेकिन अपने प्रयासों में उन्हें मामूली सफलता ही मिली।
पार्टी दिग्गजों के विवेकशील सुझावों को सुनने के बजाय पार्टी के सर्वेसर्वा गांधी-नेहरू परिवार ने जी-23 समूह के सदस्यों के विरुद्ध ही शातिर अभियान छेड़ दिया, जिसने उन्हें या तो झुकने या फिर आजाद की तरह पार्टी से बाहर निकलने पर विवश किया। अब यह कोई दबी-छिपी बात नहीं रही कि कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह गांधी-नेहरू परिवार के चंगुल से छूटने में अक्षम हो गई है। यह परिवार विचारशून्य हो गया है। वह पार्टी की कमान किसी ऐसे ऊर्जावान नेता को सौंपने के लिए भी तैयार नहीं, जो उसके कायाकल्प का प्रयास कर सके।
राजीव गांधी के निधन के बाद कुछ समय के लिए परिदृश्य से गायब रहकर 1996 में पार्टी के लचर प्रदर्शन के बाद गांधी परिवार ने फिर से पार्टी पर पकड़ बनाई। 1996 के चुनाव की बात करें तो पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में पार्टी को 28.80 प्रतिशत मत और 140 सीटें हासिल हुईं। ऐसे प्रदर्शन को बेहद खराब माना गया। राव को पार्टी अध्यक्ष पद से चलता कर उनकी जगह सीताराम केसरी की ताजपोशी हुई, परंतु परिवार के वफादारों को यही महसूस हुआ कि जब तक खानदान से कोई कमान नहीं संभालेगा, तब तक पार्टी अपनी खोई जमीन हासिल नहीं कर सकती। इसके बाद केसरी का तख्तापलट हुआ और 1998 में सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष बनीं। पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण करने के चंद महीनों में ही वह पार्टी की मुखिया बन गईं। फिर 2017 में उन्होंने राहुल गांधी को कमान सौंपी। दो साल अध्यक्ष बने रहने के बाद राहुल ने वही कमान वापस अपनी मां को लौटा दी।
सोनिया गांधी के अध्यक्षीय काल में 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा। उस चुनाव में पार्टी को 28.55 प्रतिशत वोट और 206 सीटें मिलीं। भरोसेमंद विकल्प देने में भाजपा की नाकामी कांग्रेस के इतने अच्छे प्रदर्शन की प्रमुख वजह रही। वहीं राष्ट्रीय परिदृश्य पर नरेन्द्र मोदी के उभार से कांग्रेस की हालत पतली होती गई। पिछले दो आम चुनावों में पार्टी को 20 प्रतिशत वोट तक नसीब नहीं हुए और वह इतनी सीटें भी नहीं जीत पाई कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के के लिए दावा कर सके। मौजूदा रुझानों के हिसाब से पार्टी का राष्ट्रीय वोट और दरक सकता है। यह उस पार्टी की स्थिति है, जो एक समय 42 से 45 प्रतिशत तक वोट प्रतिशत प्राप्त करती रही।
वापस आजाद के मुद्दे की ओर लौटते हैं। पिछली सदी के आठवें दशक के मध्य में वह पार्टी से जुड़े। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, राव और मनमोहन सरकार में मंत्री रहे। पार्टी संगठन में भी उन्हें महत्वपूर्ण दायित्व मिले। उन्होंने कांग्रेस की परंपराओं का गरिमा के साथ निर्वहन किया। उनकी विनम्रता को देखते हुए कोई बस अनुमान ही लगा सकता है कि राहुल गांधी के प्रति इतने तल्ख बयानों के लिए उन्हें किन बातों ने उद्वेलित किया होगा। उन्होंने राहुल पर पार्टी को बर्बाद करने का आरोप लगाते हुए कहा कि स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि नए दरबारी और उनके सुरक्षा गार्ड तक अहम फैसले करने लगे हैं।
मनमोहन सरकार के दौरान अध्यादेश की प्रति फाड़ने के राहुल के व्यवहार को भी उन्होंने 'बचकाना' बताया। आजाद की चिट्ठी एक तरह से राहुल गांधी के प्रति ऐसा आरोप-पत्र है, जो पिछले आठ वर्षों में कांग्रेस के त्रासद पराभव के कारणों की तह तक जाता है। उन्होंने अगस्त 2020 के वाकये का भी उल्लेख किया कि दरबारियों ने किस प्रकार जी-23 के सदस्य नेताओं को हरसंभव तरीके से निशाना बनाकर प्रताड़ित किया। खुद आजाद का जम्मू में 'क्रियाकर्म' जैसा किया गया।
कपिल सिब्बल के आवास पर हमला हुआ और ऐसी उद्दंडता करने वालों को दिल्ली में कांग्रेस के महासचिव और खुद राहुल गांधी से सराहना मिली। आजाद के अनुसार पिछले आम चुनाव में हार के बाद पार्टी ने लड़ने की क्षमता और इच्छाशक्ति ही गंवा दी। उनके पत्र ने पार्टी को चला रहे मां-बेटे की जोड़ी को आईना दिखाया कि 2014 से 2022 के बीच पार्टी किस प्रकार 49 में से 39 विधानसभा चुनाव हार गई। अंत में आजाद कहते हैं कि कांग्रेस पूर्ण विध्वंस के ऐसे पड़ाव पर पहुंच गई है, जहां से वापसी की कोई राह नहीं दिखती।
यूं तो बीते कई वर्षों के दौरान कांग्रेस में तमाम नेता आए-गए, लेकिन आजाद के जाने के गहरे निहितार्थ हैं। यह कांग्रेस और भारतीय लोकतंत्र के लिए भी अच्छा नहीं, क्योंकि इससे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के मुकाबले विश्वसनीय विपक्ष का विचार कमजोर होगा। भाजपा कई साल पहले ही 'कांग्रेस-मुक्त भारत' बनाने का एलान कर चुकी है, लेकिन लगता है कि इसके लिए भाजपा को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। कांग्रेस नेता ही इस मुहिम में लगे हुए दिखते हैं और पार्टी विखंडित हो रही है। पार्टी के भीतर की थाह ली जाए तो गांधी परिवार के नेतृत्व से मुक्त कांग्रेस इस पतन को थामकर भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को पूरा होने से रोक सकती है।

Rani Sahu
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