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संविधान सभा के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव जिसे भारतीय स्वतंत्रता का घोषणापत्र भी माना जाता है
सचिन कुमार जैन संविधान सभा के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव जिसे भारतीय स्वतंत्रता का घोषणापत्र भी माना जाता है, उसने यह सपना सामने रखा कि भविष्य का भारत कैसा होना चाहिये या वह कैसा होने वाला है. भारत का संविधान कैसा होगा? उसका स्वभाव और चरित्र कैसा होगा? यह उसके लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव से ही तय हो गया था. भारत एक अमनपसंद, लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों पर आधारित व्यवस्था अपनायेगा, इसका निर्धारण संविधान से ही होता है.
अब से ठीक 75 बरस पूर्व 22 जनवरी 1947 को यानी आज़ाद होने से लगभग आठ महीने पहले भारत की संविधान सभा ने लक्ष्य सम्बन्धी (इसे भारतीय स्वतंत्रता का घोषणा पत्र भी कहा जाता है) प्रस्ताव को सर्व सम्मति से स्वीकार किया. इस प्रस्ताव में आठ घोषणाएं थीं:
1. यह संविधान सभा भारत वर्ष को एक पूर्ण स्वतंत्र जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रकट करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक संविधान बनाया जाए;
2. जिसमें उन सभी प्रदेशों का एक संघ रहेगा, जो आज ब्रिटिश भारत तथा देसी रियासतों के अंतर्गत तथा उनके बाहर भी हैं और आगे स्वतंत्र भारत में सम्मिलित होना चाहते हैं; और
3. जिसमें उपर्युक्त सभी प्रदेशों को, जिनकी वर्तमान सीमा चाहे कायम रहें या संविधान सभा और बाद में विधान के नियमानुसार बने या बदले, एक स्वाधीन इकाई या प्रदेश का दर्ज़ा मिलेगा व रहेगा, उन्हें वे सब विशेषाधिकार प्राप्त होंगे व रहेंगे, जो संघ को नहीं सौंपे जायेंगे और वे शासन तथा प्रबंध सम्बन्धी सभी अधिकारों को बरतेंगे, सिवाए उन अधिकारों और कामों के जो संघ को सौंपे जाएंगे अथवा जो संघ में स्वभावतः निहित या समाविष्ट होंगे या जो उससे फलित होंगे; और
4. जिसमें सर्वतंत्र स्वतंत्र भारत तथा उसके अंगभूत प्रदेशों और शासन के सभी अंगों की सारी शक्ति तथा सत्ता जनता द्वारा प्राप्त होगी; तथा
5. जिसमें भारत के सभी लोगों को राजकीय नियमों और साधारण सदाचार के अनुकूल निश्चित नियमों के आधार पर सामाजिक, आर्थिक, व राजनैतिक न्याय के अधिकार, वैयक्तिक स्थिति व सुविधा की तथा मानवीय समानता के अधिकार और विचारों की, विचार प्रकट करने की, विश्वास व धर्म की, ईश्वरोपासना की, काम-धंधे की, संघ बनाने व काम करने की स्वतंत्रता के अधिकार रहेंगे और माने जायेंगे; और
6. जिसमें सभी अल्पसंख्यकों के लिए, पिछड़े हुए व कबाइली प्रदेशों के लिए तथा दलित और पिछड़ी हुई जातियों के लिए काफी संरक्षण विधि रहेगी; और
7. जिसके द्वारा इस जनतंत्र के क्षेत्र की अक्षुण्णता रक्षित रहेगी और जल, थल और हवा उसके सब अधिकार, न्याय और सभ्य राष्ट्रों के नियमों के अनुसार रक्षित रहेंगे; और8. यह प्राचीन देश संसार में अपने योग्य व सम्मानित स्थान को प्राप्त करने और संसार की शान्ति तथा मानव जाति का हित-साधन करने में अपनी इच्छा से पूर्ण योग देगा.
