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- समापन की ओर एक इतिहास
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By: divyahimachal
आज एक राजनीतिक इतिहास का अस्तित्व समाप्तप्राय: है। बाल ठाकरे ने जिस 'शिवसेना' का गठन किया था और अपने मकसद की चिंघाड़ भरी थी, वह आज समय के किसी गहरे गर्त में समा गया लगता है। शिवसेना का मकसद तो अधूरा ही रहा, लेकिन ठाकरे की विरासत पर शिवसेना के ही दो गुट इस कदर भिड़े हैं मानो बाप की संपदा का बंटवारा होना है और वे धनाढ्य हो सकते हैं। सीधे-सपाट शब्दों में कहें, तो ठाकरे के नाम पर वोट की सियासत ही लड़ाई की जड़ है। चुनाव आयोग के अंतरिम फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी राजनीतिक दल का उत्तराधिकार 'पैतृक' नहीं होता, लिहाजा उद्धव ठाकरे के दावों को कई स्तरों पर खारिज किया जा चुका है। बेशक बाल ठाकरे ने ही जीवन के निर्णायक पलों में उद्धव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष मनोनीत किया था। अपनी राजनीति का उत्तराधिकारी पौत्र आदित्य ठाकरे को नामित किया था। यह सब कुछ शिवसैनिकों के जन-सैलाब को संबोधित करते हुए बाल ठाकरे ने कहा था। बल्कि शिवसैनिकों से आग्रह किया गया था कि आप इन दोनों को भी उसी तरह संभाल लेंगे, जिस तरह आपने बाल ठाकरे को संभाला था।
सहानुभूति पैदा करने की कोशिश थी। जि़ंदगी भर हिंदुत्व, गैर-कांग्रेसवाद और राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाले बाल ठाकरे भी 'वंशवाद' से बच नहीं पाए। बहरहाल बाल ठाकरे के दिवंगत होने के बाद पार्टी उद्धव ठाकरे को ही अध्यक्ष तय करती रही, लेकिन यह स्थायी और सार्वकालिक व्यवस्था नहीं थी। पार्टी में ही विद्रोह और असंतोष की संभावनाओं का आकलन नहीं किया गया। शायद ऐसा सोचना ठाकरे वंश की कल्पना में भी नहीं था! पूरा परिदृश्य देश के सामने है। शिवसेना में विभाजन और विद्रोह ही नहीं हुआ, बल्कि बाल ठाकरे के शिवसैनिक रहे चेहरों ने ही खुद को 'असली शिवसेना' घोषित कर दिया। इसमें भाजपा ने उनकी पूरी मदद की। अब तो 'असली शिवसेना' और भाजपा गठबंधन की सरकार में हैं। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को कभी बाल ठाकरे ने अपने प्रिय शिवसैनिक के तौर पर सडक़ से उठाकर सत्ता तक पहुंचाया था। उन्हीं ने उद्धव की सियासत और दावेदारियों को चुनौती दी है। अंतत: शिवसेना पर कब्जा करने के मद्देनजर उन्होंने सर्वोच्च अदालत और चुनाव आयोग तक में दावा पेश किया। आयोग का जो अंतरिम फैसला सामने आया है, उसमें शिवसेना के नाम और चुनाव चिह्न 'तीर-कमान' को फ्रीज कर दिया गया है। अब इस नाम का उद्धव या शिंदे गुट कोई भी इस्तेमाल नहीं कर सकेगा। दोनों गुटों को 197 नामों और चुनाव चिह्नों की सूची आयोग ने भेजी है। दोनों गुट अपनी पसंद के तीन चिह्न और नाम भेज सकते थे। आज 10 अक्तूबर तक यह काम करना था। उद्धव ने मशाल, त्रिशूल, उगता सूरज चिह्न भेजे हैं। शिवसेना के आगे बाला साहेब ठाकरे या उद्धव का नाम भी जोड़ कर पार्टी के तीन नाम आयोग को भेजे गए हैं। वैसे तलवार, कप-प्लेट, नारियल का पेड़, रेल का इंजन आदि चिह्नों पर भी शिवसेना चुनाव में उतरी है, लेकिन 1 अक्तूबर, 1989 से शिवसेना की राजनीतिक पहचान 'तीर-कमान' से ही थी। बहरहाल शिवसेना के दोनों गुटों को, राजनीतिक पहचान की, नई शुरुआत करनी होगी। ठाकरे परिवार के लिए शिवसेना अस्तित्व और पहचान की कसौटी थी। हमने उसी पर मंडराते खतरों के संदर्भ में शिंदे सेना के विद्रोह का विश्लेषण किया था।
अंतत: उद्धव को उस लड़ाई में पराजय मिली। शिंदे सेना नए नाम के साथ आगाज़ कर सकती है, क्योंकि यह उसकी शुरुआत है। वह तो बाल ठाकरे और आनंद दिघे को ही अपनी पहचान की बुनियाद मानती है। संभव यह भी है कि चुनाव आयोग सम्यक् विश्लेषण करे कि शिवसेना के अधिक सांसद, विधायक, पार्षद, पार्टी पदाधिकारी और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य किस गुट के साथ हैं। उसी आधार पर शिवसेना का नाम और स्थापित चुनाव चिह्न उसी गुट को आवंटित किया जा सकता है, लेकिन इसके आसार कम लगते हैं। कांग्रेस में जितने भी विभाजन हुए हैं, सभी ने नए नामकरण और चुनाव चिह्न के साथ नई शुरुआत की है। मौजूदा कांग्रेस भी दरअसल 'इंदिरा गांधी' ही है, आज़ादी से पहले की कांग्रेस नहीं है। वह दावे कुछ भी करती रहे। जनता दल में विभाजन हुए, तो सभी ने नए नाम रखे। बहरहाल शिवसेना के जरिए एक व्यक्ति, एक शख्सियत, हिंदुत्व के चितेरे ने नया इतिहास रचा था, वह आज बंद हो गया है। अपने समय में बाल ठाकरे ने कांग्रेस का विरोध जमकर किया, लेकिन अब बदलाव आया है और उद्धव ठाकरे का कांग्रेस से गठबंधन है।
Rani Sahu
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