सम्पादकीय

एक किताब, जिसने गांधी को महात्मा बनाया

Gulabi
30 Sep 2021 6:14 AM GMT
एक किताब, जिसने गांधी को महात्मा बनाया
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गांधी को महात्मा बनाया

उन्होंने कहा, 'मानवता को अगर बराबरी और भाईचारे के सूत्र में पिरोना है तो हमें 'अंटू दिस लास्ट' के सिद्धांतों पर कार्य करना होगा। लंगड़े और मूक-बधिर व्यक्ति को भी साथ लेकर चलना होगा। मेरे ज़हन में भारत की आज़ादी की कोई ऐसी तस्वीर नहीं है जिसमें सर्वथा कमज़ोर व्यक्ति के लिए कोई स्थान न हो। सभी मजदूर श्रेणियों को बराबर की दिहाड़ी मिले। मशीनीकरण के लिए यह अति आवश्यक है कि श्रमिक वर्ग के सभी संसाधनों का उचित व शोषण रहित उपयोग हो।'…


महात्मा गांधी के जीवन पर गत 100 साल में हजारों पुस्तकें छप चुकी हैं। आज भी विश्वभर में गांधी सर्वाधिक चर्चित व्यक्ति हैं जिन्हें समझने के अंतहीन प्रयास जारी हैं। लेकिन जिस एक पुस्तक ने गांधी के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन किया, उससे गांधी के चिंतक, विचारक या बुद्धिजीवी भले ही परिचित हों, लेकिन इस महान व्यक्तित्व को महज़ किताबों में जीने वाले लोग इस बात से कमोबेश अनभिज्ञ व अपरिचित प्रतीत होते हैं कि 202 साल पहले 1819 में इंगलैंड में जन्में लेखक जॉन रस्किन की 1862 में छपी किताब 'अंटू दिस लॉस्ट' ने 1904 के बाद गांधी के जीवन की दिशा व दशा बदल डाली थी। अगर 8 व 25 जून के मध्य किसी रोज़ जोहांसबर्ग- दक्षिणी अफ्रीका के रेलवे स्टेशन पर प्रख्यात लेखक व गांधी के मित्र पोलेक हैनरी ने गांधी को जॉन रस्किन की उपरोक्त किताब न भेंट की होती तो गांधी को जिस रूप में भारत ने आजादी से पूर्व देखा उस अवतार में हमारा देश व दुनिया उन्हें न देख पाती। दक्षिण अफ्रीका में बतौर बैरिस्टर व सोशल एक्टिविस्ट रहते हुए जून के महीने में दो बार जोहांसबर्ग से डरबन के मध्य यात्रा की और इस किताब को ट्रेन के सफर में ही पढ़ डाला। गांधी इस किताब से इस कदर अभिभूत हुए कि उनके जीवन में तत्काल व्यावहारिक परिवर्तन शुरू हो गए। उन्होंने भविष्य में अपने जीवन को इस किताब के सिद्धांतों के आधार पर ढालने की ठान ली। वे उस वक्त 34 साल के थे। जॉन रस्किन की इस किताब का सार था ः एक, प्रत्येक व्यक्ति की अच्छाई सभी प्रकार की अच्छाइयों मेें समाहित है। दो, एक वकील के काम की कीमत नाई के काम के बराबर है। दोनों को अपनी आय अर्जित करने का हक है। तीसरा, एक मजदूर, खेत को जोतने वाला किसान, हथकरघा के कारीगर को वही आदर-सम्मान व पगार मिलनी चाहिए जो सफेदपोश कार्यों में लगे व्यक्तियों को मिलती है।