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसंबर 1946 को चर्चा और बहस के लिए यह प्रस्ताव संविधान सभा में पेश करते हुए कहा था कि "हम अपना रास्ता साफ़ कर रहे हैं ताकि आइन्दा उस साफ़ जमीन पर संविधान की इमारत खड़ी कर सकें. मुनासिब है कि हम इस बात को साफ़ कर दें कि हम किधर जाना चाहते हैं, हम किधर देखेंगे और कैसी इमारत हम खड़ी करना चाहते हैं." श्रीमती दाक्षायणी वेलायुदन ने इस प्रस्ताव पर कहा कि संविधान सभा केवल संविधान ही नहीं बनाती है, वरन जनता को जीवन का एक नया स्वरूप भी देती है.
मुस्लिम लीग को साथ लेने की कोशिश विफल
9 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा की कार्यवाही शुरू हुई, तब मुस्लिम लीग उसमें शामिल नहीं हुई थी. बातचीत चल रही थी. कोशिशें हो रही थीं कि लीग संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि भेजे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. पंडित नेहरु ने कहा भी था कि "संविधान सभा, बिलकुल वैसी नहीं है, जैसा कि हममें से अधिकांश लोग चाहते थे. ख़ास हालत में पैदा हुई और इसके पैदा होने में अंग्रेजी हुकूमत का हाथ है. अगर हम यहां मिले हैं तो हिन्दुस्तान के लोगों की ताकत से मिले हैं, हम उसी दर्जे तक बात कर सकते हैं, जितनी कि उसके पीछे हिन्दुस्तान के लोगों की ताकत और मंज़ूरी हो, किसी ख़ास फिरके या किसी ख़ास गिरोह की नहीं. हमें अफ़सोस है कि सभा में कुछ सदस्य (लीग के) इस वक्त शरीक नहीं हैं. इससे हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है. हमें ख्याल करना पड़ता है कि हम कोई ऐसी बात न करें, जो औरों को तकलीफ पहुंचाए.
रियासतों का शुरुआती असमंजस
जिस वक्त यह प्रस्ताव संविधान सभा में पारित हुआ, तब भारत की रियासतें भी संविधान सभा में शामिल नहीं हुई थीं. उनसे भी संवाद हो रहा था. रियासतों के राजा और नरेश चाहते थे कि उन्हें स्वायत्तता मिले और वे राजशाही की व्यवस्था के मुताबिक़ ही शासन करें. कैबिनेट मिशन योजना के मुताबिक़ रियासतों को स्वतंत्र भारत की सरकार (उस वक्त अंतरिम सरकार बनी थी) से ही समझौते के माध्यम से यह तय करना था कि भारत की स्वतंत्रता के बाद उनका स्वरूप कैसा रहेगा! रियासतों के भारत में विलय के इतिहास के दो भाग हैं – पहला, अप्रैल 1947 तक का, जिसके मुताबिक़ रियासतों को बहुत सारी स्वायत्तता दी गयी थी, वे अपना संविधान बना सकती थीं और सेना भी रख सकती थीं. इस समझौते के बाद रियासतों के प्रतिनिधियों ने संविधान सभा में भाग लेना शुरू कर दिया.
सभा में हुई चर्चाओं और फिर इसके समानांतर भारत सरकार की रियासतों के विलय की नीति (जिसका नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल और वी. पी. मेनन कर रहे थे) के कारण दूसरा भाग सामने आया और अक्टूबर 1949 तक सभी रियासतें भारत में शामिल हो गयीं. बेहद सोच विचार के बाद लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव में "डेमोक्रेटिक या लोकतंत्र" शब्द नहीं रखा गया था क्योंकि यह संभव था कि रियासतें लोकतांत्रिक व्यवस्था न अपनाना चाहें और प्रस्ताव में लोकतंत्र की घोषणा के चलते संविधान सभा से बाहर रहने का निर्णय कर लें.
बहरहाल पंडित नेहरू ने कह दिया था कि लोकतंत्र तो गणतंत्र में सन्निहित है. मैं नहीं चाहता और मेरा खयाल है कि यह सभा भी नहीं चाहेगी कि देसी राज्यों (रियासतों) पर उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कुछ लादा जाए. उन्हें राजतंत्रात्मक प्रणाली रखने का अधिकार है; बशर्ते कि वहां पूरी स्वतंत्रता और दायित्वपूर्ण शासन हो और वह प्रजा के अधीन हो. यदि किसी रियासत के लोग राजा, महाराजा और नवाब को पसंद करते हैं, तो मैं चाहूं या न चाहूं, मैं इसमें कतई दखल देना पसंद नहीं करता.
