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कोरोना महामारी के दौरान पिछले दो साल में इंश्योरेंस (Health Insurance) खरीदने, हाउसहोल्ड फाइनेंस और इनवेस्टमेंट के प्रति लोगों में आ रहे बदलाव को समझने के लिए पॉलिसी बाजार ने एक ऑनलाइन सर्वे कराया
शालिनी सक्सेना |
कोरोना महामारी के दौरान पिछले दो साल में इंश्योरेंस (Health Insurance) खरीदने, हाउसहोल्ड फाइनेंस और इनवेस्टमेंट के प्रति लोगों में आ रहे बदलाव को समझने के लिए पॉलिसी बाजार ने एक ऑनलाइन सर्वे कराया. इस सर्वे में पांच हजार उपभोक्ताओं को शामिल किया गया, जिसके माध्यम से इंश्योरेंस खरीदने के ट्रेंड में आ रहे बदलाव को समझने की कोशिश की गई. सर्वे के नतीजों से पता चला कि महामारी (Corona Pandemic) की शुरुआत होने के बाद इन दो साल के दौरान इंश्योरेंस खरीदने की इच्छा में इजाफा हुआ है. यह ट्रेंड खासतौर पर टियर-2 और टियर-3 शहरों में देखा गया. टियर-2 शहरों से ताल्लुक रखने वाले 89 फीसदी लोगों ने अपने हेल्थ कवर को रिन्यू करने की इच्छा जाहिर की, जबकि टियर-1 शहरों में ऐसे लोगों की संख्या 77 फीसदी रही
इसी तरह का ट्रेंड टर्म इंश्योरेंस में भी देखा गया. इस कैटिगरी में टियर-3 के 59 फीसदी लोगों ने बताया कि वे अपना कवरेज बढ़ाना चाहते हैं, जबकि टियर-1 में ऐसे लोगों की संख्या महज 26 फीसदी रही. सर्वे के नतीजों से पता चलता है कि वर्तमान महामारी के दौरान देशभर में इंश्योरेंस के प्रति जागरूकता बढ़ी है. गौर करने वाली बात यह है कि इस वक्त हेल्थ इंश्योरेंस खरीदने को लेकर भले ही लोग जागरूक हुए हैं, लेकिन कोरोना महामारी की वजह से कई ऐसे मसले भी हैं, जो चिंता के प्रमुख कारण हैं.
दरअसल, महामारी के दौरान डिप्रेशन, एनजाइटी समेत दूसरे मेंटल डिसऑर्डर के मामले भी बढ़े हैं, जो शायद ही किसी हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी में कवर होते हैं. दिल्ली में बतौर हेल्थ इंश्योरेंस एक्सपर्ट काम करने वाले नितिन अरोड़ा ने न्यूज9 को बताया कि हेल्थ पॉलिसी को दो कैटिगरी में बांटा गया है. पहली है कॉर्पोरेट पॉलिसी और दूसरी रिटेल पॉलिसी. अरोड़ा ने समझाते हुए बताया, 'यह कहना गलत होगा कि मेंटल हेल्थ को कवर करने के लिए लोगों के पास कोई पॉलिसी नहीं है. आज की तारीख में सभी कॉर्पोरेट के पास हेल्थ इश्यूज से संबंधित पूरी लिस्ट है, जिसमें वे अपने कर्मचारियों की मेंटल हेल्थ समेत तमाम बीमारियों को कवर करते हैं. यह ट्रेंड पिछले दो साल के दौरान काफी ज्यादा बढ़ा है. आमतौर पर कॉर्पोरेट्स ने हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियों को कुल बीमा राशि का एक निश्चित हिस्सा मेंटल हेल्थ के लिए अलग रखने निर्देश दिए हैं. हालांकि, जब हम रिटेल हेल्थ पॉलिसी की बात करते हैं तो समस्याएं सामने आ जाती हैं.'
