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इस देश में उसी परंपरा को जीवित करने का महती प्रयास हो रहा है। तब आम के आम और गुठलियों के दाम मिलेंगे
कल तक जो आपके घर में दूध में पानी मिला कर बेचते थे, उन्हें अगर आज मिलावट के विरुद्ध और कुपोषण के खिलाफ जंग छेड़ते देखते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं कि आपके इलाके में जल संकट गहरा हो गया है, और आपके दूध वाले भय्या जो पहले आपको पानी में दूध मिला कर बेचते थे, अब दूध में भी पानी नहीं मिला पाते। दूध को गाढ़ा करने वाले पाऊडर के दाम बढ़ गए हैं, इसलिए उनके मन में बिना मिलावट दूध बेचने का पुण्य कमाने का जज्बा पैदा हो गया है। आज शायद 'हींग लगे न फिटकड़ी रंग भी चोखा आए' का नया चलन पैदा हो गया है। अब दूध में पानी मिलाने का झंझट काहे पालना, जबकि इसके विरुद्ध विशुद्ध संस्कृति का नारा लगाने से ही आपकी नेतागिरी की पालकी को किराए के कहार उठा लेते हैं। दाम चुकाओं तो आज क्या नहीं मिल जाता। पहले किराए पर रैलियां सजती थीं, भीड़ जुटती थी, मंच सजते थे, मतदान बूथों के बाहर जाति और धर्म के नाम पर बिके वोटरों की कतारें सजती थी, अब तो बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया में सेंध लग जाती है। आपका व्हाट्सएप बिकने लगा।
मोहल्ले में वोट मांगते नेता अब अपने जूते क्यों चटखाएं, आपकी चिरौरी करते नज़र क्यों आएं? व्हाट्सएप से आपके मन और रुझान की खाना तलाशी करते हुए मनभावन घोषणाओं से अपने वोटरों का मन जीत लें, और राजनीति में वंशवादी परंपराओं को स्थापित कर लें। बंधु, ज़माना बदल गया है। नई सदी ने नई समझ दे दी है। अब सदियों से पिछड़े हुए इस देश की गुरुतर आबादी को हर समस्या का हल वृहत परिप्रेक्ष्य में करना सीखना होगा। अब समझ की व्याकरण हीन बदलो, अपने नए शब्द कोषों में शब्दों के अर्थ भी बदल डालो। वर्तमान से असंतुष्ट लोगों को अतीत की गरिमा से सराबोर कर दो। आंकड़े बताते हैं कि मिलावटी दूध के कुपथ्य ने पांच साल की उम्र के आधे से अधिक और बारह साल की उम्र तक आधे से कम नौनिहाल मौत के या अपहरण के हवाले कर दिए, तो लोगों को वर्तमान के प्रति असंतोष की ज्वाला में दहकने न दो। बल्कि उन्हें बताओ कि हमारे यहां तो शुद्ध पवित्र वातावरण में काम धेनु गायों के मिल जाने की परंपरा है। इस देश में उसी परंपरा को जीवित करने का महती प्रयास हो रहा है। तब आम के आम और गुठलियों के दाम मिलेंगे।
लेकिन बंधुवर, हथेलियों पर सरसों तो नहीं जमायी जा सकती न। देश में अतीत का वैभव लौटाने के लिए इंतजार करना ही होगा। इस देश में कामधेनु और कल्पवृक्ष का युग भी लौट कर आएगा। तब यह जीवन, समाज और गलत भौतिकवादी मूल्यों का गंदलापन छंट जाएगा। इन दिनों का इंतजार करो, तब तुम्हें नहीं कहना पड़ेगा कि 'हर शाख पर उल्लू बैठे हैं, इस चमन का यारो क्या होगा?' फिलहाल इस उजड़ते चमन की सूखी डालियों पर महंगाई, भ्रष्टाचार, नौकरशाही और गाल बजाते मसीहाओं के उलूकनुमा व्यवहार को सहन करो क्योंकि कल तो इन्हीं डालियों पर सोने की चिडि़या चहचहाएंगी। देश में सतयुग की वापसी चाहते हो न, तो आज के इस कलियुग और अंधेरनगरी चौपट राजा के माहौल को सहन करो। बड़े बूढ़ों ने भी कहा तो है कि सहज पके सो मीठा होय। इस काल में अगर राम राज्य की वापसी चाहते हो, तो आज इस दानव राज को असाध्य बीमारी की तरह स्वीकार करो। देखो, उच्छृंखलता की निशानी है, यह विशुद्ध संस्कारित समाज की परिभाषा में नहीं आता। बड़े बूढ़े बोले। हमें इन परिभाषाओं को बदलना नहीं है, इनमें संयम, धीरज और अनुशासन के नए अर्थो को स्थापित करना है। फरमाया। उन्हें समझाने की कोशिश कीजिए कि आयातित मूल्यों ने हमारी संस्कृति को इतना गंदला कर दिया है कि अब उसकी विरूपता पहचानी भी नहीं जाती।
सुरेश सेठ
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