पुरुषोत्तम दास टंडन ने कहा था कि "हालांकि मैं खुद देश की भलाई के लिए राज्यों को अवशिष्ट अधिकार दिए जाने का विरोध करूंगा, लेकिन मुस्लिम लीग हमें सहयोग दे, यही कारण है कि हमनें प्रान्तों को बहुत अधिकार देने का विचार अपनाया है. ताकि मुस्लिम लीग यह न कहे कि उनकी गैर-हाजिरी में हमने मनमाने ढंग से काम किया."
सबको साथ लेने के प्रयास जारी
रियासतों और मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति को संविधान सभा ने गंभीरता से लिया था. यही कारण था कि एम. आर. जयकर के सुझाव पर लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव पर अंतिम निर्णय 20 जनवरी 1947 तक के लिए टाल दिया गया था, हालांकि इस पर सरदार पटेल, गोविन्द वल्लभ पन्त, सर हरिसिंह गौड़, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी आदि ने गंभीर बहस की थी. डॉ. अम्बेडकर ने भी इस विचार का समर्थन करते हुए कहा था कि "अगर किसी के दिमाग में यह ख्याल हो कि बल-प्रयोग द्वारा, युद्ध द्वारा, क्योंकि बल-प्रयोग ही युद्ध है….हिन्दू-मुस्लिम समस्या का समाधान किया जाए ताकि मुसलमानों को दबाकर उनसे वह संविधान मनवा लिया जाए, जो उनकी रजामंदी से नहीं बना है, तो इससे देश ऐसी स्थिति में फंस जाएगा कि उसे मुसलमानों को जीतने में सदा लगा रहना पड़ेगा. एक बार जीतने से ही जीत का काम समाप्त न हो जाएगा." वास्तव में यह प्रस्ताव केवल बड़ी-बड़ी बातों के संकलन के रूप में नहीं देखा जा रहा था. इसके मंतव्यों को बिल्कुल खोलकर दुनिया के सामने रखा जा रहा था. जिस तरह की बहस इस प्रस्ताव पर हुई, उसके आधार पर यह कहा जाना वाजिब होगा कि इस प्रस्ताव के आठों बिन्दुओं का केवल एक ही अर्थ था, कोई छिपे हुए अर्थ नहीं थे
गणतंत्रात्मक व्यवस्था और मूलभूत अधिकारों की आधारशिला भी इसी प्रस्ताव में (बिंदु-4 और 5) में रख दी गयी थी. एम. आर. मसानी ने संकेत दिए थे कि हमारी दृष्टि में प्रजातंत्र का यह अर्थ नहीं है कि "पुलिस का शासन हो और लोगों को बिना मुकदमा चलाये ही खुफिया पुलिस गिरफ्तार कर ले या जेल भेज दे. प्रजा केवल राज्य का आदेश मानने के लिए हो, केवल एक दल का शासन हो, विरोधी दलों को कुचल दिया जाए. यह प्रस्ताव बताता है कि हम प्रजातंत्र चाहते हैं और कुछ नहीं!"
व्यापक परिदृश्य की व्याख्या करते हुए डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि "सभापति जी, मैं तो कहूंगा कि हम लोग अंग्रेजों से आखिरी बार कह दें कि हम आपसे दोस्ताना ताल्लुक रखेंगे. आपने व्यापारियों की तरह पदार्पण किया, इस देश की अपार संपत्ति से आपने अपना वैभव बढ़ाना चाहा, आपने यहां पृथक निर्वाचन की पद्धति चलाई, भारतीय राजनीति में आपने धर्म को घुसेड़ा…..हमारे घरेलू मामलों में 'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' न बनिए…घरेलू समस्याओं का निपटारा यहां के निवासी ही कर सकते हैं.. हम एक संयुक्त दृढ़ महान भारत का निर्माण करेंगे. वह महान भारत इस देश की 40 करोड़ जनता का होगा, किसी दल विशेष, सम्प्रदाय विशेष या व्यक्ति विशेष का हरगिज़ नहीं होगा."