'अंटू दिस लास्ट' का अर्थ है कतार के अंत में खड़ा वह व्यक्ति जो गरीब है, साधनहीन है, निरीह है। उसका उदय यानी अंत्योदय की विचारधारा को जॉन रस्किन की किताब मजबूत करती है। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए महात्मा गांधी ने इंडियन ओपिनियन नाम का अखबार शुरू किया था जिसके बारे में ब्रतानी हुकूमत के लार्ड एलगिन ने 1906 में टिप्पणी की थी, 'गांधी का अखबार जॉन रस्किन और लीयो टॉलस्टाय की विचारधारा से प्रेरित है।' 1904 में गांधी ने 'अंटू दिस लास्ट' को पढ़ा था और 1908 में दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए मई से जुलाई में इंडियन ओपिनियन के अंकों में इसका गुजराती में अनुवाद छपा। इसका शीर्षक था 'सर्वोदय'। महात्मा गांधी ने केवल दो ही किताबों का गुजराती में अनुवाद किया था। दूसरी किताब थी, प्लेटो द्वारा लिखित सार्केटस एपोलॉजी। वे टॉलस्टाय की पुस्तक 'किंगडम ऑफ गॉड इज़ विदिन यू' से भी प्रभावित व प्रेरित थे। लेकिन जॉन रस्किन की पुस्तक 'अंटू दिस लास्ट' को वे जीवन के अंत तक बार-बार सम्मेलनांे, साक्षात्कारों व सभी बड़े मंचों पर उद्वरण करते रहे। इस किताब के जादुई प्रभाव के बारे में एक और किस्सा कुछ यूं है। साल 1946 में बाम्बे स्टेट में बैकुण्ठलाल मेहता वित्त व उद्योग मंत्री थे। उन्होंने इसी साल पुणे में देश के सभी प्रांतों के उद्योग मंत्रियों का सम्मेलन किया था जिसमें मुख्य वक्त महात्मा गांधी थे। उन्होंने कहा, 'मानवता को अगर बराबरी और भाईचारे के सूत्र में पिरोना है तो हमें 'अंटू दिस लास्ट' के सिद्धांतों पर कार्य करना होगा। लंगड़े और मूक-बधिर व्यक्ति को भी साथ लेकर चलना होगा। मेरे ज़हन में भारत की आज़ादी की कोई ऐसी तस्वीर नहीं है जिसमें सर्वथा कमज़ोर व्यक्ति के लिए कोई स्थान न हो।

सभी मजदूर श्रेणियों को बराबर की दिहाड़ी मिले। मशीनीकरण के लिए यह अति आवश्यक है कि श्रमिक वर्ग के सभी संसाधनों का उचित व शोषण रहित उपयोग हो।' साल 1931 में ब्रिटिश पत्रिका 'स्पैक्टर' के संपादक एवेलिन रैंच को दिए एक इंटरव्यू में गांधी ने पुनः जॉन रस्किन की पुस्तक का जिक्र करते हुए कहा था, 'इस किताब ने मेरी अंतरात्मा को ही नहीं बदला, लेकिन बाहरी-जीवन में भी मैंने स़कारात्मक परिवर्तन अनुभव किया। सच पूछो तो मेरी तमाम सोच को सर्वहारा या आमजन के प्रति स्थापित करने में 'अंटू दिस लास्ट' का ही कमाल है।' आठ फरवरी 1819 को जन्में जॉन रस्किन की मृत्यु 20 जनवरी 1900 में हुई थी। मात्र 25 साल की आयु में वे कला समीक्षक व साहित्य के निबंधकार के रूप में अपनी ख्याति अर्जित कर चुके थे। वे बाइबल से प्रभावित थे और कला व साहित्य की आलोचना में वे नैतिकता के पक्ष को सर्वोपरि मानते थे। वे मानते थे कि कलाकारों और हथकरघा के कामगारों के काम में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही सर्जक हैं और सृजन की दुनिया को रचते हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत में जॉन रस्किन की प्रस्थापनाओं का विरोध भी हुआ क्योंकि यूरोप में नवजागरण काल के दौरान तेज़ी से औद्योगीकरण हो रहा था और श्रमिक वर्ग का शोषण जॉन रस्किन जैसे चिंतकों व विचारकों के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा था। एडम स्मिथ व जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे चिंतकों का रस्किन ने विरोध किया। बहरहाल, महात्मा गांधी ताउम्र जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन करते रहे, उन्हीं को गत एक सदी में विश्वभर की पूंजीवादी व्यवस्था ने अपनाया यानी 'वैलफेयर स्टेट' अर्थात 'कल्याणकारी राज्य' की विचारधारा। मजदूर वर्गों के हितों की रक्षा और सामाजिक सुरक्षा की अवधारणा के बीज गांधी और रस्किन के सिद्धांतांे में छिपे हैं। रस्किन की किताब की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। इस किताब का गांधी पर इस कदर प्रभाव पड़ा कि शीघ्र ही उन्होंने दक्षिणी अफ्रीका में एक फॉर्म हाउस से 'इंडियन ओपिनियन' नामक अखबार शुरू कर दिया जिसमें सभी कर्मियों का समान वेतन था और जाति, राष्ट्रीयता, कार्य क्षेत्र के सवालों को दरकिनार किया गया था।

राजेंद्र राजन

वरिष्ठ साहित्यकार
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