सम्पादकीय

75वां स्वतंत्रता दिवस विशेष, धौलावीरा की कहानी-3: क्या बदला है पांच हज़ार साल में

Gulabi
14 Aug 2021 11:10 AM GMT
75वां स्वतंत्रता दिवस विशेष, धौलावीरा की कहानी-3: क्या बदला है पांच हज़ार साल में
x
75वां स्वतंत्रता दिवस विशेष

राजेश बादल।
15 अगस्त 2021 को हिंदुस्तान अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। आजादी के इन 75 सालों में जहां भारत ने ज्ञान-विज्ञान, समाज, तकनीक, राजनीति, रक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल की हैं, तो वहीं 75 सालों की इस विकास यात्रा में भारत ने अपनी सभ्यता, संस्कृति, विरासत और धरोहर को पहचानने और अपनी स्मृतियों को सहेजने का गौरवशाली कार्य भी किया है।

हाल ही में यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन ने गुजरात स्थित धौलावीरा को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। यह भारत का 40वां ऐसा स्थल है जो यूनेस्को की इस सूची में शामिल है।

धौलावीरा ना केवल भारतीय उपमहाद्वीप का गौरव है बल्कि यह मनुष्य सभ्यता की प्राचीन, वैज्ञानिक और सभ्य संस्कृति का वह अध्याय है जो भारत भूमि पर लिखा गया।

आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल, पाठकों से श्रृंखलाबद्ध रूप में धौलावीरा की कहानी साझा कर रहे हैं। राजेश बादल, पुरातत्व विषयों पर गहन रुचि और दक्षता के साथ लिखते रहे हैं। यह विषय लंबे समय से ना केवल उनके पठन-पाठन में शामिल होता रहा है अपितु उनकी शैक्षेेेणिक यात्रा की विषय विशेषज्ञता का हिस्सा भी रहा है।

पढ़िए श्रृंखला के रूप में धौलावीरा की कहानी का तीसरा भाग..!

विस्तार
असल में सिंधु सभ्यता और आज के रहन-सहन में काफी समानताएं हैं। चूंकि हम ख़ुदाई के ज़रिए रेत और मिटटी में दफ़न ज़िंदगी के निशान खोजने की कोशिशें करते हैं इसलिए पाते हैं कि उस समय के चिह्न ठीक वैसे ही विद्यमान हैं।
दरअसल, अगर ज़मीन पर बसी किसी बस्ती से 5000 साल पुराने अवशेष ढूंढने हों तो वह कठिन काम है, इसलिए कि एक इंसान अपने जीवनकाल में ही अपने घर को पहले कच्चा बनाता है। फिर उसे पक्का करता है। उसके बाद उसमें मंज़िलें बढ़ाता है और समय के साथ-साथ उसके निर्माण के तरीक़े बदलते जाते हैं।
जाहिर है ऐसे में सौ-दो सौ साल पहले किसी बस्ती का मूल स्वरूप क्या था, इसका पता लगाना कठिन हो जाता है, इसलिए ज़मींदोज़ सभ्यता से उस दौर के जीवन के बारे में पढ़ना अपेक्षाकृत आसान है।
दो कुओं के बीच सदियों का फ़ासला
हमने मोहनजोदड़ो में कॉलोनी और घर बनाने का ढंग देखा था। चौराहों पर कुओं का निर्माण देखा था। अब एक अदभुत समानता आपके सामने रखता हूं।
इस आलेख के साथ आपको दो कुओं की तस्वीर नज़र आ रही है। एक मोहन जोदड़ो से खुदाई में मिला है और दूसरा दो दिन पहले एक समाचार-पत्र में छपा। यह बिहार के बेतिया का है। बाढ़ के कारण एक गांव का कुआं तो सलामत रहा ,लेकिन उसके इर्द-गिर्द बसा गांव बह गया। इतने वेग से बहा कि कुएं के आसपास की पंद्रह फिट मिट्टी भी बहा ले गया।

दरअसल, कुआं बाढ़ के बाद भी शान से खड़ा है और ठीक वैसा ही है, जैसा मोहनजोदड़ो से मिला है। इसे आप क्या कहेंगे? वास्तव में पूरी सम्पदा ख़ामोशी से चीख़-चीख़ कर अपने कालखंड से लेकर पुरखों का पता देती है। इन दो कुओं से बढ़कर और क्या सबूत हो सकता है।

पुरातत्वविदों को स्वीकार करना चाहिए कि अकाल या पानी की कमी से बड़े-बड़े नगर इस तरह ख़ाली नहीं होते। ख़ासतौर पर वे जो नदी किनारे बसे हों। जब कोई सभ्यता इतनी विकसित हो तो नदी के सूखने पर वह नदी में ख़ुदाई करके पानी भी निकाल सकती थी।