उन्होंने बताया कि 99.9 फीसदी रिटेल हेल्थ पॉलिसियों में मेंटल हेल्थ कवर नहीं होती है. यह हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियों की पॉलिसी का हिस्सा है. अरोड़ा ने बताया कि इसकी वजह एकदम साफ है. उन्होंने समझाते हुए कहा, 'कॉर्पोरेट हेल्थ इंश्योरेंस में प्रीमियम सैकड़ों से करोड़ों तक में हो सकता है. ऐसे में हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियां कई बीमारियों चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, उन्हें शामिल करने के लिए तरह-तरह के रास्ते अपना लेती हैं. दुर्भाग्य से, रिटेल इंश्योरेंस पॉलिसी में प्रीमियम बेहद कम होता है. किसी बीमारी को कवर करने के लिए बीमाकर्ता को झूठ बोलकर या उसे छिपाकर जोखिम उठाना पड़े तो यह सही नहीं है.'
हालांकि, एचडीएफसी हेल्थ इंश्योरेंस प्लान्स के हेल्थ इंश्योरेंस एजेंट सतनाम सिंह ने बताया कि उनकी जैसी कंपनियां मेंटल हेल्थ भी कवर करती हैं. उन्होंने कहा, 'यह कहना गलत है कि कोई भी हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी मेंटल हेल्थ कवर नहीं करती है. हालांकि, इसके लिए राइडर लेना पड़ता है. सभी हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियां विश्वास पर काम करती हैं. पॉलिसी जारी करने से पहले लोगों को एक क्वैश्चनायर भरना होता है, जिसमें दिए जवाबों के आधार पर ही बीमारियों का कवर तय किया जाता है.' उन्होंने बताया कि अब तो भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण ने भी राइडर पेश किया है.
सिंह ने बताया, 'ऐसी कोई भी रिटेल हेल्थ पॉलिसी नहीं है, जो एक ही हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी के साथ आठ साल से भी ज्यादा समय से चल रही है. वह किसी भी बीमारी के लिए किसी भी व्यक्ति के दावे को ठुकरा सकती है.' नई दिल्ली से ताल्लुक रखने वाले डॉ. संजय चुघ मनोचिकित्सक हैं. उन्होंने बताया, 'हकीकत यह है कि कई हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसीज में मेंटल हेल्थ को कवर नहीं किया जाता, जो मेंटल डिसऑर्डर के इलाज में सबसे बड़ा रोड़ा है. मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर दुनिया भर में सबसे आम मेडिकल प्रॉब्लम है.' डॉ. चुग ने कहा, 'इसमें कोई संदेह नहीं है कि मेंटल हेल्थ कवर करने वाले हेल्थ इंश्योरेंस की कमी के चलते लोगों को उचित इलाज नहीं मिल पाता है. इसकी वजह से यह बीमारी और ज्यादा गंभीर होती जा रही है.'
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जब बात मेंटल हेल्थ कवर करने वाली हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियों की होती है, तब भी कई मुद्दे सामने आते हैं. डॉ. चुघ ने बताया, 'मेंटल हेल्थ के मसले को लेकर हमेशा एक स्टिग्मा रहा है. यह न सिर्फ आम जनता के जेहन में रहता है, बल्कि उन डॉक्टरों के मन में भी होता है, जो मनोचिकित्सक नहीं हैं. यदि कोई शख्स आत्महत्या कर लेता है तो आम राय में यह कदम उसने खुद उठाया था. यह जानबूझकर किया गया कार्य करार दिया जाता है और कहा जाता है कि व्यक्ति के पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं था. ऐसे में इंश्योरेंस कंपनियां अक्सर कहती हैं कि यह कदम उस व्यक्ति ने स्वेच्छा से उठाया तो इसकी भरपाई हम क्यों करें? लेकिन साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर हैं, जो समय के साथ-साथ बेहद मुश्किल मेडिकल प्रॉब्लम बन जाते हैं. अधिकतर लोग इसे पहचानने में असफल रहते हैं. आर्टिकल को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
Rani Sahu
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