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने कहा था कि प्रस्ताव में यद्यपि अधिकारों की चर्चा की गयी है, पर उनकी सुरक्षा का कोई उपचार नहीं दिया गया है. अधिकारों का कोई महत्व नहीं है, यदि उनकी रक्षा की कोई व्यवस्था न हो ताकि अधिकारों पर जब कुठाराघात हो तो लोग उनका बचाव कर सकें. वे चाहते थे कि प्रस्ताव में कहा जाए कि देश के उद्योग धंधों का और भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जाएगा. जब तक देश की अर्थनीति समाजवादी नहीं होती, किसी भी हूकुमत के लिए यह कैसे संभव होगा कि वह सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान कर सके.
रियासतों को नेहरू का संदेश
19 दिसंबर 1946 के बाद इस प्रस्ताव पर 20 जनवरी 1947 को फिर से चर्चा शुरू हुई. मुस्लिम लीग सभा में शामिल नहीं हुई. पंडित नेहरू ने 22 जनवरी को कहा, "हम इस दरवाज़े को खुला रखेंगे, आखिरी दम तक खुला रखेंगे और उनको, और हरेक को, जिनको यहां आने का हक़ है, पूरी तरह से आने का मौका देंगे. जाहिर है की दरवाज़ा खुला है, लेकिन हमारा काम नहीं रुक सकता. पहला काम इस सभा का यह होगा कि इस संविधान के जरिए हिन्दुस्तान में आज़ादी फैलाएं, भूखों को रोटी दें और नंगों को कपड़ा दें और हिन्दुस्तान में रहने वालों को मौका मिले कि वे पूरी तौर पर तरक्की कर सकें. यह प्रस्ताव लड़ाई का नहीं है, बल्कि अपने हक़ को दुनिया के सामने रखने के लिए है और अगर इस हक़ के खिलाफ कोई बात ऐसी होगी, तो हम उसका मुकाबला करेंगे, लेकिन यह प्रस्ताव एक दोस्ती और समझौते का है. कुछ नरेशों को यह बात पसंद नहीं आयी है कि हमारे प्रस्ताव में जनता के सर्वसत्ता-संपन्न होने की कल्पना की गयी है. अगर कोई नरेश या मंत्री इस पर आपत्ति करता है तो भारतीय रियासतों की शासन पद्धति की तीव्र निंदा के लिए यही आपत्ति काफी है. किसी भी व्यक्ति का दर्ज़ा कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसका यह कहना कि उसे मनुष्य पर शासन करने का ईश्वर का दिया हुआ वरदान है, नितांत जघन्य है. यह विचार अब भारत की वर्तमान अवस्था से बिलकुल असंगत है. इसलिए मैं तो ऐसे व्यक्तियों (नरेशों/राजाओं) को गंभीरतापूर्वक यह सुझाव दूंगा कि यदि आप सम्मान पाना चाहते हैं, दोस्ताना सलूक चाहते हैं, तो उस बात को कहना तो दूर, आप उसकी ओर इशारा भी न कीजिए. इस प्रश्न पर कोई समझौता न होगा."
उल्लेखनीय है कि जिस दिन पंडित नेहरु रियासतों को यह सन्देश दे रहे थे, उसके 16 दिन बाद ही नरेशों/राजाओं के मंडल के साथ विलय पर समझौता वार्ता होने वाली थी. कुल मिलाकर एक तरफ लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव के माध्यम से ब्रिटिश सम्राट की सरकार को कुछ सन्देश दिये गये, कई सन्देश भारत के लोगों को दिये गये, मुस्लिम लीग को भी सन्देश दिये गये और रियासतों को भी; इसके साथ भविष्य के भारत का सपना भी बुन दिया गया. इस प्रस्ताव को एक असाधारण पहल माना जाना चाहिए, क्योंकि कठिनतम, विपरीत और असहयोगी परिस्थितियों (दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका, भारत विभाजन की मांग, देश के कुछ क्षेत्रों में साम्प्रदायिक हिंसा, रियासतों की सत्ता की राजनीति, ब्रिटिश सम्राट की सरकार की सियासत, अकाल की स्थिति आदि) के बीच न्याय, व्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म निरपेक्षता, विश्व शान्ति, गणतांत्रिक व्यवस्था का सपना देखना एक असाधारण प्रतिमान ही तो है!
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