अनाज पीसने की ठीक वैसी ही चक्कियां भी मोहनजोदड़ो में मिली थीं। वे कपड़े पहनते थे। हमारी तरह। एक देह का ऊपरी हिस्सा ढकने के लिए। - फोटो : P K Mishra
महिलाओं का मेकअप आज की तरह
अब हम आते हैं मोहनजोदड़ो के निवासियों के खानपान पर। गेंहूं,धान और जौ के जो नमूने वहां मिले,वे आज की तरह ही हैं। उनका भण्डार करके लोग रखते थे ,जैसा हम लोग आज भी करते हैं। मैनें अपने बचपन में देखा है कि गांव के घरों में मिट्टी के बड़े-बड़े कुठार होते थे,जिनमें अनाज भंडारण किया जाता था। मेरे संयुक्त परिवार में दादियां पीढ़ी पर बैठकर इन अनाजों को पीसती थीं।
अनाज पीसने की ठीक वैसी ही चक्कियां भी मोहनजोदड़ो में मिली थीं। वे कपड़े पहनते थे। हमारी तरह। एक देह का ऊपरी हिस्सा ढकने के लिए। दूसरा नीचे का भाग ढकने के लिए। महिलाएं भी अपने बदन ढांक कर रखती थीं। वे सोने-चांदी, तांबा, शंख और मणि वाले आभूषण पहनते थे।

इन ज़ेवरों में हार, बिंदी, अंगूठी, बाली, कंगन, चूड़ी, करधनी और पैरों में कड़े शामिल थे। वे मेकअप भी करती थीं। कांसे के आईने, हाथी दांत के कंघे ,बालों में खोंसने वाली सलाइयां भी उनके मेकअप बॉक्स का हिस्सा थे। वे लिपस्टिक और काजल या सुरमा लगाती थीं।


मोहनजोदड़ो के लोग पीपल के पेड़ , आग और पानी की पूजा भी करते थे। ज़ाहिर है कि वे ज़िंदगी में इनकी उपयोगिता समझते थे। - फोटो : P K Mishra
पीपल ,आग और पानी की पूजा
मोहनजोदड़ो के लोग रसोईघर में वैसे ही बर्तन इस्तेमाल करते थे, जैसे हम लोग इन दिनों करते हैं। अलबत्ता उनकी शैली और डिज़ाइन अलग-अलग है। फर्नीचर में लकड़ी की कुर्सियाँ, चारपाई, स्टूल, बेंत की चटाई भी बनती थी। वे नागरिक हथियार भी रखते थे। इनमें बरछी, छुरे, कुल्हाड़ी, धनुषबाण, गदा, गुलेल, तलवार, ढाल और कवच पहनना भी वे जानते थे। याने इस्पात उद्योग भी समृद्ध था। आने-जाने के लिए वे बैलगाड़ियों का ही उपयोग करते थे। वे कपड़े रंगते थे।

रंगने के जो बर्तन मिले हैं, वे वैसे ही हैं,जैसे हम लोगों ने रंगरेजों के यहां बचपन में देखे हैं। कारोबारी लेन-देन के लिए वर्गाकार या आयताकार मुहरों का प्रचलन था। मोहन जोदड़ोमें क़रीब 2000 मुहरें मिली हैं। उन पर कोई 400 चिह्न हैं। पर वे पढ़े नहीं जा सके हैं।

मेरा अनुमान है कि मूल्य के हिसाब से मुहरों पर चिह्न भी अलग-अलग थे। मुहरों पर स्त्री -पुरुष के अलावा बैल, हाथी ,बाघ ,गेंडा,घड़ियाल और हिरन जैसे प्राणियों के चित्र बने हैं। आज़ादी के बाद भारत में हमारी पीढ़ी ने ऐसे सिक्के देखे हैं ,जिन पर पशु पक्षी बने हैं। मोहनजोदड़ो के लोग पीपल के पेड़ , आग और पानी की पूजा भी करते थे। ज़ाहिर है कि वे ज़िंदगी में इनकी उपयोगिता समझते थे।
(जारी)

धौलावीरा की कहानी दूसरे भागों को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

75वां स्वतंत्रता दिवस विशेष, धौलावीरा की कहानी-1 : देश का वह तीर्थ जिसकी स्मृतियों को हमें दुनिया याद दिला रही है..!

75वां स्वतंत्रता दिवस विशेष, धौलावीरा की कहानी-2: जब मोहनजोदड़ो की बस्तियां आज की तरह ही थीं

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
Next Story