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भविष्य के स्वास्थ्य संकट
अलका आर्य। बेशक कई राज्यों में कोविड महामारी की दूसरी लहर में गिरावट की प्रवृत्ति कई दिनों से जारी है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई विज्ञानियों ने कुछ ही माह के बाद तीसरी लहर आने की आशंका भी जताई है। यहां पर एक अहम बिंदु यह है कि यह ग्राफ भले ही फिलहाल नीचे जा रहा है, मगर देश के गांवों को मौजूदा महामारी व भविष्य के स्वास्थ्य संकटों से बचाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। देश के करीब छह लाख गांवों में लगभग 65 फीसद आबादी बसती है। ऐसे में गांववासियों के स्वास्थ्य, कोविड की रोकथाम के लिए किए जा रहे चिकित्सीय प्रयासों की जानकारी उन तक पहुंचाते रहना व कोविड-रोधी टीकाकरण बाबत जारी दुष्प्रचार को रोकना और उन्हें हकीकत बताना आदि कार्य अल्पकालिक नहीं, बल्कि दीर्घकालिक एंजेडा होना चाहिए।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि ग्रामीण आबादी में साक्षरता दर बढ़ने के बावजूद आधुनिक चिकित्सा के प्रति भरोसा उस अनुपात में नहीं बढ़ा है। ऐसे में सूचना एंव प्रसारण मंत्रलय ने हाल ही में राज्य सरकारों, केंद्र शासित राज्यों व स्थानीय ईकाइयों के द्वारा कोविड महामारी की रोकथाम के लिए जमीनी स्तर पर जारी गतिविधियों के बारे में बताया और इस पर भी जोर दिया कि गांववासियों के साथ इस बाबत बराबर संवाद, संचार अभियान जारी रखने की जरूरत है। आदिवासी व कृषि केंद्रित पॉकेट पर विशेष ध्यान केंद्गित करना होगा। गांवों में जागरूकता अभियान को गहन करना होगा। जागरूकता अभियान की रणनीति में सूचना, शिक्षा व संचार भी शमिल है।
केंद्र व राज्य सरकारें गांवों में स्थानीय भाषा में कोविड महामारी संबंधित सामग्री बांट रही हैं, ताकि अधिक से अधिक लोग इस महामारी की गंभीरता को समङों। अपना बचाव करें और उन्हें मालूम हो कि संक्रमित होने पर क्या-क्या करना है। इसके साथ ही टीका भी लगवाएं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत सरकार का सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम जो बच्चों व गर्भवती महिलाओं के लिए चलाया जा रहा है, उसके रास्ते में आज भी कई बाधाएं हैं जिनमें कई तरह की अफवाहें भी अपनी जगह बनाए हुए हैं।
हां, यह जरूर है कि सरकार ने कई बाधाओं पर सफलता हासिल कर बाल टीकाकरण की दर में सुधार कर लाखों बच्चों को असमय मरने से बचाया है। इसके लिए बराबर जागरूकता अभियान चलाया जाता है, लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए स्थानीय शासन व प्रभावशाली हस्तियों की मदद ली जाती है। गांवों में पंचायत, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, एएनएम, आशा कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम होती है। इन सब को गांववासियों की जीवनरेखा भी कहा जाता है। कोविड महामारी के दौर में ये सब बहुत बड़े मददगार साबित हो सकते हैं।
मौजूदा महामारी से पहले भी भारत में महिला संरपचों ने विशेष तौर पर आम आदमी को चिकित्सीय सेवाएं मुहैया कराने में मदद की और उन पर देखभाल करने का जो भरोसा कायम हुआ, उस भरोसे का आज अधिक से अधिक इस्तेमाल करना चाहिए, ताकि गांवों में कोविड संक्रमण से निपटने के लिए लोग हर तरह से तैयार हो जाएं। वैसे इस दिशा में कई गांवों ने मिसाल भी कायम की है, जहां गांव के लोगों ने अपने गांव में बाहर के लोगों के आने पर प्रतिबंध लगाया। यह काबिले तारीफ है।
भारत ने पोलियो उन्मूलन में सफलता हासिल कर विश्व में प्रशंसा हासिल की और स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो भी उपलब्धियां हासिल की हैं, वे कुछ हद तक आश्वस्त करती हैं कि कोविड रोधी टीके लगवाने की राह में जो अफवाहें खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में रूकावटें खड़ा कर रही हैं, वे अधिक लंबे वक्त तक जिंदा नहीं रहेंगी। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि ऐसी रूकावटों को रास्ते से हटाने के लिए सरकारी मशीनरी व स्वैच्छिक संस्थाएं अपनी गतिविधियों में कितनी निरंतरता बनाए रखती हैं। यह निरंतरता भी महामारी से लड़ने का एक औजार ही है व भविष्य के लिए निवेश भी।
(लेखिका सामाजिक मामलों की जानकार हैं